उत्तर प्रदेश के पहले दो चरण का चुनाव मुख्य तौर पर पश्चिम उत्तर प्रदेश में लड़ा जाएगा. इन दोनों चरणों में 109 सीटें हैं. उत्तर प्रदेश का यह इलाका ऐसा है, जहां मुसलमानों की आबादी अच्छी है. इसी बात को ध्यान में रखते हुए बसपा ने 39 मुसलमान कैंडिडेट मैदान में उतारे हैं. इतनी बड़ी संख्या में मुसलमान कैंडिडेट उतारने का मकसद मुसलमानों को अपनी ओर अधिक से अधिक संख्या में आकर्षित करना है. मुसलमानों के अलावा इस इसके में बसपा की नजर जाटों पर भी हैं, जो किसान आंदोलन की वजह से बीजेपी से नाराज बताए जा रहे हैं. 

बसपा को किन मुद्दों से हैं जीत की उम्मीद

राजनीतिक टीकाकारों का मानना है कि टिकट बंटवारे में सपा-रालोद के विवाद और किसान आंदोलन की वजह से बसपा को अपना फायदा नजर आ रहा है. वहीं कुछ टीकाकारों का मानना है कि इस बार 2017 की तरह किसी पार्टी के पक्ष में कोई लहर भी नहीं चल रही है. ऐसे में बसपा अपनी सोशल इंजीनियरिंग के दम पर मुकाबलों को त्रिकोणीय बनाने की कोशिश कर रही है. बसपा को सरकार विरोधी लहर, किसान आंदोलन और अपने कोर वोट बैंक से आस है. 

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बसपा ने इसी को ध्यान में रखते हुए बसपा ने पहले चरण में 16 और दूसरे चरण में 23 मुसलमानों को अपना उम्मीदवार बनाया है. हालांकि इसी इलाके में बसपा ने 2017 के चुनाव में 43 मुसलमान उम्मीदवार उतारे थे. लेकिन इसका उसे कोई फायदा नहीं मिला था. बीजेपी की लहर में उसके उम्मीदवार धराशायी हो गए थे. 

बसपा कितने सीटों पर 2017 में दूसरे नंबर पर थी

पश्चिम उत्तर प्रदेश की आबादी में 22 फीसदी दलित, 20 फीसदी जाट और 19 फीसदी मुसलमान हैं. मुजफ्फरनगर के दंगों की वजह से 2017 और 2019 के चुनाव में जाट और मुसलमान अलग-अलग हो गए थे, लेकिन किसान आंदोलन की वजह से वो अब करीब आ गए हैं. बसपा को इस एकता से मदद मिलने की उम्मीद है. वहीं एक दूसरी बहस यह भी है कि जहां-जहां सपा और बसपा ने मुसलमान कैंडिडेट उतारे हैं, वहां बीजेपी को फायदा हो सकता है.

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पहले चरण में जिन सीटों पर मतदान होना है उनमें से 30 सीटों पर बसपा 2017 के चुनाव में दूसरे नंबर पर थी. वहीं दूसरे चरण की 12 सीटों पर वह दूसरे नंबर पर थी. इन सीटों पर बसपा ने इस आधार पर उम्मीदवार उतारे हैं कि उम्मीदवार पार्टी के आधार दलित वोटों में अपनी जाति या धर्म का वोट जोड़ेंगा. बसपा की यह सोशल इंजीनियरिंग उसे कितना फायदा पहुंचाएगी, इसका पता 10 मार्च को ही चल पाएगा, जब नतीजे आएंगे.