जम्मू-कश्मीर में आतंकी हमले कोई नई बात नहीं है. पिछले कई वर्षों से यहां आंतक का नंगा नाच खेला जा रहा है और इसके शिकार हो रहे है आम लोग. लेकिन हमारी सरकारें सिर्फ निंदा के अलावा और कुछ कर पाने में असमर्थ दिखती हैं. मसला सिर्फ अमरनाथ यात्रियों की बस पर हुए हमले का नहीं है. यह केन्द्र में काबिज मोदी सरकार और जम्मू-कश्मीर में बीजेपी-पीडीपी की संयुक्त रूप से चल रही महबूबा मुफ्ती सरकार की विफलता को दर्शाता है. जो आतंक से लड़ने की बात कहते तो हैं, लेकिन आतंकवाद के मामले पर दोनों पार्टियों की नीति अलग-अलग ही है.


दो साल पहले जब जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव हुए तो यहां की आवाम ने जमकर वोटिंग की लेकिन किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. लेकिन सत्ता में आने के लिए छटपटा रही पीडीपी और बीजेपी ने साझेदारी कर सरकार बना ली. जबकि यह दोनों ही राजनीतिक दल एक दूसरे के धुर विरोधी थे. उस समय बीजेपी के साथ सरकार बनाने वाले राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और महबूबा के दिवंगत पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने इस गठबंधन को 'कश्मीर की जनता और शेष भारत' के बीच हुआ गठबंधन बताया था. उन्होंने उम्मीद जाहिर की थी कि इस गठबंधन की वजह से नरेंद्र मोदी को दिल्ली की सत्ता में लाने वाले लोग कश्मीर के और नजदीक आएंगे. लेकिन श्रीनगर लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में मात्र 7 फीसदी वोटिंग के बाद गठबंधन की सरकार चला रही बीजेपी-पीडीपी ने सार्वजनिक तौर पर एक दूसरे के खिलाफ खूब बयानबाजी की. पीडीपी के एक नेता ने तो यहां तक कह दिया कि 'यह दो विरोधी पार्टियों के बीच हुई एक असंगत साझेदारी थी. पीडीपी कश्मीर के मौजूदा हालात के लिए बीजेपी को जिम्मेदार बताती है. उसका कहना है कि बीजेपी के अलगाववादियों और पाकिस्तान से राजनीतिक बातचीत खत्म करने के फैसले और घाटी के लोगों को विश्वास में नहीं लेने की वजह से हालात बिगड़ गए.


जबकि दूसरी तरफ बीजेपी का कहना है कि पीडीपी 'तुष्टीकरण' की राजनीति कर रही है. बीजेपी मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती से लगातार कहती रही है कि वह पत्थरबाजों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करें और नेशनल कॉन्फ्रेंस की राजनीति के दबाव में ना आएं. वहीं कश्मीर को लेकर पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों का कहना है कि इस उलझन की वजह से सुरक्षा तंत्र तबाह हो रहा है. एक समाचार पत्र को नाम न बताने की शर्त पर घाटी के एक सीनियर अधिकारी ने बताया कि, 'जब हम पत्थरबाजों को गिरफ्तार करते हैं तो हमें उन्हें छोड़ने के लिए राजनीतिक दबाव का सामना करना पड़ता है, क्योंकि उनमें से कई पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस से होते हैं. दोनों ही पार्टियां कानून-व्यवस्था को कमजोर करने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करती हैं.'

कुल मिलाकर कश्मीर घाटी में लगातार बढ़ रही आतंकवादी घटनाओं को लेकर राजनीतिक पार्टियां भले ही एक दूसरे पर इल्जाम लगा रही हों पर हकीकत में इसे मोदी सरकार की विफलता के रूप में ही देखा जाएगा. क्योंकि देश की जनता ने जिन मुद्दों पर मोदी सरकार को वोट किया था उसमें एक मुद्दा जम्मू-कश्मीर का भी था लेकिन जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है तब से घाटी में उपद्रव कम होने की जगह और बढा है. पत्थरबाजी की घटनाओं में जहां इजाफा हुआ है तो आतंकियों को लेकर हुर्रियत जैसे अलगाववादी संगठन और मुखर हुए हैं. घाटी में किसी भी घटना के बाद यह अलगाववादी संगठन सड़क पर उतर आते है जिस पर राज्य सरकार अंकुश लगाने में नकामयाब सबित हुई है.



महबूबा मुफ्ती भले ही बीजेपी के साथ गठबंधन की सरकार चला रही हो लेकर जिस तरह उनकी पार्टी पीडीपी अलगाववादियों को लेकर साफ्ट कार्नर अपनाए हुए है और इस पर बीजेपी की चुप्पी सिर्फ सत्ता लोलुप्ता की तरफ इशारा करती है. वही सोमवार को अमरनाथ यात्रियों पर हुए आतंकी हमले के बाद जिस तरह से केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के बयानों को देखा जाए तो यह जान पड़ता है कि जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों पर दोनों सरकारें भले ही निंदा-निंदा का राग अलाप रही हो लेकिन उनकी गठबंधन सरकार ने घाटी में स्थाई रूप से शांति बनाने का जो वादा जनता से किया था उसको खुद यही दल पलीता लगाते दिख रहे हैं. क्योंकि बिना सख्त रवैया अपनाए घाटी में शांति बाहल नहीं की जा सकती. इसके बावजूद मात्र सत्ता के लालच में राजनीति आम लोगों की जिन्दगी से खिलवाड़ करने से नहीं चूक रही. लेकिन अमरनाथ यात्रियों पर हुए आतंकी हमले के बाद एक बार फिर से बीजेपी-पीडीपी गठबंधन में दरार सी देखी जा रही है. आने वाले वक्त में कश्मीर घाटी में चल रहे आतंकी नाच को लेकर यह सरकारें कितना सख्त होती है यह देखने वाली बात होगी लेकिन जिस तरह पीएम नरेन्द्र मोदी ने इजराइल यात्रा के बाद बीजेपी समर्थकों द्वारा बातें की जा रही थी कि इजराइल की तर्ज पर अब आतंकियों से निपटा जाएगा यह देखने वाली बात होगी कि वास्तव में हमारी सरकारें ऐसा कर पाएगी या नहीं.

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