लगभग सवा साल पहले जब अंग्रेजी के पॉपुलर फिक्शन राइटर चेतन भगत ने ट्विटर पर इतिहासकारों का मजाक उड़ाया था, तब बहुत से लोग उनकी समझ पर हंसे थे. चेतन ने पूछा था- आखिर इतिहासकार करते क्या हैं? ये हुआ. फिर यह हुआ. फिर ये. चलो आज का काम खत्म. तब ट्विटर पर उन्हें काफी लताड़ मिली थी. बेशक, चेतन के इस ट्विट से यह समझा जा सकता है कि हिस्ट्री को हममें से ज्यादातर लोग कितने हल्के में लेते हैं. चेतन इन दिनों बॉलीवुड में सक्रिय हैं, उनके कई नॉवेल्स पर फिल्में बन रही हैं- कई बन भी चुकी हैं... और इसमें कोई शक नहीं कि उनकी ही तरह बॉलीवुड के दूसरे दुकानदार भी इतिहास को उसी अंदाज में लेते हैं. संजय लीला भंसाली भी उससे कोई अलग नहीं. उनकी बाजीराव मस्तानी इसकी मिसाल है. हिस्टॉरिकल फिल्म के नाम पर वह इसमें करोड़ों का तमाशा कर चुके हैं.


अब भंसाली की नई फिल्म पद्मावती को लेकर बवाल मचा है. करणी सेना वालों ने उनसे हाथापाई की और कहा कि उनकी नई प्रेजेंटेशन पद्मावती की ऐतिहासिक छवि को बर्बाद कर रही है. भंसाली के लिए जयपुर जंग का मैदान बन गया. फिल्म की शूटिंग बंद हो गई. भंसाली के माफी मांगने पर मामला संभला है.


करणी सेना वालों के लिए रानी पद्मावती या रानी पद्मिनी एक वीरांगना है जिसे कोई भी ऐरा-गैरा अलाउद्दीन खिलजी से रोमांस नहीं करवा सकता. खिलजी मुसलिम आक्रांता था, पद्मावती एक हिंदू सती सावित्री नारी थी. दोनों के बीच दुश्मनी का रिश्ता था- भंसाली उनमें प्रेम कैसे करवा सकते हैं. यहां लव जेहाद वाला एंगल देखा जा सकता है. भंसाली का कहना है कि प्रेम प्रसंग नहीं, यह एक ड्रीम सीक्वेंस था. सपने पर किसका बस है- इसमें सभी को छूट मिलती है. खिलजी को हम दे रहे हैं कि किसी का क्या जाता है. माफी मांगने पर उन्होंने दावा किया है कि ऐसा कोई ड्रीम सीक्वेंस अब नहीं फिल्माया जाएगा.


वैसे इतिहासकार रानी पद्मावती को एक फिक्शनर कैरेक्टर कहते हैं. मलिक मोहम्मद जायसी जैसे कवि ने पदमावत नाम का महाकाव्य कुछ यूं रचा कि पदमावती जन मानस का हिस्सा बन गई. 1909 का इंपीरियर गैजेट ऑफ इंडिया कहता है कि खुद जायसी ने अंत में इस महाकाव्य को एक दृष्टांत कथा कहा था. फिर भी जायसी से पहले और बाद में भी यह चरित्र लोककाव्य और लोक इतिहास का हिस्सा रहा है. करणी सेना वालों ने इस ऐतिहासिक कैरेक्टर को हिंदू अस्मिता का सवाल बनाया और गुंडई करते हुए भंसाली को थपड़ियाया.


वैसे भंसाली जैसे फिल्मकारों के लिए इतिहास या साहित्य सिर्फ तमाशे का बायस रहा है. उनकी देवदास ने शरतचंद्र के महान उपन्यास का दम निकालकर रख दिया था. शरद बाबू की सिंपलिसिटी उनकी कृतियों की सबसे बड़ी विशेषता है. देवदास जैसी फिल्म की भव्यता शरद बाबू की कहानी के भदेस चित्रण से ज्यादा कुछ नहीं था. इसी तरह उनकी बाजीराव मस्तानी ने ‘चटक मटक वटक झाली’ करते हुए दुश्मन की नहीं, तमाम ऐतिहासिकता की ही ‘वाट’ लगाई थी.


आप सिनेमा देखने के बाद क्या याद रखते हैं- भव्य कॉस्ट्यूम, कंप्यूटर ग्राफिक से तैयार वॉर सीन्स और बाजीराव जैसा रोमांटिक नायक और डांस-गाना. बस इतना ही कुछ आशुतोष गोवारिकर की जोधा अकबर को देखने के बाद भी याद रहता है. ए. आर. रहमान के म्यूजिक और नीता लुल्ला के कॉस्ट्यूम्स के अलावा सिर्फ हमारे साथ सिर्फ जोधा और अकबर के रोमांस की स्मृतियां ही रहती हैं. क्या अकबर के काल को जानने के लिए आप जोधा अकबर देख सकते हैं? क्या सिंध की कदीम तहजीब के मरकज मोहनजोदड़ो के बारे में जानने के लिए आप आशुतोष गोवारिकर की फिल्म देखना पसंद करेंगे? बिल्कुल नहीं क्योंकि ये सब डायरेक्टर के पर्सनल वेंचर से ज्यादा कुछ नहीं है.


