19 नवंबर, देश की अब तक की इकलौती महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का जन्मदिवस है और अभी पांच दिन पहले ही 14 नवंबर को देश ने उनके पिता और आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू का जन्मदिन बाल दिवस के रूप में मनाया. यानि नवंबर का महीना दो पूर्व प्रधानमंत्रियों, जो कि पिता-पुत्री भी थे, के जीवन से गहरा संबंध रखता है.


यह तो अधिकतर लोग जानते हैं कि नेहरू जी ने पुत्री इंदिरा को जेल से लिखे अपने पत्रों के माध्यम से देश और दुनिया की सभ्यता-संस्कृति से परिचित कराया था, लेकिन कम लोग जानते हैं कि आजादी की लड़ाई के दौरान नेहरू जी ने इंदिरा का नाम सिर्फ इसलिए स्कूल से कटवा दिया था कि इलाहाबाद की जिस निजी सेंट सीसिलिया स्कूल में उनके पिता मोतीलाल नेहरू ने पोती का दाखिला करवाया था, उसे कुछ अंग्रेज धावक चलाते थे और वहां चपरासी से लेकर प्रिंसिपल तक सभी अंग्रेज थे. नेहरू जी का मानना था कि उनकी बेटी के उस स्कूल में शिक्षा ग्रहण करने से कांग्रेस के विदेशी बहिष्कार आंदोलन के साथ धोखेबाजी होगी. उस दौर में जीवन मूल्यों के साथ-साथ सामाजिक मूल्यों को भी बड़ी तरजीह दी जाती थी. अकारण नहीं है कि नेहरू जी ने बचपन से ही स्वतंत्रता आंदोलन में अति सक्रिय रहने के बावजूद इंदिरा को राजनीति में कभी आगे नहीं बढ़ाया था. चुनावी मैदान में तो उन्हें लालबहादुर शास्त्री ने उतारा और के. कामराज ने सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर स्थापित करवाया.


अगर कहा जाए कि इंदिरा जी का बचपन स्वतंत्रता आंदोलन की गोद में पला था, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. जब वह महज 5 साल की थीं, नेहरू परिवार ने अपना समस्त ब्रिटेन निर्मित सामान जला दिया था. उसी दौरान जब बालिका इंदिरा को एक पारिवारिक मित्र ने याद दिलाया कि जो गुड़िया वह अपने सीने से लगाए घूमती हैं वह ब्रिटेन में बनी है, तो उन्होंने अपनी उस प्रिय गुड़िया को भी आग के हवाले कर दिया था. बचपन की इस घटना के बारे में इंदिरा गांधी ने वर्षों बाद कहा था- “मुझे याद है कि तब मैंने क्या महसूस किया था. मुझे लगा था कि जैसे मैंने किसी की हत्या कर दी हो!”


इंदिरा प्रियदर्शिनी पर स्वतंत्रता आंदोलन का इतना गहरा असर था कि उन्होंने अंग्रेजों के दांत खट्टे करने के इरादे से महज 13 वर्ष की अल्पायु में ही वानर सेना का गठन कर लिया था. उनकी वानर सेना के सदस्यों ने देशसेवा की शपथ ली. इनके माध्यम से क्रांतिकारियों तक महत्वपूर्ण सूचनाएं पहुंचाई जातीं, सामान्य जनता के बीच जरूरी संदेशों के पर्चे वितरित किए जाते, लेकिन सबसे जरूरी कार्य था तिरंगे झंडे का निर्माण. इंदिरा की वानर सेना में केवल इलाहाबाद में ही पांच हजार से अधिक सदस्य बन गए थे. ये बच्चे शहर के अलावा गांव-गांव घूमकर आंदोलनकारियों की मदद और प्रदर्शन करते थे. एक अवसर पर तो स्वयं प्रियदर्शिनी ने एक महत्वपूर्ण दस्तावेज अपने स्कूल के बस्ते में छिपाकर कहीं पहुंचाया था क्योंकि उनके पिता का घर उस समय पुलिस की निगरानी में था और उन्होंने पुलिस को यह कह कर चकमा दे दिया था कि उन्हें पहले ही स्कूल के लिए देर हो चुकी है और अब सजा मिलेगी.


बचपन में इंदिरा जी की वानर सेना से मेरा भी हाथ घुमाकर नाक पकड़ने जैसा रिश्ता बना. दरअसल जब मैं प्राथमिक पाठशाला में पढ़ता था तो हिंदी विषय में एक पाठ था- ‘इंदिरा की वानर सेना’. लेकिन जो किताबें हमें दी जाती थीं, उनमें सिर्फ वानर सेना वाले पाठ को स्टैपलर से बंद कर दिया जाता था. हम सात-आठ साल के बच्चों को यह बड़ा अटपटा लगता था लेकिन रहस्य और कौतूहल बरकरार था. एक दिन डरते-डरते गुरु जी से पूछा तो उन्होंने बताया कि इंदिरा गांधी की सरकार चली गई है और जनता पार्टी की सरकार बन गई है इसलिए आपातकाल लगाने वाली इंदिरा से संबंधित पाठ नहीं पढ़ाया जा रहा है. उस समय गुरु जी की बात लाख समझाने के बावजूद समझ में नहीं आई थी. और दो साल बाद उस बंद पाठ के खुल जाने का कोई अर्थ नहीं रह गया था क्योंकि हम लोग अगली कक्षाओं में चले गए थे.


