सुना है मोमिन न ग़ालिब न मीर जैसा था
हमारे गांव का शाइर नज़ीर जैसा था
छिड़ेगी दैर-ओ-हरम में ये बात मेरे बाद
कहेंगे लोग के बेकल कबीर जैसा था.


ये अशआर भुल्लन मियां के जिस दिमाग़ में पैदा हुए वह ख़ामोश हो गया है. दरअसल 1 जून 1928 को यूपी के गोंडा ज़िला के गांव रमवापुर, उतरौला में जन्में इस शायर को गांव के लोग भुल्लन मियां ही कहते थे. उनके मां-बाप लोदी मोहम्मद शफ़ी ख़ान-बिस्मिल्ला बीबी ने यह नाम बचपन की उनकी कुछ हरक़तों और आदात की वजह से रख दिया होगा लेकिन जन्नत से ही मां-बाप का करम और दुवाएं देखिए कि भुल्लन मियां के मरने के बाद ऐसा हुआ कि आज का मीडिया भी इस शायर के जहां से जाने की ख़बर भुला न सका. इसकी वजूहात भी बहुत साफ हैं.

बेकल उत्साही सिर्फ राज्यसभा सांसद ही नहीं थे बल्कि वह आम-ओ-ख़ास के दिलों की संसद में बसते थे. उत्साही जी के कलाम की अवाम में ताक़त देखकर 1976 में उन्हें महामहिम राष्ट्रपति ने पद्मश्री से सम्मानित किया था और जब राजीव गांधी पीएम थे तो उन्होंने कांग्रेस के कोटे से उन्हें 1986 में राज्यसभा भेजा था. यह वह दौर था जब वाक़ई शायरी और शायरों की इज्ज़त की जाती थी.

कहते हैं कि मौत किसी भी बहाने आ सकती है. 88 वसंत देख चुके उत्साही जी की मौत यह बहाना लेकर आई कि अव्वल तो वह बाथरूम में फिसलेंगे और टांग तुड़ा बैठेंगे. फिर खाट पकड़ लेंगे और बेकली में पड़े-पड़े उन्हें मष्तिकाघात (ब्रेन हैमरेज) हो जाएगा. फिर उन्हें बेख़ुदी में ही राममनोहर लोहिया अस्पताल में दाख़िल कर दिया जाएगा और वहीं से वह मुल्क़-ए-अदम की सैर पर निकल पड़ेंगे!

बेकल उत्साही को गंगा-जमुनी तहजीब का क़लंदर यूं ही नहीं कहा जाता था. वह खुल्लमखुल्ला कहते थे कि हिंदी और उर्दू में कोई फर्क़ नहीं है; ये दोनों ख़ुसरो की जुड़वां बेटियां हैं जिनमें से एक दाएं से चल रही है और दूसरी बाएं से. उनका एक शेर मुलाहिज़ा फरमाइए-

धरम मेरा इस्लाम है, भारत जन्मस्थान
वुजू करूँ अजमेर में, काशी में स्नान.


बेकल उत्साही की शायरी के तअल्लुक से उर्दू के जाने-माने समीक्षक प्रोफ़ेसर अबुल कलाम क़ासमी ने किसी ज़माने में कहा था कि बेकल साहब ने अपनी ग़ज़लों में जिस तरह सिन्फ़-ए-ग़ज़ल की रायज़ लफ़्जियात के बजाय अवामी कहावतों और लोक रवायतों से लफ़्ज़ियात और तरकीबें क़शीद की हैं, उनको बेकल साहब की इन्फ़रादियत के तौर पर भी देखा जा सकता है और ख़ुद ग़ज़ल के नये लहजे की पहचान के तौर पर भी. यही हकीक़त भी है. उनका एक शेर है-

‘मिल गया वक़्त को क़त्ल-ए-शब-ए-हिजराँ का सुराग़
शाम-ए-ग़म जब भी मसर्रत के सवेरों में मिली’.

बेकल साहब पैदाइशी बेकल थे न ही उत्साही! उनके नामकरण का क़िस्सा भी दिलचस्प है. जिन लोगों ने न सुना हो उनके लिए कहना यह है कि उनका मां-बाप का दिया नाम मोहम्मद शफ़ी ख़ान था. लेकिन हुआ यों कि उनके ख़ानदान वाले कुछ हज़रात एक बार उनको लेकर बाराबंकी ज़िला स्थित हाजी वरिस अली शाह की देवाशरीफ़ दरगाह में हज़िरी लगाने गए. वहां के शाह हाफिज़ प्यारी मियां ने उन्हें देखते ही कहा- बेकल आया, बेकल आया. बस शफ़ी ख़ान ने तय कर लिया कि अब से वह बेकल वारसी के नाम से शायरी किया करेंगे. शायरी तो वह बालापन से ही करने लगे थे.

