इसमें क्या बुरा मानना, बीसीसीआई ने अपने सभी खिलाड़ियों की 200% वेतन वृद्धि की, फिर भी महिला क्रिकेटरों के हिस्से ठेंगा ही आया. पुरुष क्रिकेटरों के लिए दिल खोलकर पैसा दिया और महिला क्रिकेटरों के मामले में कंजूसी दिखा दी. जहां विराट जैसे ए प्लस कैटेगरी के खिलाड़ियों को अब 7 करोड़ रुपए सालाना मिलेंगे, वहीं मिताली, झूलन जैसी ए कैटगरी वाली खिलाड़ियों को 50 लाख रुपए सालाना मिलेंगे. यूं फीस स्ट्रक्चर पहले भी काफी भेदभाव भरा था, मतलब महिला क्रिकेटरों को इससे पहले भी पुरुष क्रिकेटरों से काफी कम पैसे मिलते थे. ए कैटेगरी की खिलाड़ियों की रीटेनर फीस 15 लाख रुपए ही थी. आप भले ही वर्ल्ड कप फाइनल में कितना भी अच्छा प्रदर्शन करें, रहेंगी तो औरत ही. औरत को औरत की औकात बतानी बहुत जरूरी है.


औरतों को उनकी औकात हर खेल में दिखाई जाती है. वीमेन्स स्पोर्ट्स वीक के लिए बीबीसी ने एक रिपोर्ट कमीशन की है. इसमें कहा गया है कि भले ही 83% खेलों में आदमियों और औरतों को बराबर प्राइज मनी मिलने लगी हो लेकिन फुटबॉल, क्रिकेट और गोल्फ जैसे बड़े खेल बताते हैं कि औरतें अभी भी कमाई में पुरुषों से बहुत पीछे हैं. इसीलिए दुनिया के 100 सबसे अमीर खिलाड़ियों में सिर्फ एक औरत है सेरेना विलियम्स. चूंकि पिछले कुछ सालों से टेनिस के सभी बड़े ईवेंट्स में मर्द और औरत खिलाड़ियों को बराबर का पैसा दिया जा रहा है, यह बात और है कि आदमियों की कमाई विज्ञापन, एंडोर्समेंट्स वगैरह की वजह से ज्यादा हो जाती है. यह कुल कमाई का करीब 29% होता है. आदमी ज्यादा एंडोर्समेंट कॉन्ट्रैक्ट हासिल करते हैं तो कमाते भी ज्यादा हैं.

बात कमाई की नहीं, पेचैक की है. पेचैक औरतों को कम ही मिलता है. खेल ही इससे क्यों अलग माना जाए. जहां तक क्रिकेट की बात है, अपने देश में विमेन क्रिकेटरों के कॉन्ट्रैक्ट सालों-साल रीन्यू ही नहीं किए जाते. 2017 में जब पुरुष खिलाड़ियों के कॉन्ट्रैक्ट्स की घोषणा की गई थी, तब भी लोगों ने यही सोचा था कि महिला खिलाड़ियों की भी किस्मत जागेगी. सैलरी यानी मेहनताने का गैप कुछ बराबर किया जाएगा पर बीसीसीआई स्पॉट फिक्सिंग, आपसी झगड़े और लोढ़ा कमिटी की रिपोर्ट से काफी परेशान रहा और यह भूल गया कि महिला क्रिकेटरों की झोली खाली है. फिर कभी-कभी कुछ खैरात तो बांट दी जाती है. 2016 में उनका डेली अलाउंस मर्द क्रिकेटरों के बराबर किया गया. फिर अगले साल उन्हें इकोनॉमी क्लास से बिजनेस क्लास में फ्लाई करने की लग्जरी दी गई. इससे पहले तक बिजनेस क्लास में सैर करने का हक सिर्फ मर्द क्रिकेटरों और बीसीसीआई के अधिकारियों को था. अब इतना तो दिया ही है, क्या सिर पर बैठोगी.

औरतों को कदमों तले बैठाए रखने के लिए सालों मेहनत की है. अब ये आंख की किरकिरी बनकर सिर पर चढ़ने की कोशिश कर रही हैं. कैप्टन मिताली राज ने जब-जब इंटरव्यू में गैर-बराबरी के बारे में बोला है, कितने ही नकाबपोशों के चेहरों को कालिख में बदला है. आपको कौन सा पुरुष क्रिकेटर पसंद है? इस पर तो वह बिफर ही गई थीं. पलटकर पूछा था- आप पुरुष क्रिकेटरों से भी ऐसे सवाल करते हैं कि उन्हें कौन सी महिला क्रिकेटर पसंद है? बस औरतों के साथ यही मुश्किल है. जरा सी शोहरत मिली नहीं, दिमाग खराब हो जाता है.

