उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में शनिवार (15 अप्रैल) देर रात पुलिस कस्टडी में अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की ताबड़तोड़ गोलियां मारकर हत्या हो गई. हाई प्रोफाइल अपराधी की इस तरह से हत्या के बाद पुलिस सुरक्षा के ऊपर सवाल उठ रहे हैं. ऐसे में यह भी सवाल उठ रहा है कि कोर्ट इस मामले पर पुलिस और आरोपियों के ऊपर क्या कार्रवाई करेगी? कोर्ट इसे कैसे लेगी? क्या है कानूनी प्रक्रिया? मृत्यु और हत्या दोनों में अंतर है. हत्या चाहे जेल में हो, पुलिस कस्टडी हो या रोड पर हो हत्या, हत्या होती है. ये हमेशा गैर कानूनी होती है.


15 अप्रैल को जो घटना हुई है उसमें यह भी नहीं कहा जा सकता है कि इसमें पुलिस का कोई रोल है. ये भी नहीं कहा जा सकता है कि जो नेता हैं, वो चाहे मुख्यमंत्री हो या मंत्री उनका कोई दोष है. हमारे देश में सिस्टम का दोष है. इसे आप सिस्टेमिक फेल्योर कह सकते हैं. चूंकि जब अपराधी जेल में जाता है तो कोई रूल और रेगुलेशन नहीं है. इसके तहत पेशी होने के लिए कोई नियम नहीं है.


जज साहब के सामने जब पेशी होने के लिए किसी दुर्दांत अपराधी को लाया जाता है, उस वक्त भी विधि-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए नियम-कानून होना चाहिए. लेकिन दुर्भाग्य से सुप्रीम कोर्ट से लेकर लोअर कोर्ट तक किसी तरह का कोई लॉ नहीं है कि जब दुर्दांत अपराधी जेल में लाया जाता है तो किस तरीके से लाया जाना चाहिए. कौन उसको एस्कॉर्ट करेगा. चूंकि कल जब उसे मेडिकल चेकअप के लिए अस्पताल लाया गया उसकी सुरक्षा स्थानीय पुलिस के हाथों में थी. मेरा मानना है कि लोकल पुलिस जो है वो लोकल की तरह ही ट्रीट करती है. सुरक्षा की जो व्यवस्था होनी चाहिए वो उच्च स्तरीय होने चाहिए. इसलिए इसमें सिस्टमेटिक फेल्योर की बात है. किसी राजनीतिक पार्टी, नेता या किसी और को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. यह दुखद घटना है और यह एक एक्सीडेंट है.


कल्पेबल होमीसाइड नॉट अमाउंटिंग टू मर्डर के तहत कार्रवाई


जहां तक कोर्ट प्रोसिडिंग की बात है और अकाउंटेबिलिटी है वो सबके लिए समान है. जनता के लिए अकाउंटेबिलिटी होती है, तो पुलिस की भी बनती है. हत्या का मुकदमा का केस 302 पुलिस वालों पर नहीं लगेगा. यह आरोपियों पर लगेगा. पुलिस वालों पर एक नेग्लिजेंस का केस जरूर बन सकता है. चूंकि उचित स्तर पर जो है, इनकी जितनी विजिलेंस होना चाहिए था वो पुलिस वालों ने नहीं किया . कस्टडी में जब कोई अपराधी होता है तो वो उनकी संपत्ति हो जाती है. अपनी संपत्ती को डैमेज करा देने पर उस आदमी का उत्तरदायित्व बनता है, जिसको प्रॉपर्टी सौंपी गई थी. उसका उत्तरदायी कोर्ट उन्हें ठहराएगा. इसके लिए एक अलग से केस बनेगा कि कौन-कौन से लोग इसमें शामिल थे. दो तरह का केस होता है. एक कल्पेबल होमीसाइड होता है और दूसरा कल्पेबल होमीसाइड नॉट अमाउंटिंग टू मर्डर होता है. कल्पेबल होमीसाइड होता है कि कोई मकसद से साथ जब हत्या की जाती है. लेकिन कल्पेबल होमिसाइड नॉट अमाउंटिंग टू मर्डर कहता है कि हत्या तो हुई है लेकिन ऐसा होने देने या करने का कोई इंटेंशन नहीं था. इस तरह के मामले पुलिस के ऊपर चलेंगे. 304 का मुकदमा पुलिस के ऊपर चलेगा.


