विधानसभा चुनाव से ऐन पहले पंजाब को पहला दलित मुख्यमंत्री देकर कांग्रेस ने क्या वाकई ऐसा मास्टर स्ट्रोक खेला है, जिसका गणित बाकी पार्टियां फिलहाल गहराई से नहीं समझ पाई हैं? कांग्रेस की इस दलित-गणित वाली राजनीति को समझने के लिए पिछले तीन-चार चुनावी-नतीजों पर गौर करना जरूरी है. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक पंजाब में दलितों की आबादी 32 प्रतिशत है, जिनमें से एक तिहाई दलित सिख हैं. जाहिर है कि पिछले 10 साल में ये प्रतिशत और बढ़ा ही है.


तमाम विरोध और नफ़े-नुकसान का आकलन करने के बाद कांग्रेस ने चरणजीत सिंह चन्नी को ही नये सीएम पद के लिए अगर सबसे काबिल समझा तो उसकी एक बड़ी वजह ये भी रही कि वे हिंदू-सिख यानी दोनों तरह के दलितों में लोकप्रिय व मुखर चेहरा हैं. दलितों का वोट पर्याप्त संख्या में हासिल किये बगैर कोई भी पार्टी पंजाब की सत्त्ता में नहीं आ सकती. इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 117 सीटों वाली विधानसभा में 54 सीटें ऐसी हैं, जहां 30 फीसदी से भी ज्यादा दलित मतदाता हैं. अन्य 45 सीटें ऐसी हैं, जहां उनकी संख्या 20 से 30 प्रतिशत के बीच है. जाहिर है कि इन 99 सीटों पर दलितों के वोट ही किसी उम्मीदवार की किस्मत का फैसला करने में सबसे अहम भूमिका निभाते आए हैं.


हालांकि 2012 और 2017 के नतीजों को देखें, तो कांग्रेस हिंदुओं के अलावा दोनों समुदाय के दलितों की पहली पसंद रही है. साल 2012 में उसे दलित सिखों के 51 और हिंदू दलितों के 37 फीसदी वोट मिले थे. अगली बार यानी 2017 में ये प्रतिशत कम हो गया और उसे क्रमशः 41 और 43 फीसदी वोट मिले लेकिन उसने गैर दलित हिंदुओं के 48 प्रतिशत वोट लेकर इस कमी को पूरा किया और दोबारा सरकार बनाने में कामयाब हुई. लेकिन गैर दलित हिंदू वोटों के मामले में कांग्रेस के लिए अब आम आदमी पार्टी बड़ी चुनौती बनकर उभर रही है. पिछले चुनाव में उसे इस समुदाय के 23 प्रतिशत वोट मिले थे, जो कि अकाली-बीजेपी गठबंधन से एक फीसदी अधिक ही थे.


अगर सीटों के लिहाज से देखें, तो कांग्रेस ने 2012 से 17 के बीच हर वर्ग में अपना प्रदर्शन बेहतर किया था. साल 2012 में कुल 34 रिज़र्व सीटों में उसे सिर्फ 10 सीटें ही मिली थीं. लेकिन अगले पांच साल में कांग्रेस ने दलितों के बीच अपना जनाधार इतना मजबूत कर लिया कि उसे 21 सीटें हासिल हुईं और 2019 में एक रिज़र्व सीट पर हुए उप चुनाव के बाद उस पर भी अपना कब्ज़ा जमा लिया.


कहते हैं कि पंजाब में राज उसी पार्टी का होता है, जो मालवा जीत लेता है. कुल सीटों में सबसे ज्यादा यानी 69 सीटें मालवा क्षेत्र में हैं. पिछले चुनाव में कांग्रेस ने यहां से 40 सीटें जीतीं थीं. दूसरे नंबर पर माझा क्षेत्र है, जहां 25 जबकि दोआबा में 23 सीटें हैं. पिछली बार कांग्रेस को यहां से क्रमशः 22 और 15 सीट मिली थीं.


पंजाब के चुनाव में डेरों की भूमिका भी बहुत अहम है, इसीलिये लगभग सभी पार्टियां इनका समर्थन पाने के लिए नाक रगड़ती दिखती हैं. इन डेरों का सबसे अधिक प्रभाव मालवा इलाके में ही है. एक अनुमान के मुताबिक मालवा के 13 जिलों में करीब 35 लाख डेरा प्रेमी हैं जिनमें दलित सिखों की ही संख्या ज्यादा है.


दलितों की इसी निर्णायक भूमिका के महत्व को देखकर ही हर पार्टी उन्हें सत्ता में भागीदारी देने का वादा कर रही है. अकाली दल-बीएसपी ने अपना गठबंधन करते वक़्त अगला डिप्टी सीएम दलित को बनाने का एलान किया था. लेकिन कांग्रेस ने उससे पहले ही एक दलित को सीएम बनाकर उनके दावे की हवा निकाल दी है. कांग्रेस ने दूसरा समझदारी वाला फैसला ये लिया कि सुखजिंदर सिंह रंधावा को डिप्टी सीएम बनाकर जाट सिखों की नाराजगी को कुछ हद तक शांत करने की कोशिश की है. लेकिन अब वहां मुख्य विपक्षी आम आदमी पार्टी को चुनाव से पहले ये मुश्किल फैसला लेना होगा कि उसका मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा. उसे कोई ऐसा फार्मूला निकालना होगा, ताकि हिंदुओं के साथ ही जाट सिख और दलितों का वोट भी इतना मिल जाये कि वो सत्ता की दहलीज तक पहुंचने का अपना सपना पूरा कर सके.


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