दिल्ली में कांग्रेस की दो दिवसीय महाधिवेशन के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी एक बार फिर चर्चा में हैं. इस बार चर्चा उनके करीब घंटे भर लंबे भाषण की है. उससे भी ज़्यादा चर्चा उनके भाजपा और संघ परिवार को कौरव सेना और कांग्रेस को पांडव सेना बताने पर है. राहुल ने अपने भाषण में भाजपा संघ, परिवार और प्रधानमंत्री मोदी पर तो जमकर हमला बोला लेकिन यह बताने में पूरी तरह नाकाम रहे कि 2019 में भाजपा को सत्ता से बाहर करने की कांग्रेस की रणनीति क्या है.


विपक्ष का काम ही होता है सरकार की आलोचन करना. उसकी गलत और जनविरोधी नीतियों को जनता के सामने बेनकाब करना. कांग्रेस अधिवेशन में भी अगर तमाम नेताओं ने केंद्र की मोदी सरकार की बखियां उधेड़ी है तो इसमें कुछ गलत नहीं है. बतौर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की ज़िम्मेदारी सरकार की आलोचना से ज्यादा पार्टी कार्यकर्ताओं को सत्ता प्राप्ति का लक्ष्य देने और उसे हासिल करने के लिए जी जान लगाने को प्रेरित करने की है. इसमें राहुल फिलहाल कामयाब होते नहीं दिख रहे. भाजपा और मोदी विरोधी नारेबाज़ी से कार्यकर्तओं में कुछ देर के लिए जोश तो भरा जा सकता है लेकिन उन्हें चुनाव जीतने के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगाकर काम करने को प्रेरित नहीं किया जा सकता.


कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी या फिर किसी और बड़े कांग्रेसी नेता की तरफ से एक भी ऐसी बात नहीं कही गई जो कार्यकर्ता पहले से नहीं जानते हों. कोई ऐसा नया संदेश नहीं दिया गया जो पहले से उनके पास न हो. कांग्रेस के राजनीतिक प्रस्ताव में समान विचारधारा वाले दलों के साथ मिल कर भाजपा और उसके सहयोगी दलों का मुक़ाबला करने की बात कही गई है. यह बात कांग्रेस 2003 में शिमला चिंतन शिविर में गठबंधन की राजनीति के दरवाजे खोलने के बाद से हर अधिवेशन और महाधिवेशन में कहती आ रही है. लेकिन पिछले 15 साल में वो स्थाई रूप से समान विचारधारा वाले राजनीतिक दलों की पहचान नहीं कर पाई है.


दरअसल कांग्रेस वैचारिक द्वंद के चौराहे पर खड़ी है. कांग्रेस को आगे बढ़ने का रास्ता नहीं सूझ रहा है. पश्चिम बंगाल में कांग्रेस बरसों तक अपने से अलग हुई ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस के साथ मिल कर वामपंथियों का किला ढहाने की कोशिश करती रही. लेकिन 2004 में उन्हीं वामपंथियों के साथ मिल कर केंद्र में सरकार बनाई. पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को वामपंथी दल समान विचारधारा वाले नजर आते हैं लेकिन उन्हीं वामपंथियों से केरल में सत्ता के लिए उसकी सीधी लड़ाई है. तमिलनाडु में कभी अन्नाद्रमुक तो कभी द्रमुक उसके लिए समान विचारधारा वाले दल बन जाते हैं. उत्तर प्रदेश में 1996 में कांग्रेस ने बसपा से चुनावी तालमेल किया तो 2017 में समाजवादी पार्टी के साथ. महाराष्ट्र मे 15 साल मिलकर सरकार चलाने के बावजूद 2015 में एनसीपी से गठबंधन तोड़कर अलग चुनाव लड़ा और सत्ता थाली में सजा कर भाजपा को सौप दी. जम्मू-कश्मीर में 2002 से 2008 तक पीडीपी के साथ साझा सरकार चलाई तो 2008 से 2014 तक नेशनल कांफ्रेस के साथ.


