जनवरी में अमेरिका की एक साइंस मैगजीन ने जब यह स्टडी पब्लिश की कि औरतें औरतों पर भरोसा करती हैं तो इसका जीती-जागती मिसाल देखने को नहीं मिली थी. अब मिल रही है. रॉबर्ट वाड्रा के मामले में ममता बनर्जी, प्रियंका गांधी के साथ हैं. साफ कह रही हैं कि सरकार के पैंतरों से उनके कांग्रेस से रिश्ते बिगड़ने वाले नहीं. विपक्ष इनसे डरने वाला भी नहीं. वह मिलकर चुनाव आयोग से गुहार लगाएगा. आने वाले समय में यह नाता, सरकार की नाक में दम कर सकता है. प्रियंका और ममता की दुकड़ी को तिकड़ी बनाने वाली मायावती फिलहाल चुप्पी तोड़ रही हैं. ट्विटर पर विराजमान हो गई हैं. 2014 के चुनावों में सोशल मीडिया के प्रताप को समझ कर वह भी इस हथियार का इस्तेमाल करने की फिराक में हैं. तो, प्रियंका, ममता और मायावती का त्रिकोण आने वाले चुनावों में कोई नया रंग जरूर बिखेरने वाला है.


यूं कांग्रेस ने प्रियंका गांधी का कार्ड बखूबी और यथासमय खेला है. पीछे भाई राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस ने कई राज्य फतह किए हैं. बाकी के राज्यों में भी केंद्र सरकार के खिलाफ हवा बनाने की कोशिश की जा रही है. ऐसे में प्रियंका की मौजूदगी पार्टी में नए तेवर भर सकती है. फिलहाल प्रियंका एक आदर्श बीवी, आदर्श बहन और आदर्श बेटी के तौर पर दिखाई दे रही हैं. पति रॉबर्ट वाड्रा का साथ निभाते हुए ईडी के दफ्तर तक उन्हें छोड़ने जाती हैं, लेने भी जाती हैं. मतदाताओं के सामने साफ संदेश है- पत्नी धर्म निभाना है. जाहिर सी बात है, हमारा मतदाता अपने नेता की ऐसी ही छवि पसंद करता है.



दौर बदल रहा है. सिंदूर-बिंदी लगाए औरत से आगे बढ़ते हुए, हर मोर्चे पे खुद को साबित करने वाली छवि औरत में देखना चाहता है. प्रियंका उस छवि पर खरी उतरती हैं. भरोसा दिलाती हैं कि परिवार के हर सदस्य का साथ देने वाली औरत, अपने वोटर का साथ भी निभाएंगी. इसीलिए उनके रोड शो में समर्थकों की भीड़ है जो आने वाले दिनों में वोटर में तब्दील हो सकती है. प्रियंका को इंदिरा गांधी की फोटोकॉपी मानने वालों का मानना है कि देश का एक बहुत बड़ा तबका अब भी अस्मिता की राजनीति में पारंगत है. इसीलिए प्रियंका कांग्रेस के लिए बह्मास्त्र बन सकती हैं.


उधर ममता बनर्जी भी केंद्रीय धुरी बनकर उभर रही हैं. उनका कद्दावर व्यक्तित्व उनकी अदायगी में साफ झलकता है. बंगाल में उन्होंने माकपा की सालों पुरानी सत्ता को चुनौती दी, इसके बाद से उनकी शख्सियत और जोरदार तरीके से उभरी. लेकिन वह खुद शांत हो गईं. कभी वाचाल दिखने वाली ममता ने धीरे-धीरे खुद को शांत भी किया. अब राष्ट्रीय नेता के तौर पर उभरने की कोशिश कर रही हैं. सीबीआई के मुद्दे पर अपने ही राज्य की राजधानी में धरने पर बैठीं तो विपक्षी पार्टियां उनके समर्थन में वहां जमा हो गईं. फिर तीन दिन बाद धरना खत्म करते हुए उन्होंने कहा कि विपक्षी नेताओं की सलाह से उन्होंने यह निर्णय लिया है.


उनके इस दावे से संकेत स्पष्ट था- विपक्ष के सुझाव की इज्जत. जिस एस्प्लेनेड इलाके में वह धरने पर बैठी थीं, वहीं 2006 में उन्होंने सिंगुर में किसानों की भूमि अधिग्रहण के खिलाफ अनशन किया था. तब भी उनकी पार्टी को नई जान मिली थी, इस बार भी मिली. विपक्षी पार्टियों की एकता साफ दिखाई दी. उनका राष्ट्रीय नेतृत्व उभरकर आया. तभी राज्य में भाजपा के इकाई अध्यक्ष दिलीप घोष तक कह चुके हैं कि अगर बंगालियों को कभी प्रधानमंत्री बनने का मौका मिलेगा, तो वह पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की मुखिया होंगी. तो ‘पंगा लेने वालों से चंगा हो जाने’ वाली ममता दी, सरकार के लिए मुसीबत की घंटी हो सकती हैं.



मायावती इस त्रिकोण का तीसरा कोण हैं. मुलायम सिंह से अपने अतीत के कड़वे अनुभवों को भुलाकर सपा से उन्होंने गठबंधन किया है. अखिलेश भतीजे बन गए हैं, मायावती बुआ. परिवार में बुआ के रुतबे से कौन वाकिफ नहीं होता. मायावती का रुतबा भी किसी से कम नहीं. उनके विरोधियों ने कई बार मुंह की खाई है. 2014 में भले ही उनकी बसपा लोकसभा में खाता न खोल पाई हो, 2007 में उत्तर प्रदेश में उनकी जीत को कौन भुला पाएगा? तब उनके दम पर बसपा ने उत्तर प्रदेश में फतह हासिल की थी. उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी का अभियान भी चलाया था. ऐसे कितने ही उदारवादी-वामपंथी हैं जो उनके पहले दलित एवं महिला प्रधानमंत्री बनने का सपना संजोए हैं. मायावती इस तरफ चल भी पड़ी हैं.


करीबियों का कहना है कि अगर आगामी चुनावों में विपक्ष का वारा-न्यारा होता है तो सपा-बसपा प्रधानमंत्री पद के लिए मायावती का समर्थन कर सकते हैं. बदले में उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बनना चाहेंगे. यह सत्ता समीकरण दोनों के लिए वाजिब होगा. यूं प्रियंका के आने से दोनों के गणित में फेरबदल जरूर हुआ है. सुनते हैं, दोनों कांग्रेस को गठबंधन में शामिल होने का न्यौता दे चुके हैं. उधर मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस की सरकारों का समर्थन भी करती हैं. यानी कंधे मिल गए हैं. कर्नाटक में कुमारास्वामी मंत्रिमंडल के शपथ ग्रहण में सोनिया और ममता के साथ उनका हंसता चेहरा सभी को याद है.



इसीलिए दिल्ली दूर भले ही हो, प्रियंका, ममता और मायावती की रफ्तार तेज है. जिस देश में हर दस विधि निर्माताओं में आदमी नौ हैं- औरतें एक, वहां औरतें मिलजुलकर बराबर की टक्कर दे रही हैं. थोड़े बहुत गिले-शिकवे जरूर होंगे, लेकिन आपसी एका बीच-बीच में दिखाई दे ही जाता है. यह मौजूदा सरकार के लिए चुनौती तो पेश करेगा ही.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)