हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण, बलात्कार और कई अन्य संगीन आरोपों में जेल की सलाखों के पीछे खड़े बीजेपी विधायक कुलदीप सिंह सेंगर का मामला संसद से लेकर सड़क तक गूंज रहा है और इसी बहाने राजनीति के अपराधीकरण की पुरानी बहस देश में नए सिरे से आरंभ हो गई है. यूपी के उन्नाव जिले की बांगरमऊ सीट से चुन कर आए दलबदलू सेंगर की दबंगई का आलम यह है कि वे आलाकमान तक की परवाह नहीं करते. जब वे सपा के विधायक हुआ करते थे, तब पार्टी हाईकमान के निर्देश को धता बताते हुए उन्होंने अपनी पत्नी संगीता सेंगर को जिला पंचायत अध्यक्ष पद के लिए खड़ा करवाया और सपा सरकार के पूरा जोर लगा देने के बाद भी पत्नी को विजयी बनवाया.


सेंगर उन्नाव की तीन विधानसभा सीटों की तीन अलग-अलग पार्टियों से नुमाइंदगी कर चुके हैं. सेंगर आपराधिक छवि के ऐसे नेता हैं, जिन्हें किसी पार्टी की जरूरत महसूस नहीं होती, बल्कि पार्टियों को उन जैसे लोगों की जरूरत होती है क्योंकि सभी राजनीतिक दलों का एकमात्र क्राइटीरिया प्रत्याशी का चुनाव जीतना हो गया है, उसके काले कारनामों से किसी को कोई मतलब नहीं है. ऐसे नेताओं को संसदीय लोकतंत्र से दूर रखने की जिम्मेवारी संसद की ही है, मगर जमीनी हकीकत यह है कि राजनीतिक दलों पर इनकी पकड़ इतनी मजबूत हो चुकी है कि उनके बिना सत्ता और चुनाव की राजनीति संभव नहीं. राजनीतिक संरक्षण में ही आवारा पूंजी, धर्म और अपराध के विषवृक्ष फल-फूल रहे हैं.

चुने गए जनप्रतिनिधियों के चुनाव आयोग को दिए गए हलफनामे इस बात की पुष्टि करते हैं कि आपराधिक रिकॉर्ड रखना उनके लिए किसी तमगे की तरह है. वे भारी मतों से जीतते भी हैं, जो इस खतरनाक रुझान का स्पष्ट संदेश है कि राजनीतिक दलों के साथ-साथ मतदाताओं को भी उनकी आपराधिक छवि स्वीकार्य है. आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त होने की अभियुक्त प्रज्ञा ठाकुर मजे से चुनाव जीतती हैं और कानून बनाने संसद पहुंच जाती हैं. चुनाव प्रक्रिया से जुड़ी शोध संस्था ‘एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक अलायंस’ (एडीआर) की रिपोर्ट के मुताबिक आपराधिक मामलों में फंसे सांसदों की संख्या बीते दस साल में 44 प्रतिशत बढ़ी है. 17वीं लोकसभा के लिए चुनकर आए 542 में से 233 (43 प्रतिशत) सांसदों के खिलाफ कोई न कोई आपराधिक मुकदमा चल रहा है. 2004 में जहां आपराधिक मुकदमे झेलने वाले सांसदों का प्रतिशत 24 था वहीं 2009 के लोकसभा चुनाव में ऐसे 162 सांसद (30 प्रतिशत) चुनकर आए थे, जबकि 2014 के चुनाव में निर्वाचित इन सांसदों की संख्या 185 (34 प्रतिशत) थी. निर्वाचित जनप्रतिनिधि अक्सर हवाला देते हैं कि उनके खिलाफ सारे मुकदमे राजनीति से प्रेरित हैं अथवा विरोध प्रदर्शन वगैरह के लिए दर्ज कर लिए जाते हैं, जबकि एडीआर ने नवनिर्वाचित 542 सांसदों में 539 सांसदों के हलफनामों के विश्लेषण के आधार पर बताया कि इनमें से 159 सांसदों (29 प्रतिशत) के खिलाफ हत्या, हत्या के प्रयास, बलात्कार और अपहरण जैसे गंभीर किस्म के आपराधिक मामले लंबित हैं.