कांग्रेस ने इस वैचारिक द्वंद पर कभी खुल कर चर्चा नहीं की. जाहिर है कि वो सिद्धांतों की राजनीति का दावा ज़रूर करती है लेकिन सच्चाई यह है कि वो पिछले दो दशकों से सिर्फ सत्ता की राजनीति कर रही है. सत्ता में आने के लिए और फिर सत्ता में बने रहने के लिए उसे उन दलों से भी गठबंधन करने में कोई एतराज नहीं है जो भाजपा के साथ हैं. न ही कांग्रेस को भाजपा, संघ परिवार और शिव सेना से आने वाले ऐसे लोगों को लेकर कोई एतराज होता है जिनकी विचारधारा कांग्रेस की मूल विचारधारा से मेल नहीं खाती. कांग्रेस की इस सुहूलियत वाली नीतियों की वजह से समाज में उसके प्रति विश्वास लगातार घटता जा रहा है. कांग्रेस जनता का विश्वास जीतने के लिए उस स्तर पर कोशिश नहीं कर रही जिस स्तर पर उसे कोशिश करनी चाहिए.


कांग्रेस के सामने आज विश्वास का सबसे बड़ा संकट खड़ा हो गया है. आज 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के साथ क्षेत्रीय दल भी आने को तैयार नहीं दिख रहे. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि कांग्रेस आज भाजपा के सामने मुकाबले में कहीं नहीं दिख रही है. साल 2014 में भाजपा के हाथों केंद्र की सत्ता गंवाने के बाद से कांग्रेस भाजपा को एक भी राज्य में नहीं हरा पाई है. 2014 के बाद देश में हुए 26 राज्यों में विधानसभा चुनावों में कांग्रेस महज़ दो राज्यों पंजाब और पुडुचेरी में जीत पाई है. पंजाब में कांग्रेस का मुकाबला अकाली दल से था. भाजपा यहां अकाली दल की सहयोगी पार्टी है. पुडुचेरी में स्थानीय दलों को हराकर कांग्रेस ने सत्ता हासिल की है. वहां भाजपा का कोई जनाधार नहीं है.


कांग्रेस के पास गुजरात में भाजपा को हरा कर 2019 के लिए सत्ता की दावेदारी का सुनहरा मौक़ा था. कांग्रेस ने यह मौक़ा गंवा दिया. यहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस के मुहं से जीत छीन कर भाजपा को दे दी. गुजरात की हार पर कांग्रेस ने आत्म मंथन करने के बजाय इस बात पर अपनी पीठ ठोकी कि उसने पिछले चुनाव के मुकाबले कुछ सीटें बढ़ा ली हैं. इसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं में निराशा बढ़ गई. त्रिपुरा में उसके तमाम कार्यकर्ता भाजपा में चले गए. कांग्रेस के स्थानीय नेताओं का भगवाकरण करके भाजपा में वामपंथियों के मज़बूत किले को ढहा कर देशभर में संदेश दिया कि मोदी देश को कांग्रेस के साथ वामपंथी मुक्त भी करेंगे. इसी तरह असम में भी स्थानीय कांग्रेसी नेताओं को भाजपा में शामिल करके मोदी में कांग्रेस का सफाया किया था.


लगता है कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी देश के बदलते मिज़ाज को समझ नहीं पा रहे हैं. इसी वजह से उनके नेतृत्व में एक के बाद एक राज्य छिनता जा रहा है. राहुल गांधी के सामने भी विश्वास का संकट है. वो अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को विश्वास नहीं दिला पा रहे कि वो पार्टी को सत्ता में ला सकते है. विश्वास के लिए कहीं न कहीं जीतना जरूरी है. इस साल कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती कर्नाटक की अपनी सरकार बचाने की है. गुजरात में राहुल गांधी ने एक के बाद एक मंदिर में जाकर भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति को टक्कर देने की कोशिश की थी. लेकिन कर्नाटक चुनाव से पहले राहुल प्रचार से ग़ायब से दिखते हैं. चर्चा यह भी है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया वहां अपने बलबूते चुनाव लड़ना चाहते हैं लिहाजा उन्होंने राहुल से कर्नाटक में कम ही आने को कहा है.


