उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में एक ऐसी दरगाह है जहां लगने वाले मेले में जाति और धर्म की दीवारें टूट जाती हैं. जहां जिस दरगाह पर हिंदू-मुस्लिम मिलकर होली खेलते हैं, वही प्रसिद्ध देवा शरीफ दरगाह है. यह हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक मानी जाती है.

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देवा मेला 8 अक्टूबर, 2025 से शुरू हो गया है जिस मेले का शुभारंभ बाराबंकी के जिलाधिकारी शशांक त्रिपाठी की पत्नी शैलजा त्रिपाठी ने किया यहां के शेख मोहम्मद हसन गेट पर फीता काटकर और शांति व सद्भाव के प्रतीक सफेद कबूतर उड़ाकर मेले का उद्घाटन किया.

गंगा-जमुनी तहजीब के लिए जाना जाता है मेला

उत्तर प्रदेश का बाराबंकी जिला हिन्दू मुस्लिम एकता भाईचारा गंगा-जमुनी तहजीब के लिए जाना जाता है यहां से यह संदेश जाता है कि ‘जो रब है वही राम है’. देवा की पवित्र धरती पर यह अनोखी मिसाल हर वर्ष देखने को मिलती है एक अनोखी मिशाल देखने को मिलती है यहां वर्ष में देवा शरीफ में लगने वाले मेले में एक अलग ही संदेश दिया जाता है कौमी एकता भाईचारा का. 

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बाराबंकी के DM शशांक त्रिपाठी की पत्नी शैलजा त्रिपाठी ने मेले का शुभारंभ करते हुए बोलीं कि इस मेले का उद्घाटन कर वो गौरवान्वित महसूस कर रही हैं. उन्होंने मेले की मुख्य थीम 'जो रब है वही राम' के साथ-साथ 'विरासत और विकास' की भी प्रशंसा की. उन्होंने कहा कि देवा मेला सिर्फ एक मेला नहीं, बल्कि प्रेम, सद्भाव और धार्मिक सौहार्द का प्रतीक है. उन्होंने बताया कि देवा मेला सांस्कृतिक विरासत और परंपराओं को सहेजने का काम करता है. इस अवसर पर उन्होंने मेले के सफल आयोजन के लिए शुभकामनाएं भी दीं. 

9 दिन चलेगा यह मेला

बाराबंकी का यह मेला 8 अक्टूबर से 17 अक्टूबर तक चलेगा.  मेले की शुरुआत सूफी संत हाजी वारिस अली शाह के पिता सैयद कुर्बान अली शाह, जिन्हें दादा मियां भी कहते हैं, की मजार पर पारंपरिक चादर पेश करने के साथ हुई. इस मेले का महत्व यह है कि यह मेला सूफी संत हाजी वारिस अली शाह के वार्षिक उर्स (पुण्यतिथि) के अवसर पर आयोजित होता है. 

इसे कौमी एकता और भाईचारे का संदेश देने वाले मेले के रूप में जाना जाता है, हाजी वारिस अली शाह के एक हिंदू मित्र, राजा पंचम सिंह ने उनकी मजार का निर्माण करवाया था. यह ऐतिहासिक तथ्य ही हिंदू-मुस्लिम एकता की मजबूत नींव को दर्शाता है. देवा शरीफ की दरगाह पर होली का त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है, जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदाय के लोग शामिल होते हैं.

 प्रेम और सौहार्द का संदेश देता है मेला

 यह एक अनूठी परंपरा है जो धार्मिक सद्भाव को मजबूत करती है. मेले का मुख्य प्रवेश द्वार 'कौमी एकता द्वार' कहलाता है, जो राष्ट्रीय एकता के संदेश को उजागर करता है. मेले की शुरुआत हाजी वारिस अली शाह ने अपने पिता की याद में की थी, और यह आज तक प्रेम और सौहार्द का संदेश देता आ रहा है. इन सभी कारणों से, देवा मेला वास्तव में एक ऐसा आयोजन है, जहाँ जात-धर्म की दीवारें टूटती हैं और लोग सद्भाव और एकता के साथ एक दूसरे के करीब आते हैं. 

हाजी वारिस अली शाह की यह दरगाह सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक है, जिसे गंगा-जमुनी तहजीब के रूप में भी जाना जाता है. मेले में मुशायरा, कवि सम्मेलन, सांस्कृतिक प्रस्तुतियां और खेल प्रतियोगिताएं भी होती हैं. मेले में उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों के खास हस्तशिल्प उत्पाद भी देखने को मिलते हैं.देवा मेले का मशहूर हलवा-परांठा लोगों को बहुत पसंद आता है. 

ये चीजें हैं आकर्षण का केंद्र

यहां खाने-पीने की सैकड़ों दुकानें लगती हैं, जिनमें लखनवी कबाब, बिरयानी, मिठाइयां और खजला जैसे स्वादिष्ट व्यंजन मिलते हैं. मेले में बच्चों के लिए खिलौने और घर के काम आने वाली अलग-अलग चीजें भी मिलती हैं. यह मेला अपने बड़े पशु बाजार के लिए प्रसिद्ध है.

मेले में तरह-तरह की क्रॉकरी और झुमके जैसे आभूषण भी बेचे जाते हैं. देवा मेले में न सिर्फ उत्तर प्रदेश से, बल्कि पूरे देश और यहाँ तक कि विदेशों से भी बड़ी संख्या में जायरीन (तीर्थयात्री) आते हैं.