जदयू के कद्दावर नेता अली अशरफ फातमी ने इस्तीफा दे दिया है. उन्होंने अपना इस्तीफा जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार को भेजा है. प्राथमिक सदस्यता के अलावा सभी जिम्मेदारियों से उन्होंने इस्तीफा दे दिया है. इस्तीफे के पीछे उन्होंने नैतिक कारण बताया है. उनके अचानक इस्तीफा देने के बाद के बाद हालांकि बहुत से सवाल उठते हैं. वैसे, पहली प्रतिक्रिया तो यही आयी है कि ये चुनाव का समय चल रहा है. चुनाव के समय नेता इधर से उधर आते जाते रहते हैं. इसके पीछे मुख्य उद्देश्य चुनाव लड़ना होता है. अली अशरफ फातमी राजद छोड़कर चुनाव लड़ने के लिए जदयू में आए थे. इससे पहले वो दरभंगा से चुनाव लड़कर जीते भी हैं. अबकी बार दरभंगा की सीट बीजेपी के कोटे में चली गई है. चूंकि बिहार में जदयू और बीजेपी का गठबंधन है इसलिए वहां से जदयू  वहां से तो प्रत्याशी नहीं ला सकती. इसलिए उनके पास कोई और रास्ता नहीं था.


लोकसभा का टिकट चाहिए


जदयू को बिहार में जो 16 सीटें मिली है, दरभंगा से जदयू का  टिकट कटकर सीट भाजपा के कोटे में चली गई है. इसी वजह से फातमी ने इस्तीफा दिया है. इसके बाद वो अपने घर वापस यानी की राजद में जा सकते हैं. चूंकि राजद से ही इनकी राजनीति की शुरूआत हुई थी. लालू के समय में ये उनके एक करीबी नेता हुआ करते थे. पहले ये विदेश में रहा करते थे, बाद में लालू प्रसाद ने इनको बिहार बुलाया उसके बाद चुनाव लड़वाया. दिल्ली के केंद्रीय मंत्रिमंडल में इनको मंत्री भी बनवाया गया. फिर बाद में टिकट नहीं मिला और खटपट हो गई. उसके बाद ये जदयू की ओर चले गए, लेकिन अब फिर से जदयू में बात नहीं बनी है तो अपने घर राजद वापसी कर रहे हैं. शायद इनकी सोच है कि उनको दरभंगा से टिकट मिल जाए. राजद की ओर से दरभंगा सीट पर अब्दुल बारी सिद्दिकी भी एक दावेदार हैं. हालांकि ये फैसला राजद के शीर्ष नेतृत्व को लेना है लेकिन चुनाव के आसपास नेता इधर से उधर आते जाते रहते हैं. इनसे पार्टियों पर कोई असर नहीं पड़ता है. एक समय था जब फातमी अपने क्षेत्र के एक लोकप्रिय नेता हुआ करते थे. इधर कई चुनाव से वो परिदृश्य से बाहर हैं.



कई बार वह चुनाव लड़े और हारे. कई बार तो उनको टिकट ही नहीं मिला, इसलिए अब उनकी राजनीति में कोई प्रासंगिकता नहीं बचती. अब उनका दौर लगभग गुजर गया है. अब राजनीति में नये लोग आ गए है जो ज्यादा उर्जावान और गतिमान है. पार्टियां उन लोगों को ज्यादा तरजीह दे रही हैं जो लंबे समय तक पार्टी में समय दे सके. पार्टी को जिन पर भरोसा होता है वैसे ही लोगों को आगे बढ़ाने का काम करती है. राजद के खेमे में भी फातमी उतने फिट नहीं बैठेंगे, लेकिन वो लालू प्रसाद यादव से बहुत पुराने संबंधों की दुहाई देकर शायद टिकट लेने में कामयाब हो जाएं. हालांकि, वहां पर इतना आसान भी नहीं है क्योंकि वहां पर अब सब कुछ तेजस्वी यादव देख रहे हैं. फातमी के रिश्ते तेजस्वी यादव से उतने ठीक नहीं हैं, जितने कि लालू प्रसाद यादव से थे.


