I disapprove of what you say, but will defend to the death your right to say it. 


--Voltaire


700 करोड़ में बनी 'आदिपुरुष' पर बात करने से पहले ज़रा एकाध 'अरबन लेजेंड्स' पर बात कर लें. ध्यान कर लें कि ये अरबन लेजेंड्स हैं, इसलिए इनकी सत्यता की कोई गारंटी नहीं है. कहा जाता है कि रामानंद सागर ने रामायण बनने के दौरान सात्विक भोजन शुरू कर दिया था. इसी तरह एक बार धारावाहिक में सीता की भूमिका निभा रहीं दीपिका चिखलिया किसी और फिल्म के सेट पर सिगरेट पीती पाई गयीं थीं और जनता ने उनकी खासी मलामत की थी. 'रामायण' हो या 'महाभारत', इन दोनों ही पर कुछ बनाना खासा आसान भी है और जोखिम से भरा भी. दोनों ही महाकाव्य चूंकि हिंदू सभ्यता के आदिपुरुषों, विराट पुरुषों का आख्यान हैं, इसलिए इनके साथ बड़ी सावधानी बरतने की जरूरत है, वरना वही दुर्घटना होती है, जो ओम राउत के साथ फिलहाल हुई है, जो कई वर्षों पहले एकता कपूर के साथ हुई थी, जब उन्होंने मसल्स फुलाए सुपरमॉडल्स को लेकर महाभारत बनाने की 'जुर्रत' की थी. दरअसल, रामानंद सागर और बी आर चोपड़ा एक ऐसी लकीर खींच गए हैं, जो पिछले तीन दशकों से भारतीय जनता के जेहन में ताजा है, इसलिए आपको उससे बड़ी लकीर खींचनी होगी और उसका तरीका कम से कम ओम राउत और एकता कपूर वाला तो बिल्कुल नहीं है. 


राम हैं भारत के कण-कण में


आज के जो लिबरल, कथित क्रांतिकारी, कथित बुद्धिजीवी बनते हैं, उनमें से कई को राममनोहर लोहिया को पढ़ना चाहिए. जब नेहरू को 'लोकदेव' कहने और मानने वाले लोग इस देश में बहुमत में थे, तब लोहिया उनका जमकर विरोध करनेवाले क्रांतिकारी थे, जिन्होंने पहली बार 'पिछड़े पावें सौ में साठ' का नारा दिया था, जो अपने समय से बहुत आगे थे और जड़ मान्यताओं और रूढ़ि पर जमकर प्रहार करते थे. उन्होंने भी राम, कृष्ण और शिव को इस देश के प्राण कहा है. वह भी हिम्मत नहीं कर पाए कि भारत की आत्मा, सनातन के गौरव से कुछ छेड़खानी कर सकें. लोहिया ने इन तीनों पर लिखा और अपने तमाम सोशलिस्ट-कम्युनिस्ट प्रशंसकों व अनुयायियों को भी ये बताया कि राम इस देश के कण-कण में हैं. कारण यह है कि राम का धर्म के अलावा भी इस देश की संस्कृति और सभ्यता से लेना है. यही कारण है कि आज भी गांवों में लोग राम-राम से एक-दूसरे का अभिवादन करते हैं, भले ही उनका मजहब कुछ भी हो. इसलिए, जब आप राम का चित्रण करें तो इस देश की सभ्यता और संस्कृति के अनुरूप ही करें, उनकी कथा में बंबई की 'टपोरी हिंदी' का घालमेल लोगों को परेशान करेगा ही. 


साहित्यिक कृतियों पर होता है अन्याय


भारत में रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों को मिथकीय दर्जा प्राप्त है, लेकिन वे इतिहास-गाथा भी हैं. भारतीय फिल्में खासकर हिंदी फिल्में साहित्य के साथ क्या करती हैं, ये हिंदी फिल्मोद्योग में प्रेमचंद का हश्र जानकर जाना जा सकता है. उन्हें कुछ महीनों बाद मुंबई से वापस लौटना पड़ा. फणीश्वरनाथ रेणु की 'तीसरी कसम' के लिए शैलेंद्र अड़े, तब जाकर उनकी कहानी का अंत वही हो सका जो था, वरना राज कपूर उसको फिल्मी बनाने पर आमादा थे. शरच्चंद्र की 'देवदास' को भंसाली ने एक भव्य डिजाइनर बारात और हवेलियों वाले कलाइडोस्कोप में बदल दिया तो अनुराग कश्यप ने उसको 21वीं सदी की, जेनरेशन जेड की कहानी में बदल दिया. इन सब पर लोगों ने वाहवाही ही दी, उफ न किया, लेकिन रामकथा की बात अलग है. वहां एक पूरे देश की धड़कती सभ्यता और संस्कृति को आप प्रस्तुत करते हैं, रामकथा में हनुमान सबसे बड़े भक्त, ज्ञानी और वैरागी हैं. उनके मुंह से टपोरी वाले डायलॉग्स आप निकलवाएंगे, रावण को गेम ऑफ थ्रोन्स के ड्रैगन पर उड़वाएंगे, तो दिक्कत तो होनी ही है. 