पर फिल्म बनाना सिर्फ पैसे का तमाशा करना नहीं है. बाजीराव या अकबर के चरित्र बस यहीं तक सीमित नहीं हैं. क्या आप उन्हें उनके सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ से अलग करके देख सकते हैं? इसका कोई जिक्र फिल्मों में लेशमात्र भी नहीं किया जाता. होती है तो सिर्फ व्यक्तिपूजा. फिल्म राजा पर बनती है, प्रजा पर नहीं. कुछ कैरेक्टर भव्य, बड़े, उजले- कुछ निचले, दबे हुए या स्याह. फिल्में और टीवी बड़ा खर्चा करके सिर्फ नायक गढ़ती हैं. इतिहास के खलनायकों को नायक बनाती हैं और असल नायकों को मिट्टी में मिलाती हैं. महानायकों को हजारों-लाखों के कॉस्ट्यूम में नचाकर पैसा कमाती हैं.


जब आप बाजीराव की बीवी काशीबाई को दरबार में ‘पिंगा’ पर नाचते देखते हैं तब आपको यह पता नहीं चलता कि उस दौर में औरतों की क्या स्थिति थी- उन्हें अपने कंधे पर पल्लू के ऊपर भी कपड़ा रखना पड़ता था ताकि शरीर के किसी भी कोने पर किसी की नजर पड़ने का चांस न रहे. न ही आप जान पाते हैं कि पेशवा के दौर में दलितों के साथ क्या व्यवहार होता था- कैसे उन्हें कमर पर झाडू बांधनी पड़ती थी ताकि चलते-चलते सड़कों की बुहारी होती रहे. पर इनकी कहानियां ऐसे फिल्मकार नहीं दिखा सकते. क्योंकि तब रिलायंस जैसे प्रोड्यूसर उन्हें नहीं मिलेंगे. जब सरकार खुद प्रोड्यूसर होती है तब सत्यजित रे जैसे फिल्मकार सदगति जैसी फिल्में बना पाते हैं जिनमें साहित्य और सिनेमा का खूबसूरत संगम होता है.


जिसने सत्यजित रे की सद्गति देखी है, वह समझ सकता है कि सिनेमा या साहित्य किसी दौर की सच्चाई होते हैं. आप उनसे इतिहास और समाज, दोनों को जान सकते हैं. सदगति का दुखी पंडित बाबा के हाथों किन स्थितियों में सदगति पाता है-दलित के जीवन का सार यही है. मशहूर थ्योरिस्ट और हिस्टोरिन ई.एच.कार ने कहा था कि ‘इतिहास दरअसल वर्तमान और अतीत के बीच का अनंत संवाद होता है.‘ यहां हमें सिनेमा में भी यही संवाद नजर आता है. प्रेमचंद की कृतियों में आपको उस दौर के समाज का इतिहास नजर आता है. मशहूर इतिहासकार रोमिला थापर जब सामाजिक और आर्थिक इतिहास की बात करती हैं तो प्रेमचंद की रचनाएं आपको उसी दौर की सैर कराती हैं.


पर बॉलीवुड के बाजीगर इतिहास और लोक इतिहास से सिर्फ नायकों को चुराना जानते हैं- वह भी उसके संदर्भों से काटकर. रानी पद्मावती जैसे चरित्र को रुपहले परदे पर सिर्फ रोमांस बिखेरने के लिए प्रयोग किया जा सकता है. स्त्री की पहचान या राजपूत समाज में उसकी दुर्दशा दिखाने के लिए उसका इस्तेमाल शायद ही किया जाए. राजस्थान का इतिहास जौहर करने वाली रानियों से भरा पड़ा है. आक्रांता किस तरह औरत का इस्तेमाल अपने शौर्य को स्थापित करने के लिए करता है, यह जानने के लिए आप जौहर के इतिहास को पलटकर देख सकते हैं.


इतिहास वर्तमान भी है- यह तभी साबित हो जाता है जब सीरिया के अलेप्पो में बीसियों औरतें बलात्कार से बचने के लिए खुदकुशी कर लेती हैं. क्या यह तीन सौ साल पहले के जौहर के कुछ अलग है? सच तो यह है कि भंसाली जैसे फिल्मकारों के लिए रुपहले परदे पर व्यक्तिपूजा की कहानियां गढ़ना ईजी जॉब है. एक तरफ ऐसे लोग समाज के अंधविश्वास का दोहन करके चांदी काटते हैं तो दूसरी ओर प्रगतिशीलता का जामा ओढ़कर ऑस्कर जीतने की कामना रखते हैं. लेकिन ऐसे लोग जिन भक्तों की भक्ति की आग में सालों से घी डालने का काम कर रहे हैं, उनकी आंच सहनी पड़े तो क्या गम है? करणी सेना जैसी स्वयंभू ब्रिगेडों को पालने वाले भी यही लोग हैं और उनसे पिटने वाले भी यही लोग. बाकी, अपुन का क्या जाता है.


नोट: उपरोक्त लेख में व्यक्त दिए गए विचार लेखक के निजी विचार है. एबीपी न्यूज़ का इनसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोई सरोकार नहीं है.