फातमी रहे हैं विवादास्पद 


राजद के शीर्ष नेतृत्व और उनके परिवार से ही फातमी की कुछ खटपट हो गई थी. शायद तेजस्वी से उनकी नहीं बन पाई थी. उसके बाद से ही उनका निलंबन हो गया. उसके बाद फातमी अपने बेटे को भी सेट करने में लग गए. दरभंगा की जनता तो यह तक सोच चुकी है कि फातमी राजनीतिक संन्यास में चले गए हैं. ये राजनीतिक परिदृश्य से ये पूरी तरह से गायब हो चुके है. लंबे समय से उन्होंने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व नहीं किया है. दरभंगा में आना-जाना भी फातमी का कम है. वो किसी तरह से भी फिट नहीं है और इनको जिताऊ उम्मीदवार के तौर पर नहीं देखा जा रहा है. इसीलिए जदयू में बात नहीं बनी और अब राजद में भी शायद ये बात ना बन पाए. शायद आगे के लिए कोई दूसरे पद का उन्हें आश्वासन मिले, लेकिन फिलहाल दरभंगा की सीट मिलते मुश्किल दिख रही है. हालांकि, फातमी को कम्युनल राजनीति के लिए नहीं जाना जाता . इसके बावजूद ये हमेशा किसी न किसी विवादों में रहे. कई केस भी उनपर दर्ज किए गए . उसी बीच उनका राजनीति से अलगाव भी हुआ था. जिस तरह से लालू यादव से समर्थन फातमी चाहते थे, उस तरह का समर्थन उनको नहीं मिला. पार्टी से निष्कासन भी हुआ था. उसके बाद वो जदयू में चले गए. उसके बाद भी उनको सीट नहीं मिली. राजनीति किसी के लिए ठहरकर इंतजार नहीं करती. अगर राजनीति में आप पीछे छूट गए तो आगे आने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है. उसमें किस्मत का भी एक फैक्टर होता है. इनका इतिहास भी विवादास्पद है. 


ओवैसी की पार्टी फातमी के लिए बेहतर


अभी की स्थिति देखते हुए उनके लिए ओवैसी की पार्टी ज्यादा मुफीद होगी. ओवैसी को नेताओं की जरूरत है, वो बहुत से सीटों से उम्मीदवारों उतारने वाले है. लेकिन वो ओवैसी के यहां जाना पसंद करते हैं कि नहीं, ये उनका विचार है. फातमी ने भी देश में बढ़ती असहिष्णुता को लेकर एक बार बयान दिया था, ऐसे में ओवैसी एक परफेक्ट चॉइस तो होते हैं.तो क्या वो ओवैसी के साथ जाना पसंद करेंगे क्योंकि लालू और नीतीश जो खुद को सेक्यूलर बताते हैं, उसके साथ फातमी ने आज तक राजनीति की है. कहने को भले ओवैसी भी खुद को सेक्युलर मानते हैं. राजनेताओं का प्रथम लक्ष्य चुनाव का टिकट लेना होता है, चाहे वो विधानसभा हो या संसद. इसमें सिद्धांत कोई मायने नहीं रखता. कई में एक राजनेता होते हैं जो सिद्धांत पर राजनीति करते हैं. इसमें सिद्धांत का कोई महत्व नहीं है, राजनीति अभी जिस दौर में है उसमें सिद्धांत है पैसे का, टिकट का और सत्ता का. कोई आदमी कहां से टिकट ले पाता है और फिट बैठता है ये देखा जाता है. पार्टियां देखती है कि ये विनिंग कैंडिडेट है या नहीं और कैंडिडेट देखता है कि इस पार्टी के टिकट से चुनाव जीत सकते हैं कि नहीं?


ओवैसी की पार्टी के टिकट से जीतने की गारंटी तो नहीं है, क्योंकि जिस दरभंगा सीट से ये लड़ना चाहते हैं, वहां ओवैसी काम नहीं आएंगे. हां, जिस तरह से राजनीति से गायब हो गए थे, तो वो उनकी वापसी हो सकती है. क्योंकि क्षेत्र में घूमेंगे और लोगों से मिलेंगे तो पुराना रिश्ता फिर से रिकॉल हो सकता है. वो राजनीतिक पूंजी के रूप में आगे काम आ सकता है. और ओवैसी को भी राजनीति में मदद मिल जाएगी. 


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ़ लेखक ही ज़िम्मेदार हैं.]