आज भगत सिंह का जन्म दिन है. लेकिन जब भी भगत सिंह की चर्चा होती है तो ये चर्चा उनके जन्मदिन से ज्यादा उनकी शहादत वाले दिन से होती है. क्योंकि भारतीय इतिहास में भगत सिंह इकलौते ऐसे क्रांतिकारी हैं, जिन्होंने अपनी मौत को खुद डिजाइन किया था. 17 दिसंबर, 1928 को पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या का दोषी करार देते हुए उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई थी. वो चाहते तो अपने मुकदमे की पैरवी के लिए वकील कर सकते थे, लेकिन न तो सांडर्स की हत्या की सुनवाई के लिए और न ही सेंट्रल असेंबली में बम धमाके की सुनवाई के लिए उन्होंने कोई वकील किया और इस तरह से उन्होंने अपनी नियति को खुद चुना. लेकिन बार-बार एक सवाल उठता है कि महात्मा गांधी और नेहरू चाहते तो भगत सिंह की फांसी रुक सकती थी. उन्हें बचाया जा सकता था. तो क्या वाकई ऐसा था या ये सिर्फ खयाल है?


हवा में रहेगी मेरे खयाल की बिजली. ये मुश्त-ए-खाक है फानी, रहे-रहे न रहे. 27 सितंबर, 1907 को पैदा हुए और 23 मार्च 1931 को फांसी चढ़कर शहीद हुए भगत सिंह ने इन लाइनों को अपनी जेल डायरी में लिखा था. ये लाइनें अपने आप सब कुछ बयान कर देती हैं. फिर भी परिस्थितियों को थोड़ा समझने की कोशिश करते हैं. सांडर्स की हत्या के बाद भगत सिंह, राजगुरु और जयगोपाल भाग निकले थे. 8 अप्रैल, 1929 को सेंट्रल असेंबली में धमाके के बाद भी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के लिए वहां से भाग जाना मुश्किल नहीं था. लेकिन वो रुके रहे. पर्चे फेंकते रहे और क्रांतिकारी नारे लगाते रहे. मकसद देश और दुनिया को संदेश देना था, जिसमें वो पूरी तरह से सफल भी रहे थे.


गिरफ्तारी के बाद 7 मई, 1929 को जब मुकदमे की सुनवाई शुरू हुई तो भगत सिंह की तरफ से आसफ अली कोर्ट में मौजूद थे. कोर्ट में जब लंच टाइम हुआ तो भगत सिंह ने कोर्ट रूम में मौजूद अपने पिता किशन सिंह से साफ तौर पर कहा कि सरकार उन्हें फांसी पर चढ़ाने के लिए तुली हुई है, लिहाजा चिंता करने से कुछ नहीं होगा. उनकी फांसी तय है. अगले दिन 8 मई को जब भगत सिंह को बयान देने के लिए कहा गया तो उन्होंने कोई भी बयान देने से इनकार कर दिया.


सेशन कोर्ट में मुकदमे की सुनवाई शुरू हुई तो भगत सिंह ने माना कि उन्होंने बम फेंका है, क्योंकि इंग्लैंड को जगाने के लिए बम फेंकना ज़रूरी था. कोर्ट ने अपने लंबे फैसले में कहा कि बम फेंकने के दोषी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास की सजा दी जाती है. लेकिन अभी भगत सिंह के खिलाफ एक और बड़ा मुकदमा बाकी था. सांडर्स की हत्या का मुकदमा. इसकी शुरुआत 10 जुलाई, 1929 से हुई. सांडर्स हत्याकांड में भगत सिंह समेत 15 लोगों पर मुकदमा चलाया गया. इनमें से सात सरकारी गवाह बन गए, जिनमें राम शरण दास, ब्रह्म दत्त, जयगोपाल, मनमोहन बनर्जी, हंसराज वोहरा और ललित कुमार मुखर्जी शामिल थे.


इस केस में भी भगत सिंह ने कोई वकील नहीं रखा. अपनी सफाई में कुछ नहीं कहा. मुकदमे की सुनवाई के दौरान भगत सिंह ने दुनी चंद को अपना कानूनी सलाहकार बनाया, लेकिन ये साफ कर दिया कि दुनी चंद न तो किसी गवाह से कोई सवाल करेंगे और न ही कोर्ट में जज से कोई बात करेंगे. भगत सिंह के पिता किशन सिंह ने वायसराय ऑफ इंडिया के सामने याचिका लगाई कि सांडर्स की हत्या के दिन भगत सिंह लाहौर में थे ही नहीं. जब भगत सिंह को पता चला तो उन्होंने अपने पिता पर गुस्सा किया और पत्र लिखकर कहा कि मुझसे मशवरा किए बिना आपको ऐसा पत्र नहीं लिखना चाहिए था. आखिरकार वही हुआ. 7 अक्टूबर, 1930 को सांडर्स की हत्या का दोषी पाते हुए कोर्ट ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई.


