इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि शाही ईदगाह मस्जिद को एडवोकेट कमिश्नर की निगरानी में सर्वे कराने की याचिका को मंजूरी दे दी. अब सर्वे का क्या तरीका अपनाया जाए इस पर कोर्ट की तरफ से 18 दिसंबर को फिर सुनवाई होगी. लेकिन जहां तक मेरा मानना है तो ये फैसला किसी भी लिहाज से ठीक नहीं है. ये प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट के पूरी तरह से खिलाफ है. 


जब ये कानून स्पेशल वर्शिप एक्ट लाया गया था, उसके पीछे की वजह थी जब बाबरी ढांचे को ध्वस्त किया जाना और उसके बाद देशभर में भड़की साम्प्रदायिक हिंसा. इस पूरे चूंकि मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने भी कड़ा रुख अपनाया था, जिसके बाद सरकार ने ये कानून लाकर ये वादा किया था कि 1947 में जो धार्मक स्थलों की भी स्थिति थी, वो यथास्थिति बरकरार रखी जाएगी. उसका नेचर नहीं बदला जाएगा और न ही उसके मालिकाना हक को लेकर किसी तरह का कोई सूट दाखिल किया जाएगा. इसके साथ ही, जो बाबरी मस्जिद का जजमेंट आया, उसमें पांच सदस्यीय बेंच ने काफी कुछ लिखा भी था. इस लिहाज से इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला किसी भी लिहाज से न्यायोचित नहीं है.


स्पेशल वर्शिप एक्ट का उल्लंघन


अगर सवाल ये उठता है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने शाही ईदगाह मस्जिद सर्वे की याचिका को स्वीकार कर लिया तो उस सर्वे का प्वाइंट क्या है. अगर उस सर्वे में मान लीजिए कि कुछ भी निकलता है तो उसका प्वाइंट क्या है, जबकि कानून ये कहता है कि वाद दाखिल नहीं किया जा सकता है. बाबरी डेमोलिशन की तरह तो होगा नहीं. ऐसे में आपको ये देखना है कि इसके क्या कुछ परिणाम होंगे.



सर्वे तो बाबरी ढांचे गिराए जाने के बाद भी किए गए थे. उन सर्वे की क्या वैल्यू है. वो सर्वे तो साफ कहते हैं कि हमें यकीन नहीं है कि इसके नीचे मंदिर था. लेकिन ये फैसला आया. ऐसे में इस देश में साम्प्रदायिक हिंसा फैलाने की एक साजिश है और ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोर्ट उसे नहीं दिख पा रहा है.


सर्वे का प्वाइंट क्या है?


एक सवाल ये जरुर उठता है कि स्पेशल वर्शिप एक्ट में ये प्रावधान है कि यथास्थिति बरकरार रखी जाए और कोर्ट की तरफ से सिर्फ सर्वे का आदेश दिया गया है. लेकिन सर्वे का आखिर प्वाइंट क्या है? सर्वे से क्या हल निकल रहा है? मान लीजिए कि ये कहा जाए कि वहां पर मंदिर था और सर्वे में अगर निकलकर भी आता है तो भी इस स्पेशल वर्शिप एक्ट के हिसाब से ही होगा. 


वहां पर 1947 से कोई पूजा तो हुई नहीं. वहां पर ईदगाह का इस्तेमाल हो रहा है. हर ईद-बकरीद पर नमाजें पढ़ी जा रही हैं. ऐसे में इस सर्वे का कोई एंड नहीं है. इट्स डज नोट सर्व एनी परपज एट ऑल... सिवाय इसके कि ये परेशानी पैदा करेगा. सिवाय इसके कि ये वैमनस्यता पैदा करेगा. सिवाय इसके की इस सर्वे से दो समुदाय में और तनाव पैदा होने की आशंका बढ़ जाएगी. इस असल इस पूरी याचिका का उद्देश्य ही यही है. 


क्यों बढ़ जाएगा तनाव?


जहां तक ये तर्क है या फिर हिन्दू पक्ष का कहना है कि अगर सर्वे होगा तो हमें ये पता चल जाएगा कि उसके नीचे क्या कुछ है तो ये बात सच है कि हिन्दू पक्ष का मानना है कि उसके नीचे मंदिर दबा है. वे ये बात मानते हैं तभी तो उन्हें ये याचिका दायर की है. एक चीज की जो बात होती है और वो है कानून का राज. कानून ये साफ-साफ कहता है कि 1947 के बाद से जो भी धार्मिक स्थल हैं, उनमें यथास्थिति बनी रहेगी. बाबरी ढांचे को छोड़कर, क्योंकि जब वो डेमोलिश हो गया था, उसके बाद देश में ये कानून लाया गया था. ऐस में जब ये याचिका ही गलत है तो भी ये एडवोकेट कमिश्नर, खुदाई कोई भी चीज सही नहीं कह सकते हैं.


सवाल ये है कि अयोध्या मामले को ज्ञानवापी या फिर मथुरा से कैसे अलग कहा जाए तो मेरा जवाब ये है कि अलग कुछ भी नहीं है. एक ही तरह की रणनीति है. एक ही तरह के लोग हैं. जहां तक ज्ञानवापी की बात है तो एक छोटा सी बहस ये है क्योंकि दीवार की बायीं छोड़ पर कुछ लोगों ने जाकर पूजा की थी. ऐसा उनका दावा है. हालांकि, उसका कोई सबूत नहीं है. लेकिन, यहां पर तो वो भी दावा नहीं है. यहां पर तो ईदगाह है, मंदिर अपनी जगह पर है और जन्मस्थान अपनी जगह पर है.  
ऐसे में जब काशी हो या फिर मथुरा जब मंदिर और मस्जिद दोनों ही अपनी जगह पर है तो फिर आखिर इसके सर्वे कराने की क्यों जरूरत है?  उद्देश्य क्या है? क्या ये हिंसा कराना चाहते हैं?


अबू धाबी में एक जगह है, जहां पर मंदिर- मस्जिद और चर्च सभी है. दुनियाभर से लोग वहां पर देखने आते हैं. वो तो सेक्यूलर कंट्री भी नहीं है. हमारे यहां पर तो हिन्दू-मुसलमान साथ रहते आए हैं और साथ रहेंगे. फिर मंदिर-मस्जिद भी साथ रहे. बनारस में बहुत सारी ऐसी जगहें हैं जहां पर मंदिर और मस्जिद एक साथ है. देश में कई जगहें ऐसी है जहां पर मंदिर और मस्जिद बिल्कुल अगल-बगल है. ये तो सहिष्णुता की निशानी है. कायदे से तो इस सहिष्णुता को बढ़ानी चाहिए, यहां पर ऐसे फैसले से वो चीज गलत हो जाती है.


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