ईश्वर न तो किसी का कर्म रचता है, न ही उसका फल तय करता है.
ये सब व्यक्ति के स्वभाव और कर्म पर आधारित होता है.


जो व्यक्ति बुद्धि के साथ कर्म करता है, वह पुण्य और पाप-दोनों से मुक्त हो जाता है.



कोई भी व्यक्ति एक क्षण के लिए भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता. कर्म स्वभाव से होता ही है.



जो कर्म यज्ञ (उच्च उद्देश्य) के लिए नहीं किए जाते, वे बंधन का कारण बनते हैं.



अपने धर्म (कर्तव्य) को दोषपूर्ण ढंग से निभाना भी दूसरे के धर्म को निभाने से बेहतर है.



मैं सभी जीवों में समभाव रखता हूं, न किसी से द्वेष है, न कोई मुझे प्रिय है.



मन को नियंत्रित करना कठिन है, लेकिन अभ्यास और वैराग्य से संभव है.



जो मेरे प्रति श्रद्धा रखते हैं, वे एक-दूसरे को सत्य ज्ञान देकर मुझे प्राप्त करते हैं.



हे अर्जुन, इस कायरता को मत अपनाओ, यह तुम्हारे लिए शोभा नहीं देती.



तू निश्चित रूप से कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है.