हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने मुस्लिमों को सीधा संबोधित करते हुए आत्मचिंतन करने के साथ कई और सलाह दी. यह शायद पहला मौका है, जब देश के किसी प्रधानमंत्री ने खुलकर इस तरह मुसलमानों से सीधी बात की है, अपील की है. उन्होंने मुसलमानों को किसी पार्टी का वोटबैंक या बंधक बनने की जगह खुले दिमाग से सोचने की नसीहत दी. वैश्विक स्तर पर मुसलमानों की स्थिति को बताते हुए नरेंद्र मोदी ने यह भी कहा कि वक्त आ गया है कि मुसलमान आत्म-मंथन करें और देश की मुख्यधारा में शामिल हों. 


मुसलमान का मतलब वोटबैंक


भारत में 19 वीं सदी के उत्तरार्द्ध और 20 वीं सदी की शुरुआत से मुस्लिमों को उनके नेताओं और कुछ खास दलों ने अपने वोटर और समर्थन के लिए आधार की तरह विकसित किया था. आजादी के बाद ये और तेजी से बढा. इसका आरोप भी कांग्रेस पर लगता है, क्यूंकि सरकार में कांग्रेस थी,  कांग्रेस की जबाबदेही भी बनती है.  जैसे कांग्रेस ने मुस्लिम समुदाय को वोट बैंक में तब्दील किया जिसके कारण मुस्लिम समुदाय वोट करता रहा फिर कुछ समय बाद राजद ,समाजवादी पार्टी, बंगाल में टीएमसी जो कांग्रेस का एक्सटेंशन हैं, ऐसे ही केरल, पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों ने भी मुस्लिमों को वोटबैंक बनाया.


इसके बदले हालांकि मुसलमानों को मिला कुछ नहीं. उनकी नियति वोटबैंक बने रहने की मात्र बन गयी. वोटबैंक तो कांग्रेस के लिए तैयार था, लेकिन कांग्रेस की बनाई राजिंदर सच्चर कमिटी की रिपोर्ट ने 'मुस्लिमों के वोट बैंक बनने के बाद उन्हें क्या मिला'- सवाल का जबाब दिया. राजिंदर सचर कमिटी की रिपोर्ट के अनुसार मुस्लिमों को इस सब के बाद कुछ नहीं मिला. वहीं दूसरे समुदायों का विकास हमें देखने को मिला है. मुस्लिम समुदाय जो राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस और किसी इलाके में एक खास पार्टी का बंधक वोटर बना रहा उसको बहुत कुछ मिला नहीं, शिक्षा के स्तर से, जनसंख्या वृद्धि तक.



मुसलमान और जनसंख्या


जनसंख्या वृद्धि को इन दलों ने मुसलमानों के अस्तित्व और विकास से जोड़ा जबकि एक सीमा के बाहर जनसंख्या वृद्धि समाज और देश के विकास में रोड़ा बनती है. इन सवालों पर ही प्रधानमंत्री ने मुस्लिम समुदाय को आत्मचिंतन करने की सलाह दी है. ये ऐसा है जैसे मुसलमानों से पूछना कि आप लोग जिनके वोट बैंक बने रहे उसका फायदा राष्ट्रीय स्तर पर क्या मिला? एक सीधी लकीर की तरह वोट डालना वो भी कथित हिन्दू वर्चस्व और हिन्दू विरोध के नाम पर साथ ही राष्ट्रवादी दलों जैसे बीजेपी के खिलाफ मुसलमान वोट करते हैं, यह एक गलत ट्रेंड है.


प्रधानमंत्री इस सब पर मुस्लिम समुदाय से आत्ममंथन करने को कह रहे हैं. मुस्लिम समुदाय के कुछ प्रखर बुद्धिजीवी जैसे हिलाल अहमद, आरिफ मुहम्मद खान वगैरह इन सवालों को उठाते रहे हैं. आरिफ मुहम्मद खान वही हैं जिन्होंने राजनीति की शुरुआत कांग्रेस से की, साथ ही समाजवादी धड़े में भी रहे. वह भारत की राजनीति को धार्मिक आधार पर बदलने वाले शाह बानों प्रकरण के दौरान से ही चर्चित शख़्सियत रहे हैं.


मुस्लिम समुदाय में तीन तलाक और हलाला के खिलाफ मुखरता से आवाज़ उठाने वाले लोग भी उभर कर सामने आ रहे हैं. जो बुद्धिजीवी कांग्रेस समर्थक और  सोशलिस्ट समर्थक रहे थे आज वे सवाल उठा रहे हैं कि मुस्लिमों को वोट बैंक बनने का क्या फायदा हुआ, क्या वे केवल एक दल के विरोध के नाम पर एक ख़ास पार्टी को वोट दें और बदले में भुखमरी, गरीबी,अशिक्षा को ही झेलते रहें? प्रधानमंत्री की अपील बहुत प्रभावी है और ये सवाल समाज के कई वर्गों की ओर से उठने भी लगे हैं.


आंख मूंद कर न हो वोटिंग


अगर मुस्लिम समुदाय एक ख़ास दल के पीछे आँख मुंद कर चलने के लिए तैयार ना होता तो कारसेवकों पर हमले के बाद हुए गोधरा दंगे भी शायद इतने भयावह नहीं होते. साथ ही एक खास नैरेटिव को गढ़ने की कोशिश भी नही होती. हालांकि इसकी शुरुआत 2002 गुजरात दंगे से पहले 1992 में हुई थी. 1992 और 2002 के बाद मुस्लिमों का रहनुमा बनकर उनको अपने खेमे में लाने की चौतरफा कोशिश हुईं. इस कोशिश के कारण मुस्लिम समुदाय बहुसंख्यक समुदाय की तुलना में आक्रामक होता गया. वही आक्रामकता व्यक्ति को वोट और आंदोलन करवाती है. 


बीजेपी की सरकार के आने के बाद मुस्लिमों को डराया गया कि वे इस देश में नहीं रह सकते, उनको भगाया जाएगा, उनकी नागरिकता छीनी जाएगी, इस काल खंड के दौरान वह थोक वोट बैंक बने रहे.  इसके सब के बाद भी पहले जैसी घटनाएं नहीं हुईं.  बीजेपी सरकार ने  छात्रवृत्ति ,शौचालय ,आवास से  जुडी सरकारी योजना में मुस्लिमों से भेदभाव नहीं किया.


इस उपलब्धि के कारण ही प्रधानमंत्री मोदी की स्थिति बनी है मुसलमानों से सीधा संवाद करने और ये सब कुछ कहने की. मोदी की अगर यह उपलब्धि नहीं होती तो ऐसे में मुस्लिम वोट बैंक की रहनुमाई करने वाले दल भी तब सवाल उठाते. विचारों के बंधन में जकड़ा समुदाय भी जब इसका विरोध करता.  मुझे लगता है सुधारों की शुरुआत हुई है और सुधारों की शुरुआत कहीं ना कहीं से करनी पड़ती है, सुधारों की शुरुआत अगर बड़े और व्यापक तरीके से होती है तो ऐसे में इस वैचारिकी में बदलाव आएगा. अभी ये शुरुआत है. अगर यह शुरुआत होगी तो इसके कारण जिन दलों ने मुस्लिमों  वोट बैंक को बंदी बनाया था उनके अस्तित्व पर सवाल किये थे, खुद उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा.



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