नई दिल्ली: जापान के पीएम शिजो आबे ने कहा कि एक वक्त हमारे पास खाली खेत और मलबे के अलावा कुछ नहीं था तो फिर मेरा सवाल ये है कि क्या वजह है कि भारत जैसे विशाल और प्राकृतिक संसाधन से भरपूर देश को रफ्तार का प्रतीक बुलेट ट्रेन दौड़ाने के लिए एक छोटे से देश जापान की जरुरत पड़ जाती है. वजह हम हिन्दुस्तानियों की सोच और हमारी आदतें हैं.


मुझे याद है बचपन में मैंने किसी का संस्मरण पढ़ा था जिसमें जापान की यात्रा करने वाले एक सज्जन ने वहां की एक घटना बताई थी. हुआ यूं था कि ट्रेन की जिस सीट पर वो बैठे थे, वो साइड से फट गई थी. सामने की सीट पर बैठी एक महिला ने फौरन अपने बैग से सूई धागा निकालकर उस फटी हुई सीट को यूं सिलना शुरु कर दिया, मानो वो उनके घर के सोफे पर रखा कोई कुशन हो जिसके और ज्यादा फट जाने से उनका व्यक्तिगत नुकसान होता. अब सोचिए इसी तरह भारतीय रेल की कोई सीट फट गई होती तो क्या होता ? आसपास बैठा कोई शख्स उस सीट में तब तक उंगली या कलम डालकर घुमाता जब तक वो और नहीं फट जाती. अगर हम आप ऐसा नहीं भी करते तो कम से कम उस सीट को सिलने की तो कतई नहीं सोचते.



हमारे और जापान के लोगों की मानसिकता और सोच में यही फर्क भूकंप से लगातार हिलते जापाना को इतना सशक्त बना देता है कि वो भारत जैसे विशाल देश की प्रगति में मदद करने की क्षमता रखता है और हम दूसरों देशों की तरफ मदद के लिए टकटकी लगाए रखते हैं. जितना बड़ा मानव संसाधन हमारे पास है,हम चाहें तो क्या नहीं कर सकते लेकिन सिर्फ सिस्टम और राजनीतिक जमात को कोसने से काम नहीं चलेगा. हमें और आपको खुद को बदलना होगा तभी परिवर्तन आएगा. सिर्फ मोदी या उनके सरीखे नेता हमें जगत गुरु नहीं बना सकते बल्कि ये तभी संभव है जब हम सभी इस दिशा में सोचें.संस्कृत में एक श्लोक है-


अयं निज: परोवेति, गणना लघुचेतसाम
उदार चरिता नाम तु, वसुधैव कुटुम्बकम


यानी अपने पराये का जो सोचते हैं उनकी सोच छोटी होती है.बड़े ह्दयवालों के लिए तो सभी अपने होते हैं. वसुधैव कुटु्म्बकम की क्या हम सिर्फ बात करते रहेंगे? क्या हम पूरे देश को अपना परिवार नहीं मान सकते ? जिस दिन हमारे अंदर ये सोच आ गई यकीन मानिए सारे झगड़े, फसाद खत्म हो जाएंगे. देश प्रगति के पथ पर अग्रसर हो जाएगा.


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