अफगानिस्तान में तालिबान का राज है जिसे आतंक फैलाने की सबसे बड़ी चरागाह इसलिए माना जाता है कि वो सबसे खूंखार आतंकी संगठन अल कायदा का बड़ा सहयोगी रहा है. लेकिन वहां बनी सरकार को भारत समेत तमाम ताकतवर मुल्कों ने अभी तक मान्यता नहीं दी है. पर, अमेरिका की एक अदालत के दिए फैसले के बाद तालिबान का हौंसला सातवें आसमान पर आ पहुंचा है. इसलिए सवाल ये उठ रहा है कि अमेरिकी सरकार इस फैसले के ख़िलाफ़ वहां की सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाएगी या फिर 3.5 अरब डॉलर की रकम तालिबान को ऐसे ही सौंप देगी?


दरअसल, 15 अगस्त 2021 को अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के बाद तालिबान ने पूरे मुल्क पर कब्जा कर के वहां इस्लाम लॉ घोषित कर दिया था. उसी दौरान अमेरिका ने अफगान सेंट्रल बैंक में रखे 7 अरब डॉलर सील कर लिए थे जिसके चलते विदेशी सहायता पर निर्भर अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई थी. लेकिन पिछले साल यानी फरवरी 2022 में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ये ऐलान किया था कि जब्त किए गए पैसों को दो भाग में बांटा जाएगा. इसमें से एक हिस्सा अफगानिस्तान को मदद के तौर पर दिया जाएगा और एक हिस्सा 9/11 हमले के पीड़ितों की मदद में इस्तेमाल होगा.


लेकिन अमेरिका में न्यूयॉर्क स्थित साउथ डिस्ट्रिक्ट जज जॉर्ज डेनियल ने मंगलवार (21 फरवरी) को जो फैसला सुनाया है वो अमेरिका समेत बाकी दुनिया के लिए भी चौंकाने वाला है. जज ने कहा है कि फेडरल कोर्ट के पास अफगानिस्तान के सेंट्रल बैंक से धन को जब्त करने का अधिकार नहीं है. डेनियल्स की राय में लेनदारों को हुए नुकसान के लिए भरपाई करने का पूरा अधिकार तो है लेकिन वे अफगानिस्तान के सेंट्रल बैंक के धन से ऐसा नहीं कर सकते हैं. फेडरल कोर्ट के जज डेनियल्स ने अपने फैसले में साफतौर पर कहा है कि कोर्ट के पास अफगानिस्तान सेंट्रल बैंक के पैसे को जब्त करने का अधिकार नहीं है. उन्होंने अपने 30 पेजी फैसले में ये भी लिखा है कि- तालिबान को अमेरिका के इतिहास में हुए सबसे खतरनाक हमले की जिम्मेदारी लेते हुए खुद मुआवजा भरना चाहिए लेकिन अमेरिका अफगान सेंट्रल बैंक के पैसों को जब्त नहीं कर सकता है. अगर उन्होंने ऐसा किया तो इसका सीधा मतलब यही होगा कि अमेरिका तालिबान सरकार को मान्यता दे रहा है.


जानकर मानते हैं कि यही वो पेंच है जिसने अमेरिका सरकार को फंसा दिया है. इसलिए कि या तो वो इस रकम को तालिबानी सरकार को रिलीज करे या फिर उसे ये मानना पड़ेगा कि वह तालिबान सरकार को मान्यता देने को राजी हो गया है. मोटे तौर पर तो इस फैसले से यही साफ होता है कि तालिबान और अमेरिका दोनों ही कर्ज चुकाने के लिए अफगानिस्तान की संपत्ति का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं. अमेरिका के एक समूह ने सालों पहले तालिबान पर 9/11 के दौरान हुए कुछ पीड़ित परिवारों की तरफ से तालिबान के ख़िलाफ़ मुकदमा दायर किया था और वे जीत भी गए थे. पीड़ित परिवार मुआवजे के साथ ही इन पैसों से केस के दौरान लिए गए कर्ज को भी चुकाना चाहते थे.


बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जज का फैसला उन लोगों के लिए हार है जिन्होंने न्यूयॉर्क में फेडरल रिजर्व बैंक में अफगानिस्तान के केंद्रीय बैंक के 7 अरब डॉलर के फंड पर दावा किया था. पीड़ितों के मुआवजे के लिए दलील देने वाले वकील ली वोलोस्की ने कहा, “यह फैसला 9/11 समुदाय के 10,000 से ज्यादा सदस्यों को तालिबान से मुआवजा लेने के उनके अधिकार से वंचित करता है. हम मानते हैं कि यह गलत फैसला लिया गया है, हम आगे अपील करेंगे.’’ बता दें कि अमेरिका बेशक सबसे ताकतवर मुल्क हो लेकिन वहां कोई भी कानूनी लड़ाई लड़ना सबसे महंगा सौदा है जो एक आम व्यक्ति के तो बूते से ही बाहर है. इसलिए विश्लेषकों का आकलन यही है कि अमेरिकी सरकार को इस फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत में दस्तक देनी ही पड़ेगी. अगर ऐसा जल्द न हुआ तो तालिबान का हौंसला तो बढ़ेगा ही बल्कि वो दुनिया के आगे ये भी ढिंढोरा पिटेगा कि अमेरिका ने उसका 3.5 अरब डॉलर हड़प किया हुआ है जिसका मतलब है कि वो अफगान की तालिबानी सरकार को मान्यता देता है.


इसकी आवाज भी उठने लगी है क्योंकि अमेरिकी अदालत के इस फैसले का तालिबानियों ने दिल खोलकर स्वागत किया है. तालिबान सरकार के प्रवक्ता बिलाल करीमी ने कहा- ये तालिबान की संपत्ति है. अमेरिका को इसको जब्त करने का कोई अधिकार नहीं है. इन पैसों को बिना किसी शर्त के अफगानिस्तान की जनता को तुरंत लौटाना चाहिए. लेकिन इतिहास का एक बड़ा सच ये भी है कि दशकों पहले अफ़ग़ानिस्तान के स्थानीय गुरिल्ला लड़ाकों के समूहों ने सालों तक अमेरिकी समर्थन के सहारे सोवियत संघ के ख़िलाफ़ झंडा उठाए रखा. अमेरिका ने उन्हें हथियार और पैसे मुहाये कराए थे ताकि उसके दुश्मन सोवियत संघ के मंसूबों को नाकाम किया जा सके. लेकिन उस वक़्त जिन लोगों ने 'ऑपरेशन साइक्लोन' का समर्थन किया था, उन्हें इसका कभी अफसोस नहीं रहा. 


हालांकि उस वक़्त के मीडिया ने इसे अमेरिकी इंटेलिजेंस एजेंसी 'सीआईए के इतिहास का सबसे बड़ा ख़ुफ़िया अभियान' क़रार दिया था. अमेरिका के दिवंगत राष्ट्रपति जिमी कार्टर के नेशनल सिक्योरिटी एडवाइज़र रहे ज़बिगन्यू ब्रेज़ेज़िस्की ने एक फ्रांसीसी पत्रिका को दिए इंटरव्यू में कहा था, "दुनिया के इतिहास में कौन सी बात ज़्यादा मायने रखती है? तालिबान का उदय या सोवियत संघ का पतन? इससे पता चलता है कि उस वक़्त के सोवियत संघ को कई टुकड़ों में बांटने के लिए अमेरिका ने अफगान में इन्हीं लड़ाकों को पैसा और हथियार देकर उन्हें आगे किया था. बताते हैं कि अफगानिस्तान से सोवियत संघ के सैनिकों की वापसी शुरू होने के महज़ आठ साल बाद साल 1996 में तालिबान ने काबुल पर फ़तह हासिल कर ली और अफ़ग़ानिस्तान पर एक इस्लामी कट्टरपंथी निज़ाम थोप दिया गया, जिसकी दुनिया भर में मानवाधिकार उल्लंघन को लेकर आलोचनाएं होती रही हैं. 


सच तो ये है कि साल 1994 तक अफ़ग़ानिस्तान के दक्षिणी शहर कंधार में तालिबान का नाम भी कम ही लोगों ने सुना था. ये वो लोग थे जो मदरसों में ट्रेन हुए थे. ये पख़्तून मूल के नौजवान थे जो खुद को तालिब (छात्र) लड़ाके कहते थे और आहिस्ता-आहिस्ता कंधार में इनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी. जाहिर है कि अमेरिका ने अपने सबसे बड़े दुश्मन सोवियत संघ को शिकस्त देने के लिए 90 के दशक में ही ऐसे लड़ाकों की फौज खड़ी कर दी थी जो बाद में तालिबान के रुप में दुनिया के सामने आया. विशेषज्ञ मानते हैं कि "तालिबान के उदय होने तक सोवियत संघ का पतन हो चुका था. लेकिन ये सच है कि तालिबान की स्थापना में शामिल कुछ लीडर उन वॉर लॉर्ड्स में शामिल थे जिन्हें सोवियत संघ के ख़िलाफ़ लड़ाई के वक़्त अमेरिकी मदद मिली थी." लेकिन अब वही अमेरिका उसी तालिबान का कर्ज़दार बन गया है. इसलिये दुनिया की निगाह इस पर है कि अब वो क्या करता है?


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