महीना मार्च साल 2020. जगह दिल्ली-एनसीआर. अभी-अभी दिल्ली में इलेक्शन खत्म हुए, अभी-अभी पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का भारत दौरा खत्म हुआ और फिलहाल ही मध्य प्रदेश की राजनीति की उठक-पटक का भी समापन हुआ. मगर जो खत्म नहीं हुआ वो था NRC के खिलाफ धरना प्रदर्शन. दिल्ली दंगो से जली दिल्ली की आंच और इसी दिल्ली में चल रहे संसद के दोनों सदन. जब तक ये सब खत्म होता एक बिन बुलाए मेहमान की तरह हमारे, आपके, हम सब के घर की दहलीज पर एक खौफ, एक डर ने दस्तक दे दी. जिसका नाम था 'Severe Acute Respiratory Syndrome Cov-2' यानी SARS CoV-2 जिसे हम कोरोनावायरस या कोविड-19 के भी नाम से जानते हैं.


फिर ताली-थाली का दौर चला, भाषणों का दौर चला, वाहवाही लूटने और देने का दौर चला और गिनती शुरू हो गई जो शायद शुरू नहीं होनी चाहिए थी कम से कम ऐसे नहीं. वायरस से मरने वालों की गिनती! एक लिस्ट थी जो उन दिनों सभी देखा करते थे एक दिन में दो बार अपडेट होती थी, एक डर के साथ एक दर्द के साथ. मैं भी देखता था, लिस्ट थी WHO द्वारा जारी सभी कोविड ग्रस्त देशों की. जिसमें वहां पर संक्रमित और संक्रमण से मारे गए लोगों की कुल संख्या लिखी होती थी. इस लिस्ट में सभी देश एक दूसरे से आगे निकलना चाहते थे जिसमें भारत जल्द ही पहले 20, फिर पहले 10 और फिर पहले 3 के अंदर आ गया. मगर खबरों में इन देशों की ये नाकामी नहीं थी. होती भी कैसे जिनकी वजह से नाकामी हुई थी वो खुद ग्रस्त थे.


Normal vs New Normal
ये बीता समय हमें बहुत कुछ सीखा गया, बता गया और समझा गया. सीखने की बात करे तो ऑनलाइन बैंकिंग, ऑलनाइन लेनदेन, ऑलनाइन शिक्षा, ऑनलाइन जॉब. मतलब कुल मिलाकर डिजिटल शब्द की क्या वियाख्या है और क्या अर्थ है उदाहरण सहित आज इसका जवाब कोई भी दे सकता है. मगर जवाब जिनसे चाहिए उनकी चुप्पी अब खलती है. जब सरकार डिजिटल इंडिया बनने पर इतना दबाव डालती थी और इस सपने को साकार कर सकती थी तब कहां चूक हुई कि सरकार का महत्वाकांक्षी सपना सरकार के लिए भष्मासुर बन गया. अगर गत वर्षो की NCRB की रिपोर्ट को देखा जाए तो इसमें ऑनलाइन क्राइम में आया उछाल ही सब कुछ कह देता है और अगर इस रिपोर्ट को नकार भी दिया जाए तो भी RBI की ऑनलाइन क्राइम में बढ़ती तेजी के लिए चिंता और हाल ही के महीनों में इसकी रोकथाम के लिए नए-नए कदमों पर विचार करना अपने आप मे सरकार की खामी भरे इस प्रोजेक्ट की बखिया उधेड़ देता है.


हम कोविड के दौर में ऑनलाइन सीखे तो बहुत, मगर आज कोई नहीं बता सकता कि कोई क्राइम होता है तो बचा कैसे जाए और इसकी अग्रिम सावधानियां क्या होनी चाहिए.


