मौजूदा ऑस्ट्रेलिया सीरीज के बारे में आज से दस साल बाद विराट कोहली से सवाल पूछ कर देखिएगा, उनका जवाब यही होगा कि ये सीरीज उनके करियर की सबसे मुश्किल सीरीज में से एक थी. इस सीरीज में अभी तक खेले गए तीन टेस्ट मैचों में से पहले मैच में भारतीय टीम को हार का सामना करना पड़ा था. दूसरे टेस्ट मैच में उसे जीत मिली. तीसरा टेस्ट मैच बड़ी ‘कनविसिंग’ तरीके से ऑस्ट्रेलिया ने ड्रॉ कराया.



सीरीज का चौथा मैच अभी बाकी है. दोनों ही टीमों के पास सीरीज पर कब्जा करने का मौका है. चौथा टेस्ट मैच 25 मार्च से धर्मशाला में खेला जाना है. जहां दोनों टीमें अपनी पूरी ताकत झोंकने के लिए तैयार हैं. सवाल ये है कि आखिर इस सीरीज के पहले क्या ऑस्ट्रेलियाई टीम को कमतर आंका गया. सीरीज शुरू होने से पहले ही ऐसा माहौल क्यों बनाया गया जैसे ऑस्ट्रेलिया बहुत ही कमजोर टीम लेकर भारत के दौरे पर आ गई है. उसे पूरी सीरीज में सिर्फ हार का ही सामना करना पडेगा. महीने भर के भीतर ऑस्ट्रेलियाई टीम ने अपने प्रदर्शन से इस राय को बदल कर रख दिया. आज अगर मान भी लें कि भारतीय टीम अगला टेस्ट मैच जीतकर सीरीज पर कब्जा कर लेगी तब भी ये नहीं कहा जा सकता है कि कंगारुओं ने लड़ाई नहीं लड़ी. ऑस्ट्रेलिया ने इस दौरे पर साबित किया कि आखिर कैसे उन्होंने लंबे समय तक विश्व क्रिकेट पर राज किया है.

बुरी तरह धवस्त हो गया सौरव का आंकलन
इस कहानी का लिखने का श्रेय सौरव गांगुली को मिलना चाहिए. सौरव भारतीय टीम के महान कप्तान रहे हैं. ये भी संभव है कि ये उनका ‘माइंडगेम’ रहा हो लेकिन सीरीज शुरू होने से पहले उनका एक अहम बयान आया था. जिसमें उन्होंने कहा था कि उन्हें ताज्जुब नहीं होगा अगर भारतीय टीम इस सीरीज में 4-0 से जीत दर्ज करेगी. दिग्गज और धुरंधर बल्लेबाज वीरेंद्र सहवाग की भविष्यवाणी भी कुछ ऐसी ही थी, हालांकि उन्होंने 3-1 स्कोरलाइन की बात कही थी. गांगुली ने ये भी कहा था कि 2001 में भारत के दौरे पर आई ऑस्ट्रेलियाई टीम से मजबूत टीम हो ही नहीं सकती.

ये सच है कि 2001 में आई कंगारुओं की टीम बहुत मजबूत थी. स्टीव वॉ, शेन वॉर्न, ग्लैन मैग्रा, जेसन गिलेप्सी जैसे धुरंधर खिलाड़ी उस दौरे पर ऑस्ट्रेलियाई टीम का हिस्सा थे. बावजूद इसके कंगारु जीत नहीं पाए थे. इस पूरे आंकलन में शायद एक बात पर सौरव ने ध्यान नहीं दिया. वो बात है इस दौरे से पहले कंगारुओं की तैयारी. यूं भी कई बार ऐसा लगता है कि किसी भी कप्तान को अपने दौर में खेली गई क्रिकेट सबसे मुश्किल लगती है. अपने दौर की पिचें, अपने दौर के विरोधी गेंदबाज, अपने दौर की क्रिकेट... सबकुछ बहुत मुश्किल. ये तुलना कुछ कुछ ऐसी हैं जैसे आप किसी बुजुर्ग के पास बैठ जाएं और फिल्मी गपशप छेड़ दें तो वो अपने दौर की फिल्मों, अपने दौर के संगीत को सबसे बेहतरीन बताता है. जबकि व्यवहारिकता ऐसी है नहीं, सच ये है कि हर दौर में अच्छा और बुरा काम होता है. ऐसा ही फिल्मों में होता है. ऐसा ही क्रिकेट में होता है. इस दौरे में स्टीव स्मिथ और उनके खिलाड़ियों ने जिस शानदार स्तर का प्रदर्शन किया है उसके बाद उन्हें कमजोर कह देना गलत है.

कंगारुओं की ताकत आंकने में कहां चूक हो गई
इसी साल जनवरी की बात है. ऑस्ट्रेलिया के भारत दौरे से ठीक पहले पूरी टेस्ट टीम दुबई में थी. 2011 के बाद से सब कॉन्टिनेंट में सीरीज ना जीत पाने की भूख उनमें दिखाई दे रही थी. आईसीसी की बनाई एकेडमी में खिलाड़ी पसीना बहा रहे थे. जिस पिच पर कंगारुओं ने प्रैक्टिस की थी वो पिच पाकिस्तानी मिट्टी की बनी हुई थी. इस खास प्रैक्टिस का फायदा क्या हुआ ये पूरी सीरीज में देखने को मिला. ऑस्ट्रेलियाई स्पिन गेंदबाजों ने ज्यादातर मौके पर हमारे स्पिनर्स से अच्छी गेंदबाजी की. उनके बल्लेबाजों ने मैदान में खुद को ज्यादा बेहतर तरीके से भारतीय कंडीशंस के हिसाब से ढाल लिया. पहले टेस्ट मैच में भारतीय टीम ने जिस तरह ‘सरेंडर’ किया उसके बाद तमाम दिग्गज खिलाड़ियों ने खुलकर कहा था कि कंगारु गेंदबाजों और बल्लेबाजों ने भारतीय गेंदबाजों और बल्लेबाजों के मुकाबले कहीं बेहतर प्रदर्शन किया.

ऐसा नहीं है कि सौरव गांगुली या वीरेंद्र सहवाग के कहने पर से विराट कोहली की टीम ने अपनी तैयारियां कम कर दीं. ऐसा भी नहीं है कि विराट कोहली और बाकि खिलाड़ी कंगारुओं को कमजोर मानकर मैदान में उतरे. चूक शायद यहां हो गई कि हमने अपने घर में खुद को बहुत मजबूत मान लिया. इतना मजबूत कि कोई हमें हरा ही नहीं सकता. मौजूदा सीरीजों के नतीजे हमारे दिलो दिमाग पर भारी हो गए. जब तक संभलते, उस माहौल से बाहर निकलते तब तक एक टेस्ट हाथ से निकल चुका था. अब इस सोच को सच साबित करने के लिए बडी मेहनत करनी होगी. चूंकि सीरीज अभी बाकी है इसलिए इस सोच का एक इम्तिहान भी अभी बाकी है.