भाजपा भले ही राष्ट्रीय स्तर पर भगवाकरण का हरा-भरा मंजर दिखा रही हो, लेकिन पिछले तीन महीनों के छोटे से वक्फे में ही लोकसभा और विधानसभा उप-चुनावों में हार के नतीजे देखकर पार्टी की रीढ़ में सिहरन जरूर दौड़ गई होगी; खास तौर पर अभी-अभी भाजपा के 28 साल पुराने गढ़ गोरखपुर में सपा प्रत्याशी की सेंध ने भाजपा के होश उड़ा दिए हैं. देश भर में अचानक नया ब्रांड बनकर चमके फायरब्रांड योगी आदित्यनाथ भी फीके पड़ गए! निश्चित तौर पर गोरखपुर सीट से भाजपा प्रत्याशी की हार का बड़ा प्रतिकूल संदेश पूरे देश में जाने वाला है.


इससे पहले जनवरी में राजस्थान की अलवर, अजमेर तथा पश्चिम बंगाल की उलूबेरिया सीट के लोकसभा उप-चुनाव भाजपा हारी. अटेर व चित्रकूट विधानसभा में हार के बाद सारी ताकत झोंकने के बावजूद फरवरी में एमपी की मुंगावली और कोलारस विधानसभा सीटें भी वह नहीं जीत सकी. अब मार्च में यूपी के फूलपुर और बिहार के अररिया लोकसभा उप-चुनाव में भाजपा प्रत्याशी चारों खाने चित हो गए. राज्य की जहानाबाद विधानसभा सीट पर भी भाजपा की पराजय हो गई है. हिंदी हार्टलैंड में मतदाताओं द्वारा हार की इतनी बड़ी माला पहनाए जाने से यकीनन भाजपा के ‘चाणक्य’ अमित शाह भी चिंतित हो गए होंगे!
गौरतलब है कि राजस्थान और एमपी में भाजपा को कांग्रेस ने धूल चटाई, यूपी में सपा-बसपा गठजोड़ ने मात दी, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने शिकस्त दी और बिहार में लालू प्रसाद यादव के राजद ने पटखनी दे दी. ये सभी भाजपा के कट्टर विरोधी पक्ष हैं. तीसरे मोर्चे के गठन की सुगबुगाहट के ऐन बीच इन यूपीए समर्थक घटक दलों का महाबली बनना यकीनन एनडीए के लिए खतरे की घंटी है.

उप-चुनावों में भाजपा प्रत्याशियों की हार का अंतर इतना बड़ा है कि जनता के गुस्से का पैमाना छलकता लग रहा है. योगी सरकार के कार्यकाल को अभी साल भी नहीं गुजरा है कि एंटीइनकम्बैंसी अपना रंग दिखाने लगी है. ध्यान रखना होगा कि फूलपुर की सीट केशव प्रसाद मौर्य के यूपी का डिप्टी सीएम बनने के बाद खाली हुई थी और गोरखपुर तो यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ का अभेद्य किला रहा है. इन दोनों सीटों पर भाजपा की हार पार्टी के आत्मविश्वास पर गंभीर प्रश्न खड़े करती है.

प्रश्न इसलिए भी खड़े होते हैं कि उप-चुनाव सत्ताधारी दल की बपौती माने जाते हैं, फिर भी केंद्र और राज्यों में भाजपा की सरकारें होने के बावजूद पार्टी की लगातार हार हो रही है. कहा यह भी जाता है कि दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर जाता है और यूपी में तो 1993 के बाद पहली बार सपा-बसपा साथ आई और भाजपा दोनों उप-चुनाव हार गई. सोचिए कि अगर 2019 के आम चुनाव में सपा-बसपा के साथ-साथ कांग्रेस और राष्ट्रीय लोक दल का भी गठबंधन हो गया तो मोदी लहर का क्या हाल होगा! यह भी सोचिए कि अगर 2014 के आम चुनाव में इन सबने हाथ मिला लिया होता तो क्या भाजपा यूपी में 24-25 सीट से ज्यादा जीत सकती थी, जो अभी 80 में से 71 सीटों पर काबिज है?

