क्या 21 साल बाद फिर राहुल के लिए यह परीक्षा की घड़ी है? क्या 1997 में कोलकत्ता और 1992 में तिरुपति महाअधिवेशन की तरह दिल्ली में होने वाला कांग्रेस का 84वां महाअधिवेशन कांग्रेस कार्यसमिति चुनाव देखेगा? इन प्रश्नों के जवाब केवल नए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ही दे सकते हैं लेकिन चुनाव कराकर राहुल अपना और कांग्रेस पार्टी का मान सम्मान अवश्य बढ़ा सकते हैं.


दरअसल, कांग्रेस संविधान के आर्टिकलxix के मुताबिक कांग्रेस कार्यसमिति में 25 सदस्य हो सकते हैं जिनमें 12 को चुनाव के जरिए और 11 को मनोनीत किया जा सकता है. दो स्थान कांग्रेस अध्यक्ष और कांग्रेस संसदीय दल के नेता के लिए सुरक्षित हैं. सोनिया गाँधी के लम्बे कार्यकाल 1998 से 2017 के दौरान कभी चुनाव नहीं हुए और कांग्रेस कार्यसमिति ने हमेशा उनको पूरी कार्यसमिति को मनोनीत करने के अधिकार दिये, लेकिन पी वी नरसिम्हा राव और सीताराम केसरी ने क्रमशः 1992 और 1997 में चुनाव द्वारा कार्यसमिति का गठन किया जो दिलचस्प होने के साथ साथ कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति का पैमाना भी बना.


कांग्रेस संविधान के अनुसार, केवल कार्य समिति का सदस्य ही पार्टी का राष्ट्रीय स्तर पर महामंत्री और खजांची बन सकता है. कार्यसमिति के सदस्यों को लगभग 1500 आल इंडिया कांग्रेस कमिटी (AICC) के प्रतिनिधि चुनते हैं जो खुद राज्यों से चुन कर आते हैं.


1992 में नरसिम्हा राव ने बीस साल बाद कांग्रेस कार्यसमिति के चुनाव कराये थे. शरद पवार और अर्जुन सिंह ने, जो नरसिम्हा राव को अपना प्रतिद्वंदी मानते थे, एक चक्रव्यूह बना कर घेरने की कोशिश की. तिरुपति के इस संग्राम में पवार, अर्जुन और अन्य कांग्रेस के दिग्गज भारी मतों से जीते. लेकिन राव, जिनको चाणक्य की उपाधि भी दी जाती है. पवार, अर्जुन की तुरंत काट की और अपने अध्यक्षीय भाषण में इस बात का मलाल दर्शाया की कार्यसमिति चुनाव में कोई भी महिला, दलित और आदिवासी विजयी नहीं हुआ. राव ने कहा कि जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गाँधी की पार्टी में ऐसा चुनाव होना दुर्भाग्यपूर्ण है. राव के राजनीतिक सचिव जीतेन्द्र प्रसाद ने तुरंत कार्यसमिति से अपने इस्तीफे की पेशकश की. पवार, अर्जुन और अन्य नवनिर्वाचित सदस्यों ने भी प्रसाद का अनुसरण किया. राव ने फिर एक राजनीतिक पैंतरे के तहत जीती हुई कार्यसमिति को मनोनीत सदस्यों में ले लिया और रिक्त स्थान अपने पसंद के लोगों से भर दिए ताकि कार्यसमिति में उनका बहुमत और दबदबा बना रहे. इस अध्याय के चलते कार्यसमिति राव के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव नहीं पास कर पाई और अर्जुन, माधवराव सिंध्या जैसे लोगों को कांग्रेस से बाहर जाकर राव से टक्कर लेनी पड़ी.


अगस्त 1997 में सीताराम केसरी ने जोश में आकर कार्यसमित के चुनाव कराये. यह वह समय था जब सोनिया गाँधी औपचारिक रूप से कांग्रेस में शामिल नहीं थीं. केसरी ने उसी साल कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में शरद पवार और राजेश पायलट को करारी मात दी थी. केसरी और कांग्रेस के उस समय के उपाध्यक्ष जीतेन्द्र प्रसाद ने एक टीम बनाकर कलकत्ता महाधिवेशन में कार्यसमिति का चुनाव जीतने का प्रयास किया.


उत्तर प्रदेश की वोटर लिस्ट जिसमें 154 AICC प्रतिनिधि थे, चुनाव से कुछ देर पहले ही सार्वजिनिक की गई. कहा जाता है इसमें 109 प्रतिनिधि जीतेन्द्र प्रसाद के समर्थक थे. इसी प्रकार से बिहार के प्रतिनिधि लिस्ट में जगन्नाथ मिश्रा और राम लखन सिंह यादव जैसे दिग्गजों के नाम नहीं थे. लेकिन चुनाव में फिर भी पवार,  अर्जुन और अन्य केसरी विरोधी भारी मतों से जीतने में कामयाब रहे और केसरी का कार्यसमिति पर कभी कब्ज़ा नहीं हो पाया और जैसे ही 1998 की शुरुआत में सोनिया गाँधी ने कांग्रेस अध्यक्ष बनने का मन बनाया, तारिक़ अनवर छोड़, सभी सदस्य पलटी मार गए.


राहुल कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र के पक्षधर रहे हैं. वो कुछ अपरिहार्य कारणों से दिसंबर 2017 में कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव राजनीतिक संघर्ष और प्रतिस्पर्धा की भावना से नहीं करा सके लेकिन अब उनका पार्टी पर पूरा कंट्रोल है और कार्यसमिति के चुनाव विधिवत तरीके से न कराने का कोई कारण या तर्क भी नहीं है. राहुल के लिए यह परीक्षा की घड़ी है.


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