2024 के लोकसभा चुनाव में पहले फेज़ की वोटिंग हो चुकी है और दूसरे फेज़ की चंद दिनों में होने जा रही है. चुनाव से पहले ही मुस्लिम वोटों को लेकर स्थिति साफ होती नजर आ रही. बीजेपी ने भले ही 400 पार का लक्ष्य तय किया है लेकिन इसमें मुसलमान वोटरों पर निर्भरता शून्य ही है. विपक्ष का रवैया इसके बिलकुल विपरीत नजर आ रहा. उन्हें लग रहा कि बीजेपी का जो रुख है ऐसे में मुस्लिम वोटर विपक्ष के अलावा किसके लिए वोट करेंगे? उन्हें ये निश्चित रूप से लगता है कि मुस्लिम मतदाता बीजेपी को वोट नहीं देंगे. 


65 सीटों पर मुस्लिम वोटर निर्णायक


लोकसभा की 65 सीटों पर मुस्लिम वोटर लगभग जीत-हार में बड़ी भूमिका निभाते हैं. वहीं लगभग 35 से 40 ऐसी लोकसभा सीटें हैं जहां मुस्लिम वोटर की संख्या 35 प्रतिशत से 70 प्रतिशत से भी ऊपर है. ये 65 सीटें असम, बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, गोवा, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में हैं. उत्तर प्रदेश में सहारनपुर, कैराना, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, रामपुर, मुरादाबाद, नगीना, मेरठ, अमरोहा, संभल, बरेली, बहराइच, श्रावस्ती इत्यादि ऐसी सीटें हैं. पश्चिम बंगाल में बशीरहाट, जादवपुर, जयनगर, मथुरापुर, डायमंड हार्बर, मालदा दक्षिण, मालदा उतर, मुर्शिदाबाद, कृष्णक नगर, बहरामपुर, रायगंज, बीरभूम इत्यादि. केरल में वायनाड, कासरगोड, कोझिकोड, कोट्टयम, पतनमथित्त, इडुक्की, वाडकर, मल्लापुरम हैं तो दिल्ली में उत्तरी पूर्वी दिल्ली, चांदनी चौक सीटों पर मुस्लिम मतदाता प्रभावी हैं. हरियाणा में गुरुग्राम, फरीदाबाद ऐसी सीटें हैं तो असम में करियाबोर, नौगांव, धुबरी, बरपेटा, मंगलदोई, सिल्चर, करीमगंज और बिहार में अररिया, पूर्णिया, कटिहार, किशनगंज इत्यादि ऐसी सीटें हैं. जम्मू कश्मीर में बारामुला, श्रीनगर, अनंतनाग, राजौरी हैं तो लद्दाख की लद्दाख और गोवा की उत्तरी गोवा, दक्षिण गोवा और मध्य प्रदेश में मंदसौर, बैतूल, भोपाल इत्यादि ऐसी सीटें हैं. महाराष्ट्र में औरंगाबाद, भिवंडी, तेलंगाना में सिकंदराबाद, हैदराबाद और तमिलनाडु में रामनाथपुरम ऐसी सीटें हैं. 



बीजेपी और मुस्लिमों का जुड़ाव


बीजेपी के अल्पसंख्यक मोर्चे की ओर से 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले से प्रधानमंत्री मोदी के लिए 'ना दूरी है, ना खाई है, मोदी हमारा भाई है' के नारे के साथ भी मुस्लिम समाज को प्रधानमंत्री मोदी के साथ जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है. बीजेपी के अल्पसंख्यक मोर्चा ने पिछले तीन महीनों में मुस्लिम समाज के अलग-अलग वर्गों से बातचीत के लिए कई अभियान चलाए हैं. मोर्चे ने मुस्लिम समाज के 22700 स्नेह संवाद कार्यक्रम किए हैं. इन संवाद और कार्यक्रमों के जरिए देश भर में 1468 विधानसभाओं को जोडने का प्रयास किया गया है. इन कार्यकर्मों के जरिए 50 लाख मुस्लिमों से संवाद किया गया है. देश की 543 लोकसभा सीटों पर कुल मिलाकर 18 लाख से ज्यादा मुस्लिम मोदी मित्र बनाए गए हैं.