भाजपाध्यक्ष अमित शाह अपनी कूटनीति द्वारा सपा नेता नरेश अग्रवाल को पार्टी में शामिल करके जिन बहन मायावती के लिए राज्यसभा के दरवाजे बंद करने में कामयाब हुए, उन्हीं मायावती ने चौबे जी को दुबे जी बना दिया है. मायावती ने पहले तो राज्यसभा से खुद कन्नी काटने का दांव चला और अब सपा प्रत्याशी के पक्ष में बसपा के मत स्थानांतरित करवा कर अमित शाह से बदला चुका लिया है.

उप-चुनाव यह संकेत भी कर रहे हैं कि पश्चिम बंगाल में ममता, बिहार में लालू और यूपी में मायावती-अखिलेश का जल्वा कम होने का नाम नहीं ले रहा है. ऐसे में लोकसभा की 282 सीटों वाली भाजपा घटी हुई सीटों की भरपाई कैसे करेगी. दक्षिण भारत में उसकी आसानी से दाल नहीं गलने वाली क्योंकि टीडीपी और टीआरएस उससे खफा हैं, केरल में वह लगभग अस्तित्वहीन है और तमिलनाडु में भाजपा के प्रति अनिश्चय की स्थिति है. पार्टी कर्नाटक से ही थोड़ी-बहुत उम्मीद कर सकती है.

उत्तर-पूर्व में परचम लहरा कर भाजपा भले ही खुश हो ले लेकिन वहां के 8 राज्यों में लोकसभा की मात्र 25 सीटें ही हैं. अगर मान लिया जाए कि भाजपा अगले आम चुनावों में उत्तर-पूर्व की दो तिहाई सीटें जीत लेगी, तब भी हिंदी हार्टलैंट का झटका वह बर्दाश्त नहीं कर पाएगी. एमपी, राजस्थान, बिहार, यूपी, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में भाजपा 2014 वाला प्रदर्शन किसी हाल में दोहरा नहीं सकती, क्योंकि इनमें से कुछ बड़े राज्यों में भाजपा के खिलाफ इन दिनों भयंकर एंटीइनकम्बैंसी काम कर रही है.

सही है कि उप-चुनावों की तुलना आम चुनावों से नहीं की जानी चाहिए. लेकिन हांडी का एक ही चावल कच्चे-पक्के का हाल बयान कर देता है. सत्ता पाने के लिए भाजपा ने जो अकल्पनीय वादे किए थे, मतदाता अब उन्हें जबानी जमाखर्च समझने लगे हैं. अररिया, गोरखपुर और फूलपुर की ताजा हार इसकी महज एक बानगी है.

उप-चुनावों की लगातार हार को आगामी आम चुनावों की जीत में बदलने के लिए भाजपा क्या कदम उठाती है; इसका ठीकरा वह जातिवादी राजनीति के सर फोड़ती है या इसे अवसरवादी और अपवित्र समझौता करार देती है- यह उसके मंथन के विषय हैं. लेकिन जो पार्टियां जीती हैं उन्हें इस बात पर ज्यादा मंथन करना पड़ेगा कि अब 2019 के लिए कैसे आगे बढ़ना है. उन्हें सोचना होगा कि इस गठजोड़ का अखिल भारतीय स्वरूप क्या होगा, हिंदू राष्ट्र-राम मंदिर-लव जिहाद-बीफ पॉलिटिक्स-गोरक्षा-सर्जिकल स्ट्राइक जैसे भावनात्मक मुद्दों और किसान आत्महत्या-दलित उत्पीड़न-छात्र आक्रोश-बैंक घोटालों-भ्रष्टाचार जैसे वास्तविक मसलों का हल कैसे निकलेगा. इसके साथ-साथ उन्हें यह भी तय करना पड़ेगा कि यूपीए के घटक दलों की तरफ से मोदी जी का सामना करने के लिए किसका चेहरा आगे किया जाएगा?

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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)