प्रसिद्ध देवबंदी उलेमा और जमीयत दावतुल मुस्लिमीन के संरक्षक क़ारी इसहाक गोरा ने समाज में बढ़ती एक गलत परंपरा पर सख्त नाराजगी जताई है. उन्होंने कहा कि किसी की मौत के बाद उसके घर में दावतें देना और तरह-तरह के पकवान बनाना इस्लाम की शिक्षा के खिलाफ है.

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मौलाना ने अपने बयान में कहा कि आजकल लोग मय्यत के बाद मरहूम के घर जाकर ऐसे खाते हैं, जैसे किसी खुशी के मौके पर पहुंचे हों. कई बार तो लोग खाने की तारीफ करते नजर आते हैं, जबकि उस घर के लोग गम में डूबे होते हैं. यह रवैया न केवल शरीअत के खिलाफ है, बल्कि इंसानियत और हमदर्दी के भी विपरीत है.

"जब किसी के घर मौत हो तो पड़ोसी-रिश्तेदार भेजें खाना"

उन्होंने कहा कि इस्लाम में हिदायत दी गई है कि जब किसी के घर में मौत हो, तो आस-पड़ोस और रिश्तेदारों को उस घर में खाना भेजना चाहिए, ताकि गमजदा लोग आराम कर सकें. उन्होंने हदीस का ज़िक्र करते हुए बताया कि जब हज़रत जाफ़र बिन अबी तालिब रजियल्लाहु अन्हु की शहादत हुई थी, तब नबी-ए-करीम  ने फरमाया था. जाफर के घर वालों के लिए खाना तैयार करो, क्योंकि उन पर गम आ गया है.

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मय्यत के वालों को राहत देना सुन्नत- मौलाना

मौलाना ने कहा कि इस हदीस से साफ़ समझ आता है कि मय्यत के घर वालों को राहत देना सुन्नत है, उनसे दावत की उम्मीद रखना नहीं. लेकिन अफ़सोस है कि आज यह रिवाज उलट गया है. अब मय्यत के घर में बिरयानी, मिठाई और दावतों का माहौल बन जाता है, जबकि यह जगह सब्र और दुआ की होनी चाहिए.

उन्होंने कहा कि मय्यत के घर में खाना खिलाना अब दिखावे और समाज के दबाव की परंपरा बन चुकी है, जिससे हमारी सादगी और धार्मिक भावना खत्म होती जा रही है.

मुसलमानों से बनावटी रिवाज छोड़ने की अपील

मौलाना ने मुसलमानों से अपील की कि वे इस बनावटी रिवाज को छोड़कर सुन्नत-ए-नबवी पर अमल करें. उन्होंने कहा, “दीन की असल पहचान सादगी और एहसास में है, न कि ताम-झाम और दिखावे में। मय्यत के घर में दावत नहीं, बल्कि दुआ होनी चाहिए.