करीब छह वर्षों की शांति के बाद पश्चिम बंगाल का दार्जिलिंग इलाका पिछले महीने भर से बारूद के ढेर पर बैठा हुआ है. विमल गुरुंग के नेतृत्व में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा वहां इस बार आर-पार की लड़ाई के मूड में है. गोरखालैंड बनाने के लिए गुरुंग ने करो या मरो का नारा दिया है जिसे यहां के प्रमुख निवासी गोरखाओं, राई, लेपचाओं और शेरपाओं ने प्राणपण से अपना लिया है. पूरे इलाके में सेना और अर्द्ध सैनिक बल तैनात कर दिए गए हैं इसके बावजूद जनभावनाएं इस कदर हिलोरें मार रही हैं कि यहां के दार्जिलिंग समेत प्रमुख शहरों- कलिम्पोंग, कर्सियांग और मिरिक में आमरण अनशन चल रहे हैं, सेना पर पथराव हो रहा है, वाहन फूंके जा रहे हैं, महिलाएं सड़क पर उतर गई हैं, साहित्यकार-कलाकार सम्मान लौटा रहे हैं और इंटरनेट सेवाएं ठप कर दी गई हैं. इसके साथ-साथ इस इलाके की अर्थव्यवस्था का आधार पर्यटन और चाय उद्योग भी सिसक रहा है.


देखा जाए तो इस बार का आंदोलन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पहाड़ी क्षेत्र में अपना प्रभुत्व जमाने की क्रिया की प्रतिक्रिया है. उन्होंने दार्जिलिंग स्थित राजभवन में लगभग 45 साल (1972 के) बाद पश्चिम बंगाल की विधानसभा के मंत्रिमंडल की बैठक आयोजित की. एक अधिसूचना जारी करके उन्होंने 9वीं कक्षा तक बांग्ला को चुनने की बात भी कही, जिससे यह संदेश चला गया कि मुख्यमंत्री दार्जिलिंग इलाके की नेपाली भाषा को दरकिनार करने की कोशिश करके सांस्कृतिक हमला कर रही हैं. जबकि नेपाली को पश्चिम बंगाल में 1961 से आधिकारिक भाषा का दर्जा मिला हुआ है. ममता ने दार्जिलिंग में पिछले वर्ष शुभकामनाओं के पोस्टर भी अंग्रेजी और बांग्ला में लगवाए थे, नेपाली में नहीं.

बीती मई में इस पर्वतीय क्षेत्र की चार नगरपालिकाओं दार्जिलिंग, कालिंपोंग, कर्सियांग और मिरिक के चुनावों में मिरिक नगरपालिका पर तृणमूल कांग्रेस ने कब्जा कर लिया. गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के लिए यह खतरे की घंटी थी. मोर्चा के अध्यक्ष विमल गुरुंग को लगा कि ममता बनर्जी मैदान की तरह ही पश्चिम बंगाल के पूरे पर्वतीय क्षेत्र में भी अपनी दो पत्तियां खिलाना चाहती हैं. ममता ने राई, लेपचा और शेरपा समुदाय के लिए अलग-अलग विकास परिषदों का गठन भी कर दिया है, जिससे राज्य की आर्थिक मदद सीधे उन परिषदों को जाने लगी है. इस पर आग में घी का काम किया ममता की जीटीए (गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन) का ऑडिट कराने की घोषणा ने. अगले महीने ही जीटीए के चुनाव होने हैं, जिसके मुखिया विमल गुरुंग हैं. कहा जाता है कि पर्वतीय क्षेत्र का प्रशासन चलाने के लिए पिछले पांच वर्षों में केंद्र ने 600 करोड़ और राज्य सरकार ने 1400 करोड़ रुपए जीटीए को दिए. लेकिन ऑडिट की बात आते ही पहाड़ में हिंसा शुरू हो गई.

गोरखालैंड की मांग करने वालों का तर्क है कि उनकी भाषा और संस्कृति शेष बंगाल से भिन्न है. वैसे दार्जिलिंग में अलग प्रशासनिक इकाई की मांग 1907 से चली आ रही है, जब हिलमेन्स असोसिएशन ऑफ दार्जिलिंग ने मिंटो-मोर्ली रिफॉर्म्स को एक अलग प्रशासनिक क्षेत्र बनाने के लिए ज्ञापन सौंपा था. इस बीच समय-समय पर मांगें उठती रहीं लेकिन भारत की आजादी के बाद एक कानून पास किया गया ‘द अब्जॉर्बड एरियाज एक्ट 1954’, जिसके तहत दार्जिलिंग और इसके साथ के क्षेत्र को पश्चिम बंगाल में मिला दिया गया. स्वतंत्र भारत में अखिल भारतीय गोरखा लीग वह पहली राजनीतिक पार्टी थी जिसने पश्चिम बंगाल से अलग एक नए राज्य के गठन के लिए पंडित जवाहर लाल नेहरू को एनबी गुरुंग के नेतृत्व में कालिम्पोंग में एक ज्ञापन सौंपा था. 1980 में गोरखा लीग के नेता इंद्र बहादुर राई ने भी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर गोरखालैंड के गठन की मांग की थी.
आगे चलकर 1986 में गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा के द्वारा एक हिंसक आंदोलन की शुरुआत हुई जिसका नेतृत्व सुभाष घीसिंग के हाथ में था. इस आंदोलन के फलस्वरूप 1988 में एक अर्ध स्वायत्त इकाई का गठन हुआ जिसका नाम था- ‘दार्जिलिंग गोरखा हिल परिषद’. बता दें कि गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष सुभाष घीसिंग भी परिषद का ऑडिट शुरू होते ही हिंसक आंदोलन शुरू कर दिया करते थे!



