गुजरात के एग्जिट पोल में बीजेपी की जीत साफ दिख रही है लेकिन कांग्रेस से लेकर कई राजनीतिक एक्सपर्ट ये जीत हजम नहीं कर पा रहे हैं. हजम तो यूपी के नतीजे भी नहीं कर पा रहे थे लेकिन सच्चाई सामने आई तो स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं था. अब फिर गुजरात के एग्जिट पोल पर सवाल उठाए जा रहें है और ईवीएम को बीजेपी के साथ घसीटा जा रहा है. एक नहीं सारे एग्जिट पोल बीजेपी को जिताने की बात कर रहे हैं तब तो उलट फेर होने की संभावना बेहद कम है. दरअसल राजनीति में भी शेयर मार्केट की तरह रोज उतार चढ़ाव होते रहते हैं. जैसे गुजरात में एबीपी न्यूज-सीएसडीएस ने चार ओपिनियन-एग्जिट पोल किये और सभी में उतार चढ़ाव देखे गये हैं. पहले ओपिनियन पोल में बीजेपी-कांग्रेस के बीच 30फीसदी का वोटों का फासला था, दूसरे ओपिनियन पोल में दोनों पार्टियों में दूरियां सिमटकर 6 फीसदी हो गई,तीसरे ओपिनियन पोल में दूरियां खत्म हो गई और अब फिर एग्जिट पोल में बीजेपी और कांग्रेस के बीच जीत और हार का फासला 8 फीसदी बढ़ गया है.


ये उतार-चढ़ाव चार महीने में देखे गये. अब ये भी सवाल उठ रहे हैं कि इतना फासला क्यों हो गया. चुनाव में फासले होते रहते हैं. जितनी बड़ी घटना उतना बड़ा फासला हो सकता है. पाटीदार को आरक्षण देने की बात और हार्दिक पटेल के फैसले में देरी की वजह से ये उतार-चढ़ाव मुख्य वजहें हो सकती है. चुनाव में ये फासला उसी तरह का है कि जैसे 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी दिल्ली में लोकसभा चुनाव जीतने के बाद उसी साल दिल्ली विधानसभा का चुनाव बुरी तरह हार गये और 2015 में भी दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी नरेन्द्र मोदी का वही हाल हुआ.


1984 में इंदिरा गांधी और 1991 में राजीव गांधी की हत्या के नतीजे में उतार चढाव दिखा था. यही नहीं1992 में विवादित बाबरी मस्जिद के विध्वंस और रामजन्मभूमि आंदोलन के आगे-पीछे हुए चुनाव में चौंकाने वाले परिणाम आंख खोलने के लिए जीता जागता उदाहरण हैं. गौर करने की बात ये भी है कि बिहार और दिल्ली में 2014-15 के दरम्यान चार-चार चुनाव हुए और चारों चुनाव में साफ उलट फेर होते रहे.


 कैसे मोदी ने बाजी पलटी 


राजनीति रणनीति का खेल है. रणनीति मजबूत हो तो कमजोर पार्टी को भी मजूबत किया जा सकता है और रणनीति ढीली हो तो मजबूत पार्टी भी ढेर हो सकती है. जब ठोस रणनीति, निर्णायक नेता और मजबूत संगठन हो तो कभी बाजी पलटी जा सकती है. गुजरात विधानसभा का चुनाव विकास के नारों से शुरू हुआ लेकिन राहुल के जातिकार्ड के भंवर में फंस गया. मानो जाति की फांस से रणनीतिकारों की सांसें अटक गई हों. फिर मणिशंकर अय्यर के मुंह से निकला नीच वाला बयान और विवादित मंदिर-मस्जिद के मुद्दे पर कपिल सिब्बल के राजनीति क्रीज से बाहर बहादुरी दिखाने के चक्कर में बीजेपी को जीत का सिक्सर लगाने का मौका मिल गया. कहा जाता है कि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह जीत के शहंशाह हैं. ऐसी रणनीति बनाते हैं कि सामने वाले टिक नहीं पाते हैं जो उन्हें राजनीति चक्रव्यूह में फंसाने की कोशिश करते हैं. उस चक्रव्यूह को आसानी से भेद देते हैं. जाहिर है इस तरह की रणनीति के लिए साम, दाम, दंड और भेद चुनावी हथियार की तरह काम करता है. ये भी कहने की जरूरत नहीं है कि किसी हाल में चुनाव जीतना हर पार्टी की मंजिल हो गई है. ऐसे में सिद्धांत और नीति जीत-हार के सामने बौना हो जाता है. कांग्रेस ने जाति कार्ड खेलते हुए बीजेपी के खिलाफ पाटीदारदलितओबीसीआदिवासी और मुस्लिम का गठजोड़ बनाने की कोशिश की है. ऐसी कोशिश जिसकी वजह से गुजरात का हिंदू प्रयोगशाला निष्क्रिय साबित होने लगा. मोदी ऐसे बॉल की तलाश में थे जिसपर चौके-छक्के की बरसात की जा सके. बीजेपी जो सोच रही थी वही हुआ.