और अब बात महात्मा गांधी और नेहरू की कि उन्होंने भगत सिंह को क्यों नहीं बचाया. तो 14 फरवरी, 1931 को पंडित मदनमोहन मालवीय ने वायसराय के सामने अपील की और कहा कि भगत सिंह की फांसी को आजीवन कारावास में बदल दिया जाए. उनकी अपील खारिज हो गई. 16 फरवरी को एक और बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका खारिज हो गई. फिर 18 फरवरी को महात्मा गांधी की वायसराय से बात हुई, जिसमें महात्मा गांधी ने वायसराय से कहा कि उन्हें भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी की सजा खत्म कर देनी चाहिए.


यंग इंडिया में महात्मा गांधी ने लिखा कि वायसराय ने उनसे कहा कि फांसी खत्म करना तो मुश्किल है, लेकिन उसे अभी के लिए टाला जा सकता है. लेकिन वायसराय अपनी बात पर कायम नहीं रहे. 24 मार्च को भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी की तारीख मुकर्रर हो चुकी थी. 19 मार्च को महात्मा गांधी ने वायसराय इरविन के सामने फिर से मुद्दा रखा कि भगत सिंह की फांसी को टाला जाए. लेकिन इरविन ने इनकार कर दिया. दूसरी तरफ महात्मा गांधी ने आसफ अली को भगत सिंह के पास भेजा ताकि भगत सिंह से वादा करवा सकें कि उनकी सजा माफ हो जाएगी तो वो हिंसा का रास्ता छोड़ देंगे.


भगत सिंह ने आसफ अली से मिलने से भी इनकार कर दिया. भगत सिंह अड़े रहे. फिर महात्मा गांधी ने 21 मार्च और 22 मार्च को लगातार दो बार इरविन से बात की. इरविन नहीं माने. 23 मार्च को फिर महात्मा गांधी ने चिट्ठी लिखी. लेकिन जब तक इरविन चिट्ठी पढ़ते, तय तारीख से एक दिन पहले ही 23 मार्च को भगत सिंह को फांसी दे दी गई.


24 मार्च को जब महात्मा गांधी कांग्रेस के कराची अधिवेशन में शामिल होने के लिए पहुंचे तो उनका भयंकर विरोध हुआ. महात्मा गांधी ने कहा- चाहे वो कोई भी हो, उसे सजा देना मेरे अहिंसा धर्म के खिलाफ है, तो मैं भगत सिंह को बचाना नहीं चाहता था, ऐसा शक करने की कोई वजह नहीं हो सकती है. महात्मा गांधी ने कहा- 'मैंने फांसी को रोकने की हर मुमकिन कोशिश की, कई मुलाकातें कीं, 23 मार्च को चिट्ठी भी लिखी, लेकिन मेरी हर कोशिश बेकार हुई.'


और रही बात नेहरू की. तो उन्होंने 12 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह की फांसी से पहले ही एक सार्वजनिक भाषण में कहा था- 'मैं उनसे सहमत होऊं या न होऊं, मेरे मन में भगत सिंह जैसे व्यक्ति के लिए साहस और श्रद्धा भरी है. भगत सिंह जैसा साहब बड़ा दुर्लभ है. वायसराय को अपने दिल से पूछना चाहिए कि अगर भगत सिंह एक अंग्रेज होते और उन्होंने इंग्लैंड के लिए ऐसा किया होता तो उन्हें कैसा अनुभव होता.'


नेहरू ने अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया में भी लिखा है कि भगत सिंह एक प्रतीक बन गए थे. कुछ ही महीनों के अंदर पंजाब के हर शहर और हर गांव के अलावा भारत के बाकी हिस्सों में भी उनका नाम गूंजने लगा था. उन पर अनेकों गीत रचे गए. उन्हें जो लोकप्रियता मिली वो अद्वितीय थी.


और रही बात इसकी कि अगर भगत सिंह की फांसी रुक गई होती तो क्या होता. तो उसका सबसे अच्छा उदाहरण बटुकेश्वर दत्त हैं. भगत सिंह को फांसी सांडर्स की हत्या वाले केस में हुई थी. सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने वाले मामले में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को उम्रकैद हुई थी. भगत सिंह की फांसी के बाद बटुकेश्वर दत्त को काला पानी भेज दिया गया. 15 अगस्त, 1947 को आजादी के बाद नवंबर में उन्होंने शादी की. घर चलाने के लिए एक सिगरेट फैक्ट्री में नौकरी की, खुद की बिस्कुट की फैक्ट्री खोली लेकिन कुछ काम न आया. पटना में बस के परमिट के लिए कमिश्नर से मिलने गए तो कमिश्नर ने उनसे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र तक मांग लिया. 1964 में बटुकेश्वर दत्त गंभीर रूप से बीमार पड़े. उन्हें कैंसर हो गया था. दिल्ली के एम्स में 20 जुलाई, 1965 को आखिरी सांस ली.


बाकी तो आप पर छोड़ते हैं कि अगर भगत सिंह की फांसी रुक गई होती तो क्या होता. आप आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं कि इस देश में आजादी के बाद जिंदा रहे क्रांतिकारियों के साथ क्या सलूक किया गया. बाकी इसका दोषी कौन है, ये एक लंबी बहस है. क्योंकि इस अपराध से न तो किसी राजनेता को बरी किया जा सकता है और न ही हमको और आपको. 


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