एक बार हिंसा भड़क गई है. पुलिस और पब्लिक के बीच कई जगहों पर झड़पों की सूचना है. इसके साथ ही इंडियन रिजर्व बटालियन (आईआरबी) के एक अधिकारी पर हमले की सूचना है. उन पर खुखरी से हमला किया गया है. इसबीच इसे लेकर अफवाहों के बाद पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी का बयान आया है...आगे जानिए...

घीसिंग के समय पहाड़ी क्षेत्र की ट्रांसपोर्ट यूनियन की देखभाल करने वाले विमल गुरुंग ने 2006-07 में अपना अलग गोरखा जनमुक्ति मोर्चा बना लिया. 2011 तक उन्होंने गोरखालैंड की मांग को लेकर काफी संघर्ष किया लेकिन जब ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने ‘दार्जिलिंग गोरखा हिल परिषद’ को भंग करके एक समझौते के तहत जीटीए का गठन कर दिया. चुनाव जीत कर जीटीए का मुखिया बनने के बाद विमल गुरुंग के पास उसका पूर्ण प्रशासन आ गया और वह गोरखालैंड की मांग को लेकर धीरे-धीरे ठंडे पड़ते गए. लेकिन एक समय गुरुंग की ‘दीदी’ कही जाने वाली ममता बनर्जी ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के चलते गुरुंग को 2017 में बेहद असुरक्षित करके एक बार फिर उन्हें उग्र आंदोलन के मोड में डाल दिया है.

लगभग 12 लाख की आबादी वाले कुल 3150 वर्ग किलो मीटर में फैले इस पहाड़ी इलाके में दो जिले, तीन विधानसभा सीटें, चार नगरपालिकाएं हैं और यह एक लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा मात्र है. इस सीमावर्ती इलाके को अलग राज्य का दर्ज़ा देने में कई व्यावहारिक समस्याएं हैं. यह सभी राजनीतिक दल बखूबी जानते हैं. लेकिन भाजपा, कांग्रेस और वामदल गोरखालैंड की मांग को लेकर परिस्थिति के अनुसार अपने सुर बदलते रहते हैं. जुलाई 2009 में संसद के बजट सत्र में भाजपा के तीन सांसदों राजीव प्रताप रूडी, सुषमा स्‍वराज और जसवंत सिंह ने अलग गोरखा राज्‍य की मांग की थी. लेकिन आज दार्जिलिंग में फिर हालात खराब हैं तो पश्चिम बंगाल में उनकी ही पार्टी के मुखिया दिलीप घोष का कहना है वह गोरखालैंड को अलग राज्य बनने के पक्ष में बिल्कुल भी नहीं हैं.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अलग गोरखालैंड राज्य की मांग को लेकर हिंसक आंदोलन के लिए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा है- “ममता बनर्जी ने अलग राज्य का दर्जा दिए जाने को लेकर कुछ अनावश्यक उम्मीदें जगाई थीं. वाम दल शुरुआत से ही अलग राज्य की मांग के खिलाफ थे.” जबकि हकीकत यह है कि 1947 में अनडिवाइडेड कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) ने एक ज्ञापन कांस्टिट्यूट असेम्बली को दिया था, जिसमें सिक्किम और दार्जिलिंग को मिलाकर एक अलग राज्य ‘गोरखास्थान’ के निर्माण की मांग की गई थी. इसी तरह कांग्रेस जब केंद्र में थी तो उसने सुभाष घीसिंग के साथ क्या-क्या खेल नहीं खेले! अब बारी केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा की है.

लेकिन झांसी की रानी की तर्ज पर ममता का ऐलान है- “मैं अपनी अंतिम सांस रहने तक पश्चिम बंगाल का एक और विभाजन नहीं होने दूंगी.” जबकि गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने ठान लिया है कि इस बार वह गोरखालैंड लेकर ही रहेगा! लगता है इस सीजन में दार्जिलिंग के चाय बागान आंदोलन की हिंसक आग में झुलस कर ही रहेंगे.
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