इसमें किसी भी तरह की कोई शंका नहीं होनी चाहिए क्योंकि हत्या हुई है, वो चाहे किसी की भी हो, वो आम आदमी हो या अपराधी. चूंकि हम एक प्रजातंत्र हैं और यहां पर किसी अपराधी को जवाब अपराध से नहीं दिया जाना चाहिए. प्रजातंत्र में संविधान सर्वोपरि है, रूल ऑफ लॉ और supremacy of court है. मुझे लगता है कि इस तरह की हत्या की निंदा की जानी चाहिए. इसे दुर्भाग्यपूर्ण कहा जाना चाहिए. इसमें जो भी दोषी हैं, उन्हें कड़ी से कड़ी सजा मिले ताकि लोगों को एक संदेश मिले  कि आगे से इस तरह की घटना नहीं हो. अस्पताल में इस तरह की घटना हो जाती है, कोर्ट में घटना हो जाती है और पुलिस स्टेशन में घटना हो जाती है. ऐसे में रूल ऑफ लॉ कहां है.


जिस तरीके से वो पिस्टल लेकर मार रहा था क्या क्रॉस फायरिंग नहीं किया जा सकता था. एक सिंबॉलिज्म भी बहुत बड़ी चीज होती है. प्रधानमंत्री मोदी सिंबॉलिज्म पर बहुत विश्वास करते हैं. जब बड़े लोग और शासन के लोग सिंबॉलिज्म करते हैं तो उसका जनता पर बहुत प्रभाव पड़ता है. जहां तक आरोपियों की बात है तो उन पर कॉन्स्पिरेसी करने, आईपीसी की धारा-323 (स्वेच्छा से चोट पहुँचाने के लिए सजा), धारा-324 (किसी भी अपराध के लिए पुलिस अपराधी को बिना किसी वारंट या अदालत की अनुमति के गिरफ्तार कर सकती है) और भी कई धाराएं लग सकती हैं.


पांच से सात दिनों में ट्रायल हो जाना चाहिए


इसमें कोई प्रूफ की जरूरत भी नहीं है. पूरे देश ने इस घटना को होते हुए देखा है. इसमें ट्रायल की कोई बहुत बड़ी भूमिका नहीं होगी. इसमें मुश्किल से पांच से सात दिनों में ट्रायल हो जाना चाहिए. चूंकि अपराधी खुद अपने अपराध को स्वीकार कर रहा है और सब कुछ कैमरे में कैद हो गई है. इसलिए ट्रायल लंबा नहीं चलेगा.


हमें लगता है कि जस्टिस सिस्टम को रिफॉर्म करने की भी जरूरत है, क्योंकि अगर समय पर सजा नहीं सुनाई गई तो लोगों में निराशा होगी. कोविड के समय अमेंडमेंट आया था. वीडियो फुटेज को सबूत के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए 65A का सर्टिफिकेट लगता है. चूंकि इस परिस्थिति को तो सभी ने देखा है. जब पुलिस कस्टडी में किसी को मार दिया जाए, इससे बड़ी बात और कुछ नहीं हो सकता है. वो अपराधी के साथ-साथ राजनेता भी था, उसे हथकड़ी नहीं लाया जाना चाहिए था. सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे लेकर गाइडलाइन दिया है. हो सकता था कि अगर हथकड़ी नहीं लगी होती तो अशरफ की जान बच सकती थी. चूंकि दोनों को हथकड़ी लगाया हुआ था इसलिए कोई भाग नहीं सकता था. ये बातें पुलिस के ऊपर सवाल खड़ा करती हैं. मुझे लगता है अभी तक जिन पुलिसकर्मियों को सस्पेंड किया गया है, कार्रवाई उनके ऊपर नहीं बल्कि ऊपर के अधिकारियों पर होना चाहिए.


मैं आपके माध्यम से ऑनरेबल चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़ को बोलना चाहता हूं कि- आज समय आ गया है कि सोशल मीडिया को नियंत्रित किया जाए. अगर ये रेग्युलेट हो जाता तो ये सिस्टम कोलैप्स नहीं होता. मुझे लगता है तीनों को अधिकतम सजा दी जाएगी.


(ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)