एक मशहूर शायर ने कभी कहा था कि अगर किसी जगह दंगा-फसाद हो रहा हो, तो समझिए कि चुनाव नजदीक हैं. हाल ही में एक बार फिर से भाषा के नाम पर उत्तर और दक्षिण को लड़ाने का काम हो रहा है, हिंदी के नाम पर फिर से तलवारें तेज की जा रही हैं, हालांकि इस बार फर्क केवल इतना है कि हिंदी के विरोध में ही श्मशीरें तेज हो रही हैं, हिंदी के नाम पर कोई बलवा नहीं कर रहा है. तमिलनाडू के मुख्यमंत्री स्टालिन की केंद्र से रस्साकशी नयी नहीं है, राज्य में चुनाव आसन्न हैं तो वह एक बार फिर हिंदी विरोध के नाम पर अपनी राजनीति चमका रहे हैं, उनके गुर्गे हिंदी के बोर्ड्स को, नामपट्टों को कालिख पोत रहे हैं, लेकिन स्टालिन यह भूल जाते हैं कि उनके ये कदम देश को कितना कमजोर करेंगे या कर रहे हैं. 

हिंदी विरोध की राजनीति

राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं अपने वर्चस्व को साबित करने के लिए मनुष्य की अलग-अलग सहज प्रवृत्तियों का  शोषण करती हैं और पोषण भी करती हैं. भाषा एक ऐसी चेतना है जो मनुष्य को आपस में जोड़ती है. भाषा का एक स्तर है. भाषा के कारण बांग्लादेश जैसा  एक देश बन गया. भाषाएं महत्त्वपूर्ण है हमारे जीवन में. भाषा के महत्व को, इसकी राजनीति को हमारे नेता समझते हैं. जब राज्यो का पुनर्गठन हुआ तो वहां भी भाषा के आधार पर किया गया. भाषा के बिना शिक्षा का कोई स्वरूप नहीं बनेगा. भाषाओं के विशेष संदर्भ में पहली बार 1964 में कोठारी कमीशन बना था. उसने कहा था कि तीन भाषाएं होंगी और संस्कृत को तो सोर्स (यानी मूल) के रूप में लिया कि भारत के संदर्भ में संस्कृत को लेना चाहिए, लिए बिना काम नहीं चलेगा.

1968 में पहली शिक्षा नीति देश में बनी. उसमें तीन भाषाओं की शिक्षा-दीक्षा का विचार औपचारिक रूप से पेश किया गया. पहली एक भारतीय मुल्क की भाषा जिसका अर्थ लगाया गया हिन्दी. दूसरा कहा गया क्षेत्रीय भाषा होगी यानी तमिल, तेलुगु, उड़िया, बंगाली इत्यादि, और तीसरी भाषा अंग्रेजी भाषा होगी. इन तीन भाषाओं में शिक्षा की व्यवस्था होगी और आठवीं कक्षा तक तीनों भाषाओं को पढ़ाना चाहिए. इस मामले पर उसी समय से हिंदी विरोध का एक परचम लगाया गया. क्योंकि आजाद हुए देश में हर भाषाई समूह अपने–अपने वर्चस्व के लिए संघर्षरत था. आगे की राजनीति तय करनी थी और मुद्दा कोई नहीं था तो भाषा को मुद्दा बनाया गया. और दक्षिण भारत में व्यापक पैमाने पर भाषा संबंधी आंदोलन हुए. इसमें सरकार को यह आश्वासन देना पड़ा कि जो भारतीय मुल्क की भाषाएं हैं उसमें हम हिंदी को इंपोज नहीं कर रहे हैं या थोप नहीं रहे हैं. प्रस्ताव को थोड़ा डाइल्यूट किया गया और तीन भाषाएं रह गयीं.