नात, क़शीदा, गीत, रुबाई, मनकबत, दोहा, नज़्म और गज़ल- गो कि ऐसी कोई सिन्फ़ नहीं थी जिसमें बेकल साहब ने हाथ न आजमाया हो और कामयाब न आए हों. काव्य की प्रत्येक विधा में उन्होंने भाषा और छन्दों की दृष्टि से अभिनव और उल्लेखनीय प्रयोग किए. जवानी के दिनों में वह अंग्रेज़ हुक़्मरान के खिलाफ़ भी जमकर लिखते थे. उन्होंने उर्दू और हिंदी को पूरा सम्मान देते हुए स्थानीय भाषा के सम्मिश्रण से ऐसी शायरी की जो अदबी लोगों और मुशायरों के श्रोताओं के सर बराबर चढ़ कर बोली.

उर्दू ग़ज़ल और हिन्दी गीत की विशिष्टताओं को एक दूसरे में समो देने के कारण उनकी ग़ज़ल में या गीत में जो आंचलिकता और नयापन पैदा हुआ है, उससे बेशक उर्दू ग़ज़ल की परम्परागत दिशा में कुछ विचलन आया हो, लेकिन उर्दू शायरी को उनका ये योगदान ही है कि गाँव और लोकजीवन की दैनिक छवियाँ उर्दू शायरी में इस तरह पहले कभी नहीं देखी गईं. ख़ुद बेकल साहब का कहना था-

गीत में हुस्न-ए-ग़ज़ल, ग़ज़लों में गीतों का मिज़ाज
तुझको बेकल तेरा उस्लूब-ए-सुख़न अच्छा लगा


वह मजहबी जलसों में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे लेकिन साम्प्रदयिकता के बिल्कुल खिलाफ़ थे. कोई भी देश अछूता नहीं था जहां इस मुमताज़ शायर का लोहा न माना गया हो. उन्होंने इंग्लैंड, अफ्रीका, पाकिस्तान व अमेरिका जैसे देशों का दौरा कई बार किया. भारतीय संस्कृति में रची-बसी और विशेष रूप से अवध के आंचलिक परिवेश में ढली उनकी शायरी अपनी भाषा की सादगी के कारण श्रोताओं को कई दशकों तक मंत्रमुग्ध करती रही. उन्हें हिन्दी काव्य-मंचों पर भी उतना ही आदर-सम्मान प्राप्त हुआ, जितना कि मुशायरों में. उन्होंने 1952 में विजय बिगुल कौमी गीत और 1953 में बेकल रसिया लिखी थी. इसके बाद उन्होंने गोण्डा हलचल प्रेस, नगमा व तरन्नुम, निशात-ए-जिन्दगी, नूरे यजदां, लहके बगिया महके गीत, पुरवईयां, कोमल मुखड़े बेकल गीत, अपनी धरती चांद का दर्पण जैसी कई किताबें लिखीं.

उनके बेकल वारसी से बेकल उत्साही बनने का भी एक क़िस्सा है. हुआ यों कि 1952 में पंडित जवाहर लाल नेहरू गोंडा में एक चुनावी सभा करने आए. नेहरू जी जब मंच पर पहुंचे तो बेकल साहब ने उनका स्वागत ‘किसान भारत’ नामक अपनी ओजपूर्ण कविता से किया. नेहरू जी ने प्रभावित होकर सभा में ही तारीफ करते हुए कहा कि यह हमारा बड़ा ही उत्साही शायर है. बस फिर क्या था! बेकल साहब ने तय कर लिया कि अब वह बेकल वारसी नहीं, बेकल उत्साही के नाम से शायरी किया करेंगे. अदब की दुनिया उन्हें आज इसी नाम से जानती है. जब वह दूरदर्शन का ‘बज़्म’ कार्यक्रम संचालित किया करते थे तो देश के कोने-कोने में लोग उन्हें घर बैठे सुना करते थे.

बेकल उत्साही की शायरी में भारतीय जनमानस जिस तरह मूर्तिमान हुआ है, उसके उदाहरण बहुत कम ही देखने को मिलते हैं-

अब न गेहूँ न धान बोते हैं
अपनी क़िस्मत किसान बोते हैं
गाँव की खेतियाँ उजाड़ के हम
शहर जाकर मकान बोते हैं


उत्साही साहब कई मायनों में बड़े साहसी और स्वाभिमानी भी थे. उनका कहना था कि विधा और शब्दावली किसी की बपौती नहीं होती. अगर ग़ालिब अल्फाज़ दे सकता है तो बेकल भी अल्फाज़ दे सकता है! हम इस हरदिल अजीज़ शायर को ख़िराज-ए-अक़ीदत पेश करते हैं. ख़ुदा उनको मगफ़िरत अता फरमाए. आमीन!

Note: ये लेखक के निजी विचार हैं, इससे एबीपी न्यूज़ का  कोई संबंध नहीं है.


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