गुजरात, हिमाचल प्रदेश के विधानसभा और दिल्ली नगर निगम के चुनावों के बाद आये तमाम एग्जिट पोल के नतीजों पर गौर करें, तो गुजरात की जनता एक नया राजनीतिक इतिहास रचने जा रही है, जो पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा के सबसे लंबे कार्यकाल के रिकॉर्ड को तोड़कर रख देगा. पिछले 27 सालों से सत्ता पर काबिज बीजेपी वहां लगातार सातवीं बार सरकार बनाने की दहलीज़ पर तो खड़ी ही है लेकिन हैरानी की बात ये है कि पार्टी खुद अपने पिछले सारे रिकॉर्ड ध्वस्त करते हुए इस बार सबसे अधिक सीटें लेती दिख रही है. 


एक सर्वे में उसे 128 से 148 सीटें मिलने का अनुमान लगाया है, जो उसे पहले कभी नहीं मिली. बता दें कि साल 2017 के चुनाव में बीजेपी को 99 जबकि कांग्रेस को 77 सीटें मिली थीं. लेकिन इस बार आम आदमी पार्टी के मैदान में कूदने से मुकाबला त्रिकोणीय होने के बावजूद बीजेपी को अगर इतना बड़ा फायदा होता दिख रहा है,तो उसकी बड़ी वजह ये है कि बेशक आप को कुछेक सीटें ही मिलें लेकिन वह कांग्रेस के वोट बैंक में बड़ी सेंध लगाने में कामयाब हुई है. बीजेपी भी यही चाहती थी, इसलिये कहना गलत नहीं होगा कि सर्वे के अनुमान यदि चुनावी नतीजों के आसपास ही रहे, तो बीजेपी के लिये ये अब तक कि सबसे बड़ी सौगात होगी. 


लेकिन गुजरात में नया इतिहास रचने जा रही बीजेपी के सामने एक बड़ा सवाल ये है कि "मोदी मैजिक" का यही असर हिमाचल प्रदेश और राजधानी दिल्ली के नगर निगम में भी आखिर अपना असर क्यों नहीं दिखा पाया? ये सवाल इसलिये कि लगभग तमाम सर्वे के नतीजों के मुताबिक हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस को इतनी सीटें मिल सकती हैं कि वो अपने बूते पर वहां सरकार बना सकती है. वैसे भी हिमाचल में ये पुराना रिवाज चला आ रहा है कि वहां की जनता हर पांच साल बाद अपनी सरकार बदल देती है.


इसलिये सर्वे के आंकड़ों के लिहाज से तो हिमाचल के लोगों ने उसी परंपरा को कायम रखते हुए मतदान किया है. अगर चुनावी नतीजे भी इन्हीं सर्वे के मुताबिक ही आते हैं,तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत पूरे बीजेपी नेतृत्व को इस पर गंभीरता से मंथन करना होगा कि गुजरात से बाहर उनका "जादुई करिश्मा" फ़ैल होने की क्या वजह थी और इस पहाड़ी राज्य की जनता बीजेपी सरकार से आखिर क्यों नाराज थी. 


अगर राजधानी दिल्ली के निगम चुनाव की बात करें,तो बीजेपी और कांग्रेस मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को बेशक कमजोर मानने के मुगालते में थी लेकिन जमीनी हकीकत ये है कि चुनाव तारीख का ऐलान होने से पहले ही आप ने अपने पक्ष में मजबूत हवा बना ली थी.


सभी एग्जिट पोल के नतीजों ने भी उसे सही मानते हुए आप की सरकार बनने का ही दावा किया है. तमाम सर्वे का औसत निकालें ,तो आप को अधिकतम 170 सीटें मिलने का अनुमान जताया गया है. यानी 250 सीटों वाले निगम के सदन मे केजरीवाल की आप ने दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टीयों को महज 80 सीटों पर सिमटने और उसमें ही अपना बंटवारा करने पर मजबूर कर दिया है. 


हालांकि बीजेपी पिछले 15 साल से निगम की सत्ता पर काबिज़ है,लिहाज़ा अगर इस बार उसे हार का मुंह देखना पड़ता है,तो पार्टी नेताओं के पास ये तर्क होगा कि इतने सालों तक सत्ता में बने रहने से उपजी एंटी इनकम्बेंसी का ही ये परिणाम था. सवाल उठता है कि अगर गुजरात में 27 साल बाद भी ये फैक्टर काम नहीं कर पाया,तो दिल्ली में 15 साल ही में लोगों ने उसे क्यों नकार दिया?


हालांकि किसी के पास इसका भी जवाब नहीं होगा कि पिछले कुछ सालों में राजधानी को कूड़े के ढेर में बदलने के लिए आखिर कौन जिम्मेदार था? निगम में फैले भ्रष्टाचार और इसी मसले को केजरीवाल ने अपने पक्ष में भुनाते हुए लोगों को ये यकीन दिलाने में सफलता पाई कि दिल्ली में छोटी सरकार भी यदि आप की ही होगी, तो राजधानी की सूरत ही कुछ और होगी. 


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