पायल तड़वी ने सुसाइड किया है या उसका मर्डर हुआ है- यह किसी हिट क्राइम शो की स्टोरी बनती जा रही है. आने वाले समय में कोई इस पर जबदस्त फिल्म भी बनाना चाहेगा. मार्मिक कहानी के साथ- एक एस्पायरिंग डॉक्टर कैसे इनसानियत को शर्मिन्दा करने वाले व्यवहार की बलि चढ़ गई. जाति व्यवस्था को इंगित करने वाली कहानियां टेलीविजन और फिल्म प्रोड्यूसर-डायरेक्टर्स का पसंदीदा विषय है. क्षेत्रीय भाषा की फिल्म सैराट हिट होती है तो फिल्म, टीवी वाले चांदी काटने के लिए लाइन लगाकर खड़े हो जाते हैं. पर पायल की कहानी सिर्फ इतनी भर नहीं है. पायल की कहानी, इसलिए बाकी की कहानियों से अलग है क्योकि यह किसी कस्बे, गांव की कहानी नहीं है. चमचमाते मुंबई की कहानी है. एक ऐसे महानगर की कहानी है जहां लोग सपने देखने के लिए कदम रखते हैं. जहां के लिए यह माना जाता है कि यहां सभी कोबराबरी से आगे बढ़ने का मौका मिलता है. शहर गैर बराबरी को दूर करते हैं. पर पायल की मौत इस भ्रम को तोड़ने के लिए काफी है. जाति सचमुच, कभी नहीं जाती.


यूं पायल की मौत मुंबई क्या, दिल्ली, बेंगलूर, चेन्नई, कोलकाता किसी भी महानगर में हो सकती थी. चूंकि दुनिया का बड़े से बड़ा शहर जाति, धर्म, भाषा, लिंग के आधार पर भेदभाव करने से बाज नहीं आता. दो साल पहले दिल्ली के जेएनयू में दलित मुत्थूकृष्णनन जीवनाथम ने शिक्षण संस्थानों में होने वाले भेदभाव के कारण दुखी होकर फांसी लगाई थी. 2016 में रोहित वेमुला की मौत ने तो पूरे देश को हिलाकर रख दिया था. बड़े शिक्षण संस्थानों में जाति के आधार पर भेदभाव के कारण हर साल कई एससी, एसटी स्टूडेंट्स सुसाइड के लिए मजबूर किए जाते हैं. यह क्या इत्तेफाक नहीं है कि 2007 में केंद्र सरकार ने नई दिल्ली स्थित एम्स में एससी, एसटी स्टूडेंट्स के साथ होने वाले भेदभाव की जांच के लिए कमिटी बनाई थी. इस कमिटी ने साफ कहा था कि इन स्टूडेंट्स को लगातार परेशान होना पड़ता है.


दुर्व्यवहार कोई नई बात नहीं. 2015 में आईआईटी रुड़की ने बीटेक, आईएमटी और एमएससी कोर्सेज़ में पहले वर्ष के 73 स्टूडेंट्स को संस्थान से निकाल दिया था. इनमें से तीन चौथाई स्टूडेंट्स एससी, एसटी कैटेगरी के थे. तब नेशनल कैंपेन ऑन दलित ह्यूमन राइट्स ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि इन स्टूडेंट्स को फैकेल्टी ही लगातार परेशान करती रहती है. उनसे अक्सर उनकी कैटेगरी और इंट्रेन्स एग्जाम के रैंकों के बारे में पूछा जाता है. टीचर यहां तक कहते हैं- तुम्हारे जैसे लोग आईआईटी में आते ही क्यों हैं? ‘तुम जैसे लोगों’ को सवर्ण कॉलेजों के परिसर में घुसने भी नहीं देना चाहते- घुसने की कोशिश तभी की जा सकती है, जब आप सफाई-धुलाई का काम करते हों और ताने-उलाहने सहने को तैयार हों.