इसी साल के आखिर में भाजपा की सरकरों वाले तीन रज्यों में चुनाव होने हैं. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो पिछले 15 साल से भाजपा की ही सरकारे हैं. राजस्थान में अभीतक एक बार कांग्रेस और एक बार भाजपा की सरकार की राजनीतिक परंपरा रही है. इसी भरोसे कांग्रेस राजस्थान में सरकार बनाने की उम्मीद कर रही है. अगर कांग्रेस कर्नाटक में अपनी सरकार बचा ले और भाजपा को तीन राज्यों में सत्ता से उखाड़ फेंके तो राहुल और कांग्रेस के विश्वास का संकट खत्म हो सकता है. इस सूरत में कांगेस को छोटे दलों के साथ मिल सकता है और वो 2019 में सत्ता की प्रबल दावेदार होकर उभर सकती है. इसके लिए कांग्रेस को अभेद रणनीति और उस पर अमल के लिए समझदारी भरी योजना तैयार करने की ज़रूरत है.


कांग्रेस अधिवेशन में इस मुद्दे पर व्यापक चर्चा की जरूरत थी जो कि नहीं हो पाई. कांग्रेस को अपने अंदर झांकने और पूरी ईमानदारी से इस मुद्दे पर ग़ौर करने की ज़रूरत है कि भाजपा के हाथों एक के बाद एक राज्य क्यों हारती जा रही है. आखिर भाजपा को हराने के लिए उसे अपनी नीतियों में किस तरह के बदलाव की ज़रूरत है. कांग्रेस को इस मुद्दे पर भी गौर करना चाहिए कि क्या वो सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पर चल कर भाजपा को कट्टर हिंदुत्व की राजनीति को मात दे सकती है. क्या मंदिर-मंदिर घूम कर राहुल मोदी को मात दे सकते हैं. कांग्रेस को यह भी साफ करना होगा कि उसकी तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार राहुल गांधी होंगे या फिर 2004 की तरह पार्टी किसी दूसरे वरिष्ठ नेता को ही प्रधानमंत्री बना सकती है.


इन तमाम मुद्दों पर खुले अधिवेशन चर्चा करना किसी भी पार्टी के लिए उचित नहीं है. ऐसे और इससे जुड़े कई अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर कांग्रेस को गहन चिंतन मनन करने की जरूरत है. इस तरह के मुद्दों पर कांग्रेस ने दो दशक पहले पचमढ़ी में चिंतन शिविर लगाकर एक नई शुरुआत की थी. इसमें कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और बिहार में क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन किया लेकिन केंद्र में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया था. इस फैसले को 2003 में शिमला चिंतन शिविर में बदला गया. उसके बाद कांग्रेस में चिंतन का सिलसिला लगभग रुक सा गया है. अब 2019 के चुनाव से पहले कांग्रेस ऐसे ही चिंतन शिविर का जरूरत है.


राहुल गांधी को एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि वो सिर्फ मोदी सरकार की आलोचना करके कांग्रेस को सत्ता में नहीं ला सकते. पहले देशभर में मुर्दा सी पड़ी कांग्रेस को लड़ने लायक बनाना होगा. इसके लिए तमाम दुराग्रह और पूर्वाग्रहों को छोड़ कर नए पुराने कांग्रेसी नेताओं को यह विश्वास दिलाना होगा कि वो कांग्रेस को नेतृत्व देने मे सक्षम हैं. काम जरा मुश्किल है लेकिन नामुमकिन नहीं.


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