इसीलिए औरतों को दिमाग खराब करने ही नहीं दिया जाता. मॉन्स्टर सैलरी इंडेक्स का कहना है कि आईसीटी सेक्टर में पुरुषों से महिलाओं को 38.2% कम सैलरी दी जाती है, फाइनेंशियल सर्विस, बैंकिंग और इंश्योरेंस में 21.5% कम. हेल्थकेयर और केयरिंग सर्विसेज में अगर आदमी हर घंटे 242.4 रुपए कमाते हैं तो औरतें 187.6 रुपए. लीगल और मार्केट कंसल्टेंसी, बिजनेस एक्टिविटीज में पुरुषों के मुकाबले औरतें हर घंटे लगभग 74 रुपए कम कमाती हैं. लो जी, इतने से फर्क पर भी हाय-तौबा मचा रखी है.


इससे पहले दीपिका पल्लिकल ने 2011 में भी ऐसी ही हाय-तौबा मचाई थी. नेशनल स्क्वॉश चैंपियनशिप जीतने के बावजूद  विरोध दर्ज कराते हुए  उन्होंने बाद के चैंपिनयशिप्स में हिस्सा ही नहीं लिया था. बात इतनी सी थी कि उन्हें भी आदमियों की नैशनल चैंपियनशिप्स की तरह 1.25 लाख का प्राइज मनी चाहिए था. औरतों को मिलते थे 50 हजार, आदमियों को इससे 40% ज्यादा. दीपिका गुस्सा गईं और फिर जब विमेन एथलीट्स को बराबर प्राइज मनी मिलने लगी तो 2016 में जोशना चिनप्पा को हराकर एक बार फिर चैंपियनशिप की ट्रॉफी अपने नाम कर ली. तो, पांच साल तक उन्होंने घरेलू चैंपियनशिप से इसीलिए कन्नी काटी क्योंकि अपने यहां आदमियों और औरतों के साथ बराबरी का बर्ताव नहीं किया जाता.

बराबरी का बर्ताव इसलिए नहीं होता क्योंकि आपकी सोच ही ऐसी है. दो साल पहले टेनिस स्टार नोवाक जोकोविच ने यह कहकर सबसे लताड़ खाई थी कि आदमियों को खेलों के लिए औरतों से ज्यादा पैसा इसलिए मिलना चाहिए क्योंकि उनका खेल ज्यादा देखा जाता है. ऐसा तर्क देने वाले दूसरे भी हैं. फुटबॉल में इसी तर्क के साथ फीफा महिला विश्व कप के लिए 15 मिलियन डॉलर देता है और आदमियों के लिए 576 मिलियन डॉलर. ये रकम लगभग 40 गुना ज्यादा है. गोल्फ में आदमी औरतों से दुगुनी प्राइज मनी बटोर ले जाते हैं. न्यूजवीक मैगेजीन का दावा है कि न्यूजीलैंड की लाइडिया को ने जिस साल प्रोफेशनल गोल्फ में रैंक वन हासिल की, उस साल भी उन्हें 25वीं रैंक वाले पुरुष गोल्फर से कम पैसे मिले. लाइडिया 2015 में 17 साल, 9 महीने और 9 दिन की उम्र में वर्ल्ड नंबर वन गोल्फर बनने वाली पहली खिलाड़ी है. इस पोजीशन पर इतनी कम उम्र में न आदमी पहुंचे, न औरत. फिर भी औरत औरत ही है और उसे भूलना नहीं चाहिए, किसी भी जगह पर नहीं.

हां, औरतें अब ये भूल रही हैं तो मर्द तनतनाए बैठे हैं. औरतें बता रही हैं कि बराबर की सैलरी महिला अधिकार नहीं, मानवाधिकार है. जब ये अधिकार मिलेगा, तभी हैप्पी वुमेन्स डे जैसे नारे अच्छे लगेंगे. फिलहाल महिला क्रिकेटरों को इसी हैप्पी डे के अगले दिन अनहैप्पी कर दिया गया. उन्हें यह जताकर कि अभी उन्हें जीत हासिल करने के लिए लंबा सफर तय करना है. पितृ सत्ता के गढ़ तोड़ने हैं. अपने आकाओं के हुक्मनामे पस्त करने हैं. अभी रास्ता लंबा है साथी!

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)