सरकार का नेक इरादा यह था कि हज़ार-पांच सौ के मौजूदा नोटों को चलन से बाहर करके नकली नोटों के जरिए भारत के बाहर से होने वाली जासूसी, हथियारों और मादक पदार्थों की तस्करी और आतंकवाद का वित्तपोषण करने वाली अन्य जरायम गतिविधियों पर लगाम लगाई जाए और देश के भीतर विभिन्न निवेश उपकरणों की आड़ में काले धन का ढेर लगाए बैठे धनकुबेरों का फन कुचल दिया जाए. लेकिन नौ नवंबर की सुबह से देश में आर्थिक गृह-युद्ध का नज़ारा लगातार देखने को मिल रहा है. ज्यादातर भारतीयों, ख़ास तौर पर मध्य-वर्ग की नज़र में सरकार की यह योजना तो काफी अच्छी है लेकिन इसे अमल में लाने संबंधी तैयारियों में निश्चित ही कसर बाक़ी रह गई.


भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा पर्याप्त नकदी उपलब्ध होने के दावों के बीच मंजर यह है कि पांच दिन बीत जाने के बाद भी कश्मीर से कन्याकुमारी तक सभी बैंकों की सभी शाखाओं और एटीएमों के सामने खाताधारक दाता सुबह 6 बजे से भिखारी बन कर खड़े नज़र आ रहे हैं, नकदी न मिल पाने के चलते कुछ महिलाएं रोती देखी गईं, देश के विभिन्न हिस्सों से कतार में लगे छह लोगों की मौत की ख़बरें हैं, बैंक कर्मचारियों के साथ झूमाझटकी हो रही है, आकार-प्रकार बदल जाने से एटीएम की मशीनों में हज़ार-पांच सौ के नोट अटक जा रहे हैं, नक़दी न पहुंच पाने की वजह से अधिकतर एटीएम नोटों की जगह हवा उगल रहे हैं. सख़्त निर्देशों के बावजूद पेट्रोल पम्पों, मेडिकल स्टोरों और अस्पतालों में पुराने नोट स्वीकार नहीं किए जा रहे, छोटे-मंझोले व्यापारी और दूकानदार तबाही की कगार पर हैं, किसान पुराने नोट लिए घूम रहे हैं लेकिन रबी की बुवाई के लिए उन्हें खाद-बीज ही नहीं मिल पा रहा, गृहणियां बाज़ार से खाली हाथ लौट रही हैं. ऐसी अनगिनत परेशानियों के बीच एमपी के छतरपुर से ऐसी हृदयविदारक ख़बर आई कि पुराने नोटों को न स्वीकारे जाने के चलते एक महिला का अंतिम संस्कार घंटों रुका रहा और उसके परिजन रोते-बिलखते रहे!


विपक्षी राजनीतिक दल इसे जनाक्रोश भड़काने और नुक़्ते निकालने के सुनहरी अवसर के तौर पर देख सकते हैं. लेकिन हमारा इरादा दूसरा है. हम समझना चाहते हैं कि क्या उक्त बड़े नोटों को चलन से बाहर कर देने से वाक़ई काले धन समाप्त हो जाएगा? क्या लोगों को अपना काला धन बैंकिंग सिस्टम में खपाने में सफलता मिल जाएगी? क्या चुनाव में काले धन का उपयोग बंद हो सकेगा? क्या टैक्स चोरी रुक सकेगी?


जून 2016 का एक अध्ययन बताता है कि भारत में काली अर्थव्यवस्था 30 लाख करोड़ रुपए से अधिक की है जो देश की जीडीपी का लगभग 23% बनती है. इस अर्थव्यवस्था में 80% नोट हज़ार और पांच सौ के चलते हैं. दूसरी तरफ भारत सरकार की सफ़ेद अर्थव्यवस्था में सोना और विदेशी मुद्रा भंडार के आधार पर करेंसी छपती है, जो अधिकांश हज़ार-पांच सौ के नोटों की शक्ल में होती है. यही नोट लोग काला धन के रूप में दबा कर बैठ जाते हैं. सरकार के इस फैसले से काले धन के रूप में चल रहे इन लगभग 30 लाख करोड़ रुपए के नोटों में से 86% हिस्सा भारतीय अर्थव्यवस्था में कानूनी तौर पर वापस आ सकता है.