पायल तड़वी के साथ मेडिकल कॉलेज की फैकेल्टी कैसा व्यवहार करती थी, इसका खुलासा तो हुआ नहीं है. हां, सीनियर्स की तरफ से किए जाने वाले व्यवहार पर सबकी सुई अटकी है. एसटी यानी आदिवासी होने के नाते उसका दाखिला रिजर्व कोटे में हुआ था, और शायद यही वजह थी कि सीनियर्स उससे खार खाए रहते थे. आरक्षण पर ज्यादातर लोगों की वही राय है, जो पायल के सीनियर्स की थी. अगर कोटे से दाखिला ले लिया है तो भुगतो. रोजाना के ताने और बुरा व्यवहार. आरक्षण पर बहस छिड़ती है तो हमारे पास सबसे पहले मेरिट का तर्क होता है. दाखिला मेरिट के आधार पर दिया जाए. मतलब आरक्षण पर बहस में हम मानकर चलते हैं कि एससी, एसटी उम्मीदवार मेरिटोरियस या मेधावी नहीं है. भेदभाव की शुरुआत तो आरक्षण का विरोध करने के साथ ही चालू हो जाती है. पायल तड़वी के मामले को एंटी रैगिंग से जोड़ना इसीलिए ठीक नहीं है. ये रैगिंग का नतीजा नहीं है. यह हमारे दृष्टिकोण की खामी है जो अधिकतर सवर्णों को दोषी ठहराती है. इस लिहाज से हम सब पायल तड़वी और उसके जैसे दूसरे स्टूडेंट्स की मौत के लिए जिम्मेदार हैं.


देश में आरक्षण का आधार संविधान है. संविधान निर्माताओं ने आरक्षण को राष्ट्र निर्माण का कार्यक्रम माना था. यही वजह है कि इसे मूल अधिकारों के अध्याय में रखा गया था. संविधान निर्माता भारत को एक समावेशी देश बनाना चाहते थे, ताकि हर समूह और समुदाय को लगे कि वह भी राष्ट्र निर्माण में हिस्सेदार है.दलित, पिछड़े और आदिवासी मिलकर देश की तीन चौथाई से भी ज्यादा आबादी बनाते हैं. इतनी बड़ी आबादी को किनारे रखकर भला कोई देश कैसे मजबूत बन सकता है.


आरक्षण ने वंचित समूहों के लिए तरक्की के रास्ते खोले हैं. इतिहास में यह पहला मौका है जब भारत की इतनी बड़ी वंचित आबादी, खासकर एक समय अछूत मानी जाने वाली जातियों के लोग शिक्षा और राजकाज में योगदान कर रहे हैं. किसान, पशुपालक, कारीगरों की भी राजकाज में हिस्सेदारी बढ़ी है.आरक्षण विरोधी तर्कों के जवाब में सिर्फ इतना कहना जरूरी है कि जीवन में आगे बढ़ने के लिए आरक्षण कतई जरूरी नहीं है, बशर्ते जन्म के आधार पर समाज में भेदभाव न हो. भारत में ऊंच-नीच धार्मिक मान्यताओं में स्वीकार्य है. इसलिए बाबा साहेब आंबेडकर ने इन ग्रंथों को खारिज करने की बात ‘एनिहिलिशेन ऑफ कास्ट’ नामक किताब में की है. यहां हर आदमी एक वोट दे सकता है और हर वोट की बराबर कीमत है लेकिन समानता का यह चरम बिंदु है. हर आदमी की बराबर कीमत यहां नहीं है और यह हैसियत अक्सर जन्म के संयोग से तय होती है.


अगर आरक्षण जरूरी न होता तो भारत में आजादी के बाद बना शहरी दलित-पिछड़ा मध्यवर्ग सरकारी नौकरियों के अलावा और क्षेत्रों से भी आता. आज लगभग सारा दलित मध्य वर्ग सरकारी नौकरियों में आरक्षण की वजह से तैयार हुआ है. अगर सब कुछ प्रतिभा और मेहनत से ही तय हो रहा है तो शिक्षा के क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन करने वाले दलित निजी क्षेत्र के शिखर पदों पर लापता क्यों हैं?


पायल तड़वी की मौत ने एक बार फिर आरक्षण और समाज में भेदभाव की ओर सबका ध्यान खींचा है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन लगातार इस बात से इनकार करती है. लेकिन एक महीने पहले हैशटैक ‘डेथ ऑफ मेरिट’ सोशल मीडिया पर छाया हुआ था, जिसमें ‘ऊंची’ जातियों के डॉक्टरों का यह कहना था कि भारत की आरक्षण नीति के लिए देश खराब क्वालिटी के डॉक्टर्स प्रोड्यूस कर रहा है. लेकिन प्राइवेट मेडिकल कॉलेज ‘मैनेजमेंट कोटे’ के नाम से सीटें बेचते हैं तब लोग ऐसे तर्कों को भूल जाते हैं. पायल तड़वी की मौत से अगर यह सवाल फिर खड़ा हो, तो अच्छा है- कि मेरिट किसमें है- क्या सिर्फ पैसेवाले सवर्णों के पास?


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)