पार्टी खासतौर से मुस्लिम महिला वोटरों को साधने का प्रयास करती दिखाई दी जो तीन तलाक जैसी कुरीति से आजादी दिलाने के लिए पीएम मोदी को पसंद करती है. 2017 में ओडिशा में, बीजेपी ने पसमांदा मुसलमानों को समान लाभ की आवश्यकता पर जोर डाला. 2013 में उत्तर प्रदेश में, बीजेपी ने कुछ पसमांदा मुसलमानों को शामिल करने के लिए एक "बुनकर सेल" का गठन किया लेकिन बीजेपी की इस पहुंच के नतीजे मिले-जुले रहे हैं.


बीजेपी को मुसलमान देते हैं वोट ?


2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में बहुत कुछ बदला, लेकिन बीजेपी को लेकर मुस्लिम वोटर्स का रवैया नहीं. CSDS के मुताबिक दोनों चुनाव में सिर्फ 8% मुसलमानों ने BJP को वोट दिया. यह आंकड़ा 2009 में बीजेपी एवं सहयोगियों को मिले मुस्लिम वोटों से लगभग दोगुना है. मुस्लिम पहले भी बीजेपी को तक़रीबन इसी अनुपात में वोट देते रहे हैं. 1998, 1999 और 2004 को लोकसभा चुनावों में भी तक़रीबन सात-सात प्रतिशत वोट बीजेपी एवं सहयोगी दलों को मिले थे. 2019 के बाद हुए विधानसभा चुनावों में भी ये पैटर्न कायम रहा. पार्टी ने दिसंबर 2022 में दिल्ली नगर निगम चुनाव में चार पसमांदा मुसलमानों को मैदान में उतारा, लेकिन कोई भी उम्मीदवार नहीं जीता और केवल एक उपविजेता के करीब आया. हालांकि, मई 2023 में स्वार सीट पर उत्तर प्रदेश उपचुनाव के नतीजे बताते हैं कि पार्टी के प्रयासों को कुछ गति मिली.


2023 में उत्तर प्रदेश  में हुए स्थानीय निकाय चुनाव में बीजेपी ने पहली बार उत्तर प्रदेश  के कई मुस्लिम बहुल इलाकों में जीत दर्ज की. शहरी निकाय चुनावों में, बीजेपी ने 395 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा – पांच नगर पालिका परिषद के अध्यक्ष, 32 नगर पंचायत के अध्यक्ष, 80 पार्षद और 278 सभासद पद हेतु – जिनमें से 61 उम्मीदवारों ने जीत हासिल की. यानी 15 प्रतिशत स्ट्राइक रेट से थोड़ा अधिक. यह पिछले स्थानीय निकाय चुनावों के परिणामों के बिल्कुल विपरीत है, जिसमें पार्टी द्वारा मैदान में उतारे गए 180 में से केवल एक मुस्लिम उम्मीदवार विजयी हुआ था.


इतिहास मुस्लिम विऱोधी नहीं


1951 में जब जनसंघ की स्थापना हुई, तब उस समय तब जनसंघ कट्टर हिन्दुत्व की राजनीति नहीं करता था. इसकी शुरुआत एक राष्ट्रवादी पार्टी के तौर पर हुई जो कांग्रेस की नीतियों से असहमत थी. पहले श्यामा प्रसाद मुखर्जी और फिर दीन दयाल उपाध्याय के दौर में जनसंघ ऐसे ही नीतियों पर चला. अटल बिहारी वाजयेयी के दौर में भी पार्टी का रुख मुस्लिम समुदाय को लेकर नरम ही था. ये बात भी सपष्ट थी कि वायपेयी धर्म के नाम पर राजनीति करना खास पसंद नहीं करते थे. जनसंघ की तब की विचारधारा में गोरक्षा और मुस्लिम तुष्टीकरण का विरोध जैसे मुद्दे शामिल थे फिर भी आरिफ बेग जैसे मुस्लिम नेताओं ने जनसंघ में बढ़-चढ़ कर काम किया. यानी, साफ है कि न तो जनसंघ में मुस्लिम नेताओं के प्रति या मुस्लिम नेताओं में जनसंघ को लेकर कोई खटास नहीं थी.