रही काले धन को बैंकिंग सिस्टम में खपाने की बात; तो इसे छोटी-छोटी रकम के तौर पर करोड़ों लोगों के खातों में कमीशन का लालच देकर जमा करना आसान नहीं होगा. दूसरे, बैंकों के कड़े केवायसी नियमों के कारण भारी नक़दी वाले लोगों के लिए नए खाते खोलकर काली कमाई को सफ़ेद करना मुश्किल होगा. इससे अवैध अर्थव्यवस्था में पुनः भारी निवेश करने वालों को ज़ोर का झटका ज़ोर से लगेगा. लेकिन जो राजनेता, नौकरशाह, टैक्स चोर, उद्योगपति, फिल्म अभिनेता और अवैध धंधेबाज़ अपना काला धन नोटों की शक्ल में न रखकर उसे सोना-चांदी, हीरा-जवाहरात, ज़मीन-जायदाद, एंटिक कलाकृतियों और विदेशी बैंकों और विदेशों में प्रॉपर्टी के रूप में खपा चुके हैं, वे हज़ार-पांच सौ के पुराने नोट मिट्टी होने के बावजूद चैन की बंसी बजाते रहेंगे.


सरकार का यह क़दम काला धन और चुनाव के अपवित्र बंधन को भी काफी हद तक कमज़ोर कर देगा. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रैटोक रिफॉर्म्स के आंकड़ों के अनुसार बड़ी पार्टियों का नक़द दान कुल पार्टी फंड का 75% होता है जिसका कोई माई-बाप नहीं नज़र आता. बाद में यही पैसा बड़ी पार्टियां अपने चुनाव प्रचार में ख़र्च करती हैं. ऐसी ही लगभग 330 करोड़ की बेनामी नक़दी चुनाव आयोग ने 2014 के आम चुनावों के रान जब्त की थी.


अगले साल यूपी, पंजाब, गोवा, उत्तराखंड और मणिपुर के आगामी विधानसभा चुनावों के लिए जो पैसा रवाना किया जा चुका होगा या प्लानिंग हो रही होगी, उसे हज़ार-पांच सौ के नए नोटों से बदलने में पार्टी मैनेजरों के पसीने छूटेंगे. ऐसे में कुछ संभावित प्रत्याशियों के मूर्छित होने की ख़बरें आने लगें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. पिछले कई सालों से पंजाब में मादक द्रव्यों की अवैध तस्करी और यूपी में संसाधनों की खुली लूट से जो काली कमाई इकट्ठा की जा रही थी, उसको चुनाव में खपाना अब टेढ़ी खीर साबित होगा. खाता न बही, जो चाचा कहें वही सही- जैसे कांग्रेसी जुमले अब काम नहीं आएंगे... और भाजपा को तो वैसे भी बनियों की पार्टी कहा जाता है!


रिजर्व बैंक के अनुसार पिछले चार दशकों में भारतीयों ने सेवा और सामान के रूप में 17 खरब रुपए का निर्यात किया लेकिन इसके बदले में विदेशी मुद्रा बहुत कम जमा की. घरेलू आयकर चोरी का तो कोई अंत नहीं है. कर चुकाने के नाम पर बड़े-बड़े धनकुबेर भी सीए की मदद से ख़ुद को फक़ीर साबित कर देते हैं. लेकिन अब वे हज़ार-पांच सौ के नोटों का अचार ही डाल सकते हैं. काले धन के खिलाफ़ लड़ाई में मोदी सरकार का यह पहला निर्णायक कदम कहा जा सकता है. लोगों के पास नक़दी कम होगी तो महंगाई पर भी नियंत्रण हो सकेगा और बैंकों के माध्यम से सरकार के पास पैसा जमा होगा तो वह आर्थिक सुधार कर सकेगी, सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास पर खुलकर ख़र्च कर सकेगी और राजकोषीय घाटा भी पूरा कर सकेगी.


आशंका सिर्फ यही है कि दो हज़ार के बड़े नोट आ जाने से कहीं काला धन की चक्की स्पीड न पकड़ ले और सारे किए कराए पर पानी फिर जाए! भारतीयों की इस क्षेत्र में गहरी क्षमता और अपार प्रतिभा देखते हुए यह एक बहुत बड़ी आशंका कही जा सकती है!


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