संसद सत्र के पहले दिन ही राज्यसभा के 12 विपक्षी सांसदों के निलंबन की कार्रवाई ने सरकार और विपक्ष के बीच मतभेदों की खाई को और चौड़ा करके रख दिया है. बड़ा सवाल ये है कि क्या ये असल मुद्दों से ध्यान भटकाने की कोशिश है या फिर सरकार दोनों सदनों को सुचारु रूप से चलाने की वाकई ईमानदार नीयत भी रखती है? अगर उसकी नीयत साफ है तो फिर किसी बिल पर चर्चा कराने की विपक्ष की मांग मानने से उसे परहेज़ आखिर क्यों है. अगर हर विधेयक को सिर्फ ध्वनिमत से ही पारित कराने का सरकार का इरादा है, तो फिर संसद में विपक्ष की मौजूदगी का कोई महत्व ही नहीं बचेगा, जो स्वस्थ लोकतंत्र की सेहत के लिए अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता.


जहां तक आज निलंबित किये गए सांसदों का मसला है, तो वह भी एक बिल पर चर्चा कराने की मांग को लेकर हुए हंगामे से ही जुड़ा हुआ है. पिछले मानसून सत्र के दौरान 11 अगस्त को राज्यसभा में पेश किये गए इंश्योरेंस बिल पर चर्चा कराने की मांग को लेकर ही विपक्ष व सत्ता पक्ष के सदस्यों के बीच तीखी झड़प और खींचातानी हुई थी. नौबत ये हो गई थी कि हालात पर काबू पाने के लिए मार्शलों को सदन में बुलाना पड़ा था. 


दरअसल, राज्यसभा में एनडीए की सरकार अभी भी बहुमत के आंकड़े से 22 सीट दूर है, इसलिये वह अक्सर महत्वपूर्ण बिलों पर वोटिंग के प्रावधान वाले नियम के तहत चर्चा कराने से बचती है और उसकी कोशिश यही होती है कि बगैर वोटिंग वाले नियम के तहत चर्चा कराकर बिल पास करवा लिया जाये. उच्च सदन में इसी मुद्दे पर पहले भी सरकार और विपक्ष के बीच टकराव होता रहा है और सांसदों के निलंबन के बाद तो ये टकराव और भी ज्यादा बढ़ने की उम्मीद है.


हालांकि राज्यसभा में 1990 के बाद से ही किसी दल के पास बहुमत नहीं रहा है. उससे पहले कांग्रेस उच्च सदन में बहुमत में थी, क्योंकि उस समय अधिकांश राज्यों में उसकी सरकारें होती थीं, लेकिन इन तीन दशक से वह लगातार कमजोर होती जा रही है. उच्च सदन में बहुमत न होने की वजह से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार को कई बार दिक्कतों का सामना करना पड़ा है. हालांकि 17वीं लोकसभा में सभी नाजुक मौकों पर वह जोड़-तोड़ करके विपक्ष पर बढ़त हासिल करने में कामयाब हुई है. 245 सदस्यों वाली राज्यसभा में बहुमत का आंकड़ा 123 है. बीती जुलाई में हुए द्विवार्षिक चुनाव के बाद बीजेपी की संख्या 85 सांसदों की हो गई है, जबकि एनडीए के सांसदों की संख्या 102 पहुंच गई है. यानी अब एनडीए और बहुमत के बीच केवल 22 सीटों का अंतर रह गया है.


दूसरी तरफ कांग्रेस इतनी कमजोर हुई है कि अब उसके केवल 40 सांसद ही उच्च सदन में रह गए हैं. कांग्रेस के गठबंधन वाले यूपीए की संख्या 65 सदस्यों की है. इस तरह सरकार व विपक्षी गठबंधन के बीच भी सदस्यों का अंतर बढ़ गया है. ऐसे में, दोनों गठबंधन से अलग रहने वाले दलों की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है. यही कारण है कि सदन के इन आंकड़ों का असर विधायी कामकाज पर पड़ता है और सरकार के लिए स्थितियां आसान हो जाती हैं. हालांकि सरकार से जुड़े सूत्र मानते हैं कि कांग्रेस और यूपीए के कमजोर होने से एनडीए को उच्च सदन में अब बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं आएंगी, क्योंकि कई गैर यूपीए वाले दल सरकार के नजदीक हैं और मौका देखकर वे उसका समर्थन भी करते रहते हैं. इनमें बीजू जनता दल (बीजेडी), ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) और वाईएसआर कांग्रेस पार्टी (वाईएसआरसीपी) जैसे दल मोटे तौर पर कांग्रेस विरोधी हैं और इनका समर्थन बीजेपी को मिलता है. इससे सरकार के पास बहुमत का पर्याप्त आंकड़ा हो जाता है, लेकिन सरकार हर नाजुक मसले पर इन तीन क्षेत्रीय दलों के भरोसे पर रहकर वोटिंग नियम के तहत चर्चा कराने का जोखिम लेने से बचना चाहती है.


वैसे संसदीय इतिहास में लोकसभा में सबसे बड़ा निलंबन साल 1989 में हुआ था, जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे. तब सांसदों ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या पर ठक्कर कमीशन की रिपोर्ट को सदन में रखे जाने की मांग को लेकर जमकर हंगामा किया था. तब लोकसभा स्पीकर ने अनुशासनहीनता के मामले में एक साथ 63 सांसदों को निलंबित कर दिया था. जिन 12 सांसदों को नियम 256 के तहत सदन से निलंबित किया गया है, उसमें ये प्रावधान है कि निलंबित सदस्यों के माफी मांगने पर भी इसे वापस लिया जा सकता है. लेकिन वह भी राज्यसभा के सभापति की मर्जी पर होगा. वैसे संस्पेंशन के खिलाफ प्रस्ताव भी सदन में लाया जा सकता है. अगर ये पास हो गया तो निलंबन खुद ब खुद हट जाएगा. देखते हैं कि मंगलवार को विपक्ष झुकता है कि नहीं?


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