लॉकडाउन में भी भारत और चीन का बिजनेस बढ़ा
बीते वर्ष के लगभग मध्य से अभी तक जो एक बात सुर्खियों में रही और जो हमे जोरशोर से बताई गई वो थी गलवान घाटी में सैन्य झड़पें और चीन से भारत के रिश्ते जिसके चलते भारत ने कई मोबाइल एप को बंद कर चीन की अर्थव्यवस्था को करारा झटका दिया था. मगर सरकार ने जो नहीं बताया, वो था इस लॉकडाउन में भी भारत और चीन का बिजनेस जो कि किसी भी देश की तुलना में सबसे ज्यादा था. अब भले ही हम लोग एप बंद कर के खुश रहें या अपनी ही जमीन पर 2 किलोमीटर पीछे हटकर अपने आप को ताकतवर मान लें मगर सच्चाई जो है वही रहेगी.


भारत की अर्थव्यवस्था और खुशहाली भले ही सरकार आकड़ों में कितना भी बढ़ा चढ़ाकर बताए लेकिन RBI की बात ध्यान से सुने या किसी अर्थशास्त्री, प्रसिद्ध रेटिंग एजेंसी जैसे Fitch, Fraser Institute (Global Economic Freedom Index) या Freedom House Report की तो समझ मे आता है कि जैसा बताया जा रहा है वैसा है नहीं और जो है वो बताया नहीं जा रहा.


असलियत कहीं दूर है
बीते एक साल में एक बात तो समझ में आ गई है कि चाहें हमारी सरकारें हमसे कितना भी डायरेक्ट और इनडायरेक्ट टैक्स ले लें, सैस वसूल लें लेकिन बदले में आम लोगों के लिए मिलने वाली सहुलियतें सिर्फ और सिर्फ कागजी ख़्वाब होते हैं. इससे ज्यादा कुछ भी नहीं. ये सहूलियतें उतनी ही झूठी है जितना लॉकडाउन में नंगे पैर, भूख और तप्ती गर्मी से लड़ते अपने गांव घर को चले मजदूरों का सफर सच्चा था.


2020-21 के यूनियन बजट के हिसाब से जहां वित्त मंत्रालय ने हमारा व्यय 30.42 लाख करोड़ का रखा है जिसमें सिर्फ स्वास्थ्य, जल और स्वच्छता 69,000 करोड़, शिक्षा और कौशल 1,02,300 करोड़ और समाज कल्याण 2,12,400 करोड़ को ही देख ले तो लगता है कि हमारी तकदीर बदलने वाली है. मगर असलियत कहीं दूर है बहुत दूर!

एक अनुमान के अनुसार संगठित क्षेत्र में काम करने वाला व्यक्ति हो या असंगठित क्षेत्र में काम करने वाला व्यक्ति उसकी कुल कमाई का लगभग 40-45% हिस्सा डायरेक्ट-इनडायरेक्ट टैक्स या सेस के माध्यम से सरकार को जाती है. उदाहरण के लिए अगर मेरी 1 माह की कुल आय 30,000 रु है तो इसका करीब 12,000 रु मैं टैक्स के तौर पर सरकार को हर महीने देता हूं. मगर जो 12,000 रु मैं सरकार को दे रहा हूं उसका कितना प्रतिशत मुझे स्वास्थ, शिक्षा या अन्य सेवाओं के रूप में सरकार द्वारा वापस प्राप्त होता है? इसका जवाब आपके सामने है.


एक सरकारी स्कूल की हकीकत किसी से छुपी नहीं है इसलिए अमूमन हर माता-पिता अपनी संतानों के लिए निजी स्कूलों या अन्य शिक्षा संस्थानों का रुख करते हैं. परिणाम स्वरूप अच्छी खासी फीस चुकानी होती है. अब अगर मैं हर माह 12,000 रु सरकार को दे रहा हूं और फिर भी मुझे अलग से 5-7000 रु अपने बच्चे की फीस देनी पड़ रही है तो इसे छोटा दुर्भाग्य कहेंगे. छोटा इसलिए क्योंकि जो 5-7000 रु मैं स्कूल में दे रहा हूं. उसमें भी अलग से टैक्स सरकार को दे रहा हूं जो मेरी नजर में बड़ा दुर्भाग्य है. यही हाल कमोबेश चिकित्सा का भी है और अन्य सेवाओं का भी. इस महामारी के दौर ने कम से कम ये बात अच्छे से समझा दी है कि भारत मे संसाधनों की कमी नहीं है कमी है तो बस समाधानों की...!





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