बीजेपी के 303 में से 301 सांसदों के हलफनामों का विश्लेषण करने पर पाया गया कि साध्वी प्रज्ञा सिंह सहित 116 सांसदों (39 प्रतिशत) के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं. वहीं कांग्रेस के 52 में से 29 सांसद (57 प्रतिशत) आपराधिक मामलों में घिरे हुए हैं. राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय 25 राजनीतिक दलों में 6 दलों (लगभग एक चौथाई) के सौ प्रतिशत सदस्यों ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले चलने की जानकारी दी थी. बसपा के 10 में से 5 (50 प्रतिशत), जदयू के 16 में से 13 (81 प्रतिशत), तृणमूल कांग्रेस के 22 में से 9 (41 प्रतिशत) और माकपा के 3 में से 2 सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं. एनडीए की हिस्सेदार पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के निर्वाचित सभी 6 सदस्यों ने अपने हलफनामे में अपने खिलाफ आपराधिक मामले लंबित होने की जानकारी दी. इसके अलावा ओवैसी की एआईएमआईएम के दोनों सदस्यों और 1-1 सांसद वाले दल आईयूडीएफ, एआईएसयूपी, आरएसपी और वीसीआर के सांसद आपराधिक मामलों में घिरे हुए हैं. राज्यवार विश्लेषण से पता चलता है कि आपराधिक मामलों में फंसे सर्वाधिक सांसद केरल (90 प्रतिशत) और बिहार (82 प्रतिशत) से चुन कर आए हैं. केरल के इडुक्की लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस की टिकट पर चुनकर आए एडवोकेट डीन कुरियाकोस पर सबसे ज्यादा 204 आपराधिक मामले लंबित हैं.

उपर्युक्त आंकड़ों से संसद की जो तस्वीर बनती है, वह एक भारतीय होने के नाते हमें शर्मसार करने के लिए काफी है. लेकिन हमारे राजनीतिक दल शर्मिंदा नहीं हैं. चुनाव सुधार की प्रक्रिया को तेज करके गंभीर प्रकृति के आपराधिक मुकदमे झेल रहे व्यक्तियों को चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है. वे तो अपनी विचारधारा में कहीं से न खपने वाले व्यक्ति को थाली में सजा कर टिकट दे देते हैं, एकमात्र शर्त यह होती है कि उम्मीदवार चुनाव जिताऊ होना चाहिए. अपराधियों को टिकट बांटने के मामले में हर राजनीतिक दल में समाजवाद व्याप्त है और मूक सहमति बनी हुई है. अगर यह आम सहमति न होती तो जिस तरह सारे दल सांसदों के वेतन भत्ते बढ़ाने, चुनावी चंदे को अपारदर्शी बनाए रखने और चुनाव प्रक्रिया में सुधार न लाने के मुद्दों पर अपूर्व एका बनाए हुए हैं, वह संभव ही नहीं हो सकता था. अपने स्वार्थों की पूर्ति वाले सारे विधेयक ये जनप्रतिनिधि टेबल बजाकर ध्वनि मत से पारित कर लेते हैं, जबकि अपराधियों को किसी पार्टी की टिकट न देने पर विचार तक नहीं किया जाता!

हम सब जानते हैं कि (तथाकथित) अपराधी संसद के मुख्यद्वार से ही नहीं, चोर दरवाजों से भी प्रवेश करते रहे हैं. जब सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था अपराधियों के सम्मान में सुरक्षा कवच की तरह ‘बचाव पक्ष’ बन कर खड़ी हो, तो राजनीति को अपराधीकरण से आखिर कैसे बचाया जा सकता है! प्रतिशोध और प्रतिहिंसा के राजनीतिशास्त्र में आतंक, हत्या और खून-खराबा यानी अपराध अवश्यम्भावी है. महात्मा गांधी से लेकर दीनदयाल उपाध्याय, प्रताप सिंह कैरो और ललित नारायण मिश्रा, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी व अन्य तक की हत्या भी तो आपराधिक राजनीति का खूंरेजी अध्याय है.

चूंकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस देश का सबसे पुराना और सबसे ज्यादा अरसे तक सत्ता का सुख भोगने वाला राजनीतिक दल है, इसलिए सत्ता में बने रहने के लिए अपराधियों का मन बढ़ाने का श्रेय भी उसी को जाता है. पहले बूथ कैप्चरिंग और वोटरों को धमकाने के लिए अपराधियों की मदद ली जाती थी. जब पैसे वाले चंद अपराधियों ने देखा कि नेता लोग संसद और विधानसभाओं में पहुंचने के लिए उन पर आश्रित होने लगे हैं तो वे खुद ही चुनाव मैदान में उतरने लगे. पहलेपहल राजनीतिक दल आंख की शर्म बचाने के लिए इन्हें सीधे टिकट नहीं देते थे, बाद में यह शर्म भी जाती रही और तर्क दिया जाने लगा कि अपराध अभी सिद्ध नहीं हुआ है. आज आलम यह है कि हत्या और बलात्कार के फरार आरोपी को भी टिकट थमा दिया जाता है क्योंकि वह पार्टी को ‘मजबूती’ दे सकता है. मीडिया और जनता के दबाव में जब ‘अपना आदमी’ फंसने लगता है तो हर पार्टी प्राणपण से उसे बचाने में जुट जाती है. ये नजारे देख कर सच्चे, नि:स्वार्थी, ईमानदार और समाजसेवी कार्यकर्ता भी पार्टी में अपने प्रमोशन के लिए गलत रास्ता पकड़ने में ही अपना भला समझने लगते हैं. आपराधिक छवि के लोगों के निर्वाचित होते जाने से संसद या अन्य सदनों की गरिमा तो तार-तार होती ही है.

सामंती संस्कार और जातीय वर्चस्व की जमीन पर राजनीति और अपराध एक ही सिक्के के दो पहलू बन चुके हैं. राजनीतिक दलों में समाज सेवा की भावना के स्थान पर किसी कॉरपोरेट कंपनी जैसा व्यवसायीकरण घर कर चुका है, जो स्वभावतः अपराधीकरण को खाद-पानी देता है. हर दल के शीर्ष नेतृत्व में यह धारणा जमती जा रही है कि हर संभव लूट-खसोट, भ्रष्टाचार, दंगे-फसाद, आंदोलन-प्रदर्शन, भारत बंद, रेल रोको आदि की कामयाबी के लिए साधन संपन्न बाहुबलियों और संगठित दबंगों की मदद अपरिहार्य है. एन. एन. वोहरा समिति की रिपोर्ट (1993) बताती है कि कैसे आपराधिक गिरोहों ने राजनीति और भ्रष्ट नौकरशाही को धनबल से अपने शिकंजे में जकड़ रखा है और एक समानांतर सरकार चला रहे हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने एक निर्णय में इस रपट का विस्तार से उल्लेख किया था. आपराधिक गिरोहों या माफिया से सम्बद्ध मध्यम वर्ग की उद्दाम महत्वाकांक्षाएं अब हत्यारी और आत्मघाती सिद्ध हो रही हैं.

अब लगभग यह मान लिया गया है कि ईमानदार आदमी न तो चुनाव लड़ सकता है न जीत सकता है क्योंकि भारत में चुनावी जीत धनबल और बाहुबल के भरोसे होने लगी है. चुने गए अधिकतर जनप्रतिधि अपने-अपने इलाके के अपराध-तंत्र के साथ-साथ सरकारी योजनाओं व मदों, औद्योगिक इकाइयों तथा अवैध कारोबारों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण रखते हैं और रातोंरात धनकुबेर बन जाते हैं. यह महज संयोग नहीं है कि 17वीं लोकसभा के 88 फीसदी सदस्य करोड़पति हैं. भाजपा के 88 फीसदी, कांग्रेस के 84 फीसदी, द्रमुक के 96 फीसदी और तृणमूल कांग्रेस के 91 फीसदी करोड़पति उम्मीदवार 2019 में सांसद बनने में कामयाब रहे. इनके अलावा बीजेपी के सहयोगी दल लोजपा और शिवसेना के सभी सांसद करोड़पति हैं. सौ फीसदी करोड़पति सांसदों वाले दलों में सपा, बसपा, तेदेपा, टीआरएस, आप, एआईएमआईएम और नेशनल कांफ्रेंस भी शामिल हैं.

बेशक अपराधियों के बचाव में अक्सर राजनीतिक विवशता आड़े आती रही है. सरकार, संसद और राजनीतिक दलों की अपनी-अपनी विवशता भी है और सीमा भी. लेकिन कुलदीप सिंह सेंगर का केस भारतीय राजनीति को अपराध और अपराधियों के चंगुल से छुड़ाने का प्रस्थान बिंदु बन सकता है, बशर्ते सभी राजनीतिक दल सदनों में येन केन प्रकारेण संख्याबल बढ़ाने के मोह से बच सकें. लेकिन मुनव्वर राणा कहते हैं न कि- ‘मुनासिब है कि पहले तुम भी आदमखोर बन जाओ/ कहीं संसद में खाने कोई चावल दाल जाता है.’

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