अटल बिहार वाजपेयी के करीबी सिकंदर बख्त जो बीजेपी के सबसे बडे मुस्लिम चेहरा बने, ने कांग्रेसी होते हुए भी जनसंघ को चुना और बाद में बीजेपी के बड़े पद पर रहे. 90 के दशक में सिकंदर बख्त राज्यसभा में बीजेपी के फ्लोर लीडर थे. इससे ये तो साफ है कि एक समय में बीजेपी में मुस्लिम चेहरों को तरजीह दी जाती थी. लाल कृष्ण आडवाणी के राम मंदिर आदोलन से बीजेपी और मुसलमानों में दूरियों की शुरुआत हुई.


बीजेपी की छवि एक आक्रमक हिंदूवादी पार्टी की बनने लगी लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने पर एक बार फिर मुस्लिम चेहरों जैसे मुख्तार अब्बास नकवी, शाह नवाज़ हुसैन को मंत्रिमंडल में जगह दी. इसी दौर में कांग्रेस छोड नजमा हेपतुल्ला बीजेपी में शामिल हुई और एजाज हसन रिजवी, तनवीर हैदर उस्मानी जैसे नेताओं को आगे कर बीजेपी को शिया मुस्लमानों का समर्थन हासिल किया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के हिन्दुत्व और विकास के मॉडल ने हवा का रुख पूरी तरह से मोड़ दिया है जहां मुस्लिम मतदाता पार्टी से कोसों दूर दिखाई दे रहें हैं. इस खाई को पाटने की भी कोई बडी कोशिश फिलहाल पार्टी की तरफ से दिखाई नहीं देती.


क्या है आगे का रास्ता


तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ब्रिगेड पर नज़र डाले तो ये तो साफ हो जायेगा कि उन्होंने भी मुस्लिम समुदाय के उत्थान और शासन में उनका प्रतिनिधित्व देने के लिए कुछ नहीं किया है. आखिर विपक्षी ब्लॉक में प्रमुख मुस्लिम नेता कहां हैं? यह एक सामान्य बात लग सकती है लेकिन दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी के लिए यह तय करने का समय आ गया है कि उन्हें दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में राजनीति से जुड़ने की जरूरत है. मुस्लिम समुदाय केंद्र की सत्ताधारी पार्टी के अपनी तरफ थोड़ा आगे बढ़ने का इंतजार कर रहा है. इस समुदाय का यही कहना है कि आखिर बीजेपी विश्वसनीय और सक्षम मुस्लिम उम्मीदवारों को क्यों नहीं खड़ा करती?


2024 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी की लोकसभा उम्मीदवारों की सूची में केरल में कालीकट विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति एम अब्दुल सलाम एकमात्र मुस्लिम चेहरे के रूप में दिखाई देते हैं. बीजेपी ने उन्हें मुस्लिम बहुल मलप्पुरम सीट से नामांकित किया है, जहां उनका मुकाबला आईयूएमएल के ईटी मुहम्मद बशीर और सीपीआई (एम) के वी वासिफ से होगा. 2014 में बीजेपी ने सात मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था. हालांकि, वे सभी हार गए, जिसमें शाहनवाज हुसैन भी शामिल थे.


2019 में बीजेपी ने छह मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था जम्मू- कश्मीर में तीन, पश्चिम बंगाल में दो और लक्षद्वीप में एक लेकिन फिर से उनमें से कोई भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हुआ. 2009 में बीजेपी ने 4 मुस्लिम उम्मीदवारों मैदान में उतारा और उसमें सिर्फ शाहनवाज हुसैन ही जीतने में कामयाब हुए. जबकि बीजेपी के लिए मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देने का अनुभव खास अच्छा नहीं रहा है फिर भी बीजेपी के लिए भी मुसलमानों को जोडने का रास्ता मुस्लिम समुदाय को पार्टी और सत्ता में प्रतिनिधित्व देने से ही होकर गुज़रता है.


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