उसी समय यह तय किया गया कि उत्तर भारत के जो राज्य हैं वह दक्षिण राज्य की भाषाओं को भारतीय मुल्क की  भाषा के रूप में लेंगे और पढ़ाएंगे. और जो दक्षिण भारत के राज्य हैं वह उत्तर भारत की भाषाओं को भाषा के रूप में लेंगे और पढ़ाएंगे. ताकि एक राष्ट्रीय स्तर पर हम सांस्कृतिक आदान प्रदान कर सकें. इस मामले में दोनों ओर से गलतियां हुई. उत्तर भारत के केवल एक राज्य हरियाणा ने थोड़े समय के लिए तेलुगु भाषा को लागू किया. किसी और राज्य ने  दक्षिण मूल की भाषा नहीं चुनी, बल्कि इसके बजाय उन्होंने या तो पंजाबी, उर्दू या संस्कृत चुन ली.  हिन्दी और इंग्लिश को जस का तस रखा गया. दक्षिण भारत ने भी कहा एक तो हमारी मातृभाषा तमिल, तेलुगु, या कन्नड़ हो जाएगी. दूसरा उन्होंने कहा अंग्रेजी हो जाएगी. और तीसरे के लिए या तो संस्कृति रखा या दक्षिणी राज्यों की ही किसी दूसरी भाषा को ही रखा गया. उत्तर भारत की भाषाओं को उन्होंने भी एडॉप्ट नहीं किया. केंदीय संस्थान ने जिनको राष्ट्रीय भाषा कहते हैं अंग्रेजी या हिंदी इसके ऑप्शन को हमेशा ओपन रखा. और ताजुब की बात है कि दक्षिण भारत में, खासकर तमिलनाडु में हिंदी पढ़ाए जाने वाले विद्यालयों में सबसे ज्यादा एडमिशन के लिए मारा मारी थी. हाँ, राजनेता ठीक इसके विपरीत चल रहे थे. लेकिन सबसे बड़ी बात है कि मातृभाषा को महत्व मिले इस बात पर ज्यादा तर सरकारों ने ध्यान नहीं दिया. 

नई शिक्षा नीति 2020 और मातृभाषा   

पहली बार जब 2020 में नई शिक्षा  नीति आई उन्होंने कहा कि ये जो भाषाई अंतर है इसको हमें आगे बढ़कर मजबूत करना है, क्योंकि जो लेयरिंग प्रोसेस है वह मातृभाषा में बेहतर होगा. उन्होंने भी मातृभाषा फार्मूला ही दिया. क्योंकि पिछला फार्मूला फेल हो गया था. उसको रिपीट करने का कोई फायदा नहीं था, क्योंकि सब अपनी–अपनी मान्यताओं में जकड़े हुए थे. खुल कर दूसरे को स्वयं की जगह देना या अपने आप पर गर्व करना, यह दोनों ही बातें अब तक की शिक्षानीति में नहीं थी. तो कहा गया कि पहले अपने पर गर्व करो. जो पांचवी तक की शिक्षा होगी, वो मातृभाषा में ही होगी. और वह सबसे महत्वपूर्ण भाषा होगी. तो दक्षिण भारतीय के किसी भी राज्य को इसमें कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए. उन्होंने कहा दूसरी भाषा जो होगी कोई भी भारतीय मूल की दो भाषाएं होगी और तीसरी अंग्रेजी या और कोई रख लो. तो, तीन भाषाओं में पहले मातृभाषा ही रहेगी और वह हमेशा प्रथम रहेगी, आगे रहेगी. दूसरी भाषा हिन्दी या अंग्रेजी हो सकती है. और तीसरी भाषा कोई भी भारतीय मूल की भाषा हो सकती है.

इसमें न तो थोपने की बात है, न ही किसी भाषा के अपमान की बात है. दरअसल, यह राजनीति की बात है. साल भर के अंदर स्टालिन को चुनाव झेलना है और वह इसी की तैयारी में बेचारी भाषा को बदनाम कर रहे हैं. 

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]