आश्चर्य होता है कि इंदिरा गांधी का जीवन कितना कठिन रहा है! उनके जीवन को केंद्र में रख कर कई भाषाओं में उपन्यास लिखे गए, उनके वैवाहिक जीवन के उतार-चढ़ाव पर फिल्में बनीं, फिल्म अभिनेत्रियों तक के लिए वह फैशन आइकॉन रहीं, उनका राजनीतिक सफर किसी रोमांचक कथा से कम नहीं. राजनीतिक दिग्गजों ने उन्हें भांति-भांति के तमगे दिए. यूएसए के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन चिढ़ कर उन्हें ‘बुढ़िया चुड़ैल’ कहते थे, मोरार जी देसाई ने उनको ‘गूंगी गुड़िया’ का खिताब दे रखा था, अटल बिहारी वाजपेई की नजर में वह ‘दुर्गा’ थीं, अपने निर्भीक, साहसिक और कड़े निर्णयों के चलते पश्चिमी देशों का प्रेस उन्हें ‘आयरन लेडी’ शीर्षक देता था. इंदिरा जी की मृत्यु भी एक शोकांतिका बन कर रह गई! यह तो इतिहास में दर्ज है ही कि उनके प्रधानमंत्रित्वकाल में एक ओर जहां भारत-पाक युद्ध, परमाणु कार्यक्रम, बैकों का राष्ट्रीयकरण, प्रिवीपर्स की समाप्ति, हरित क्रांति, श्वेत क्रांति जैसे शानदार नगीने जड़े हैं तो दूसरी ओर विपक्षी दल-शासित राज्यों पर मनमाने राष्ट्रपति शासन, ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार, एकछत्रवाद, चुनावी कदाचार, जबरिया नसबंदी और आपातकाल थोपने जैसे कलंक भी लगे हुए हैं.


यह बात सच है कि इंदिरा गांधी को राजनीति विरासत में मिली थी इसीलिए सियासी पैंतरेबाजियों और तिकड़मों को वह अपने दौर के नेताओं से कहीं बेहतर समझती और आजमाती थीं. यही वजह रही कि उनके सामने न सिर्फ देश, बल्कि विदेश के नेता भी फीके पड़ने लगते थे. लोग उनमें न सिर्फ कांग्रेस पार्टी का बल्कि देश का नेता देखते थे. समय-समय पर उन्होंने इसे साबित भी किया. शिमला समझौते की मेज पर वह पाकिस्तान के दबाव में जरा भी न झुकते हुए लगभग विफलता की कगार पर पहुंच चुकी इस शिखर वार्ता को सम्मानजनक फैसले तक लाने में सफल हुई थीं. बांग्लादेशी शरणार्थी समस्या हल करने के लिए 1971 में हुए युद्ध के दौरान भारत को पूर्वी पाकिस्तान से दूर रखने के इरादे से यूएसए ने जब अपने सातवें बेड़े को बंगाल की खाड़ी में भेजा, तो यह इंदिरा गांधी ही थीं जिन्होंने अमेरिकी गीदड़भभकी को नजरअंदाज करने का साहस दिखाया. इंदिरा जी की ऐतिहासिक कामयाबियों के चलते देश में ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’ का नारा गूंजता था.


लेकिन 1975 की तपती गर्मी में देश को आपातकाल से झुलसा कर रख देने के उनके फैसले के चलते भारत की जनता ने उन्हें अर्श से फर्श पर ला पटका था. यह आज के राजनीतिज्ञों के लिए भी एक सबक है जिसे भविष्य में भी लोग नहीं भूलना चाहेंगे. हालांकि, भारत में जब लोग राम-रावण की कथा से सबक हासिल नहीं करते, तो इंदिरा गांधी का हश्र भला उन्हें कितने दिनों तक याद रहेगा! इंदिरा गांधी के फीनिक्स पक्षी की तरह अपनी ही राख से उठ खड़ा होने के मिथक से भी बहुत बड़ी सीख मिलती है कि बदले की राजनीति घातक होती है. 1977 की करारी हार के बाद घर बैठ कर आध्यात्मिक चोले में भजन सुनने वाली इंदिरा गांधी को सत्तारूढ़ जनता पार्टी ने जब आपातकाल की ज्यादतियों का हिसाब चुकता करने के लिए ‘ऑपरेशन ब्लंडर’ करके जेल में डाल दिया तो उन्होंने जनता सरकार को सदा के लिए जड़ से उखाड़ फेका.


स्वर्गीय इंदिरा गांधी के विचारों और कार्यशैली से चिर असहमत रहने वाले लोग आज भी उनसे इतना सबक तो हासिल कर ही सकते हैं.


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