पहले सोमनाथ मंदिर में दर्शन के दौरान एंट्री रजिस्टर में राहुल गांधी का नाम गैर-हिंदू के रूप में दर्ज होने पर सियासी घमासान मच गया. फिर कपिल सिब्बल ने विवादित बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि को लोकसभा चुनाव के बाद सुप्रीम कोर्ट में सुनने की वकालत की यही नहीं बचा खुचा कसर मणिशंकर अय्यर ने मोदी को नीच कहकर पूरा कर दिया. मानो बीजेपी को शानदार मौका मिल गयाफिर क्या था नरेन्द्र मोदी आखिरी मौके पर गुजराती अस्मिताजाति कार्ड और हिंदू कार्ड खेलने से बाज नहीं आए. इसी दौरान रामसेतु का मुद्दा और मणिशंकर अय्यर के घर पर पाकिस्तान राजनयिक के साथ कांग्रेसी नेताओं की बैठक को बड़ा मुद्दा बना दिया गया. इसका मतलब ये नहीं है कि बीजेपी सिर्फ इसी मुद्दे के बदौलत जीतेगी. इसके अलावा विकास के मुद्दे भी हैं. गुजरात में कानून व्यवस्थादंगे पर काबूशांति और आतंकवादी हमले पर नकेल कसने जैसी बात भी है.


ऐसा नहीं है कि मोदी ने गुजरात मे विकास नहीं किया है. ये भी सही है कि शहरी और ग्रामीण इलाके में विकास के दो चेहरे हैं. सबसे बड़ी बात ये है 2014 से शेयर मार्केट में रौनक छाया है. शेयर मार्केट में जिन्होंने पैसे लगाये हैं उनकी आमदनी 3-4 साल में दोगुनी से तिगुनी हो गई है. माना जाता है कि 25फीसदी गुजराती वोटर शेयर मार्केट में पैसा लगाते हैं. बीजेपी के हारने से उनकी कमर टूट सकती थी क्योंकि गुजरात में बीजेपी के हारने से शेयर बाजार पर जबर्दस्त असर हो सकता था. कहा जाता है कि गुजरात में मोदी के सीएम रहते हुए सड़क, पानी और बिजली पर जबर्दस्त काम हुआ है वहीं हेल्थ सेक्टर में काम की प्रशंसा होती है. हालांकि महंगी शिक्षा से लोग परेशान है. किसान भी परेशान हैं. फिर मोदी की जीत क्यों हो रही है. यही नहीं पाटीदार वोटर की नाराजगी के बाद भी मोदी की जीत हो रही है. 40 फीसदी पाटीदार वोटरों ने कांग्रेस को वोट किया है. जहां पाटीदार वोटर नाराज थे वहीं आदिवासी वोटर बीजेपी से जुड़कर पाटीदारों की कमी की भरपाई की. शहरी और महिला वोटरों का झुकाव मोदी के पक्ष में था. यही नहीं अगड़ी जाति, ओबीसी में वर्चस्व की वजह से छट्ठी बार बीजेपी की नैय्या पार होने की उम्मीद है. ऐसे में कहा जा सकता है कि न तो कांग्रेस के पास मोदी से जीत पाने का कोई विकल्प है और न ही गुजरात की जनता के पास मोदी का कोई विकल्प है.


धर्मेन्द्र कुमार सिंह राजनीतिक-चुनाव विश्लेषक हैं और ब्रांड मोदी का तिलिस्म के लेखक हैं. 


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