मिसप्लेस्ड आइडेंटिटी है दुर्घटना का कारण


दरअसल, 700 करोड़ के इस कुरूप और निंदनीय दुर्घटना के दो कारण हैं. पहला, तो लालच. रामकथा को हम बनाएंगे, तो ऑडिएंंस आ ही जाएगी. वैसे भी, राष्ट्रवाद का सीजन चल रहा है, चलो सेल का फायदा उठाते हैं. दूसरा कारण है, घमंड और मिसप्लेस्ड आइडेंटिटी. इस फिल्म से जुड़े किसी भी लेखक, कलाकार, या किसी ने भी रामायण नहीं पढ़ी है, यह उनके हरेक व्यवहार से स्पष्ट है. हालांकि, जब शुरू में विवाद हुआ तो मनोज मुंतशिर और ओम राउत दोनों ने खम ठोंक कर कहा था कि यह फिल्म रामायण से विचलन नहीं है. अब जब चारों ओर थू-थू हो रही है, तो कह रहे हैं कि रामायण से 'प्रेरित' है, रामायण नहीं है. मनोज तो उस अड़ियल बालक की तरह व्यवहार कर रहे हैं, जिसने मां के किचेन में काफी नुकसान कर दिया है और अब कह रहा है कि ये तो उसने जान-बूझकर किया है. वह जब कहते हैं कि अगर वह रामायण लिखते तो नहीं लिख पाते, क्योंकि संस्कृत में लिखना होता, तो वह भूल जाते हैं कि 'मुंतशिर' जोड़ लेने से आप राही मासूम 'रज़ा' नहीं हो जाते. आज भी महाभारत के डायलॉग्स लोगों की जुबान पर चढ़े हैं और वे खांटी हिंदी में थे, बल्कि तातश्री, पिताश्री वाला प्रयोग तो उन्होंने उर्दू के अब्बाजान, भाईजान से लिया था. मनोज को यह समझना होगा कि जब वह बोलचाल की हिंदी या 'सामान्य हिंदी' की बात करते हैं तो उसका मतलब बंबई की टपोरियों वाली अशुद्ध हिंदी नहीं होता. वैसे भी, एक गीतकार-लेखक होने के नाते उनको इतना ज्ञान तो होना चाहिए कि मौखिक, वाचिक, लिखित और दृश्य-श्रव्य माध्यम की भाषा अलग हो जाती है, एक नहीं रहती. 


मुंतशिर नयी पीढ़ी पर भी सवाल उठाते हैं, जब वह कहते हैं कि ऐसी भाषा उन्होंने आज की पीढ़ी के लिए रखी. क्या वह कहना चाहते हैं कि आज की पीढ़ी असभ्य है, अनपढ़ है, जिसे हिंदी समझ नहीं आएगी अगर उसमें से टपोरीपन हटा दिया जाए. क्या हनुमान अगर ये कहें "तेरे अहंकार की अग्नि ही आज पूरी लंका को लील जाएगी" तो उसका प्रभाव पूरा नहीं पड़ेगा? इसी तरह उनके हरेक डायलॉग की धज्जियां उड़ाई जा सकती हैं और उसका विकल्प भी मुहैया कराया जा सकता है. गलती केवल मनोज की भी नहीं. डायरेक्शन के स्तर पर भी फिल्म बुरी तरह निराश करती है. इसका कारण यह है कि 'गेम ऑफ थ्रोन्स' से प्रेरित होकर आप रामायण बनाएंगे तो आदिपुरुष ही बनेगा. यही है मिस्प्लेस्ड आइडेंटिटी का सच. इस फिल्म को बनाने के दो अप्रोच हो सकते थे. साहित्यिक कृति की तरह या फिर पूरी तरह पौराणिक गाथा की तरह. दोनों ही में आपको इसे पढ़ना तो पहली शर्त है. हां, धार्मिक भाव से अगर आप बनाएंगे, तो शायद कुछ अरबन लेजेंड आपको भी गढ़ने पड़ जाते. 


बैन कोई उपाय नहीं है


हालांकि, आदिपुरुष को लेकर जो मुकदमा हुआ है या इसे बैन करने की मांग हो रही है, वह भी बेमानी है. पहली बात तो यह कि किसी भी तरह के बैन से आप कुछ भी सकारात्मक नहीं पा सकते. दूसरे, विरोध के अपने जरिए हैं, कोर्ट से लेकर सड़क तक. तीसरे, इस देश में फ्रीडम ऑफ स्पीच है और यहां संविधान का शासन है. यहां 'ब्लासफेमी' या 'बेअदबी' को भी कानूनी तरीके से निपटाया जा सकता है, 'सर तन से जुदा' के नारे लगाती उग्र भीड़ के मुताबिक न्याय नहीं किया जा सकता है. बैन से तो आप उन सभी समूहों को लेजिटिमेसी देंगे, जिनका हरेक लिबरल और उदारवादी आज तक विरोध करता आ रहा है. फिल्म देखने से रोकना किसी भी सूरत में जायज नहीं, लेकिन इस फिल्म को देखकर उसकी आलोचना हो, आक्रामक पुनर्पाठ हो, यह भी जरूरी है, ताकि आगे कोई ऐसा करने से पहले कम से कम मूल ग्रंथों का पाठ तो कर ही ले. 



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