Khargone: पेशा चाहे कोई भी हो उसमें नवीनता और प्रयोग के साथ आत्मविश्वास हमेशा इंसान की आगे बढ़ने में मदद करता है. ऐसे ही नवाचार मध्यप्रदेश के महेश्वर में इटावदी गांव के किसान ने मेडिशनल खेती को लेकर किए हैं. जिन्हें हम किसान जड़ीबूटी फॉर्मर मेडिसिन वाला वाला कह सकते हैं. साल 1999 में भोपाल में सेडमैप द्वारा एक प्रशिक्षण आयोजित किया गया. इस प्रशिक्षण में 20 साल पहले कला में स्नातक की डिग्री लेने वाले मोहन पाटीदार भी पहुंचे. तभी इनका परिचय औषधीय खेती सफेद मूसली से हुआ. वापस आने के बाद मोहन ने अपने खेत में सफेद मूसली की खेती करने का फैसला किया.


इसके लिए उन्होंने बैंक से 1 लाख रुपये का लोन लिया. जिसके बाद महाराष्ट्र से सफेद मूसली के बीज मंगवाकर उन्होंने खेती में नए प्रयोग की शुरुआत की. तब से लेकर आज तक वो सफेद मूसली की लगातार खेती करते रहे हैं. इस बीच उनकी जिंदगी में कई तरह के उतार चढ़ाव भी आए. कभी खेती में मुनाफा हुआ तो कभी घाटा भी, लेकिन वो कभी सफेद मूसली की खेती करना नहीं भूले. सिर्फ सफेद मूसली ही नहीं इसके बाद उन्होंने अश्वगंधा, अदरक और फिर तुलसी व किनोवा और अब अकरकरा की औषधीय फसलों की खेती निसंकोच सफलता के साथ कर रहे हैं.


अरब मूल की खेती करने में भी पीछे नहीं


मोहन सुखदेव पाटीदार के पास अपनी 20 एकड़ भूमि है.इस बार रबी की फसल के तौर पर 1 एकड़ में अरब मूल की फसल अकरकरा को चुना. इसकी खेती में 6 से 8 माह का समय लगता है. इस फसल को सम शीतोष्ण जलवायु में उपजा जाता है. हमारे देश में अकरकरा की उप्र, मप्र, गुजरात, हरियाणा और महाराष्ट्र में खेती की जाती है. अकरकरा को अधिक धूप की जरूरत होती है. पौधों को अंकुरित होने के लिए 20 से 25 डिग्री और विकास के लिए कम से कम 15 और अधिकतम 30 डिग्री तापमान की जरूरत होती है.पकने के समय 35 डिग्री तापमान अधिक उपयुक्त होता है.जिसका मुख्य रूप से चिकित्सा जगत की कई तरह की मेडिसिन में किया जाता है.अकरकरा में उत्तेजक गुण होने के कारण आयुर्वेद में इसे पुरुषों और महिलाओं के उपयोग के लिए लाभकारी माना जाता है. अकरकरा सिरदर्द, सर्दी खांसी, दांत दर्द कम करने में, मुंह में बदबू को दूर करने, मधुर स्वर के लिए, सांस संबंधी समस्याओं में आराम के अलावा दर्जनों बीमारियों या कमजोरी में उपयोग में लायी जाने वाली मेडिसिन में अकरकरा मुख्य है. आयुर्वेद में अकरकरा के फूल, पंचांगण और जड़ का उपयोग औषधि के रूप में किया जाता है. इसका बाजार में 400 रूपये प्रति किलो तक भाव मिलता है.


दक्षिण अमेरिका की सबसे पौषक तत्वों वाली फसल


किनोवा एक बथुवा प्रजाति का पौधा है बड़े पैमाने पर इसकी खेती दक्षिण अमेरिकी देशों में की जाती है. किनोवा में बहुतायत में प्रोटीन होने से इसको सबसे अच्छे पौष्टिक अनाज के रूप में जाना जाता है. इसके 100 दाने में 14 ग्राम प्रोटीन, 7 ग्राम डायटरी फाइबर, 197 मिग्रा. मैग्नीशियम, 563 मिग्रा. पोटेशियम और 5 मिग्रा. विटामिन भी पाया जाता है. इसका अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में 50 हजार रुपये से 1 लाख रुपये प्रति क्विंटल तक का भाव मिलता है. किनोवा का सबसे ज्यादा उपयोग रोजाना सुबह नाश्ते में किया जाता है. जिससे वजन कम करने और मधुमेह को नियंत्रण करने में लाभ होता है.इसे वजन घटाने में सुपर फूड भी माना जाता है. इसके अलावा ह्रदय को स्वस्थ रखने, त्वचा चमकाने, डायबिटीज में फायदे, अनीमिया, पाचन क्रिया और हड्डियों को भी मजबूत बनाने में किया जाता है.


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तुलसी की खेती से होगा लाभ


मोहन ने अभी अभी खरीफ की फसल के रूप में तुलसी का उत्पादन लिया है. तुलसी की खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी सबसे ज्यादा उपयुक्त होती है. जून-जुलाई में नर्सरी तैयार की जाती है.तुलसी के औषधीय गुणों के अलावा किसी भी घर में तुलसी के पौधे की मौजूदगी तनाव को दूर करने में मदद करती है.इस पौधे को घर में रखने से वायु शुद्ध होती है.ऐसा माना जाता है कि तुलसी का पौधा हवा से जहरीली गैसों जैसे सल्फर डाइऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड आदि को अवशोषित करता है.पौधा एक सुखद सुगंध पैदा करता है, जो आसपास को ताजा रखता है.


जैविक खेती के लिए मलेशिया में मिला सम्मान


मोहन ने बताया निमाड़ के वो उन किसानों में शुमार है.जो लगातार 20 सालों से सफेद मुसली की खेती कर लुप्त बीजों को सहेजने का काम भी कर रहे हैं. इसके बीजों को संवर्धित करने का तरीका भी नायाब है. इनके द्वारा बीजों को फसल आने के बाद जमीन में ही रहने दिया जाता है. भूमि अंदर ही दो से चार माह तक कोल्ड स्टोरेज के रूप में रखते हैं. जैसे ही किसानों के ऑर्डर मिलते हैं निकाल कर बेंच देते हैं. इस फसल को बचाए रखने और संवर्धन के लिए मोहन पाटीदार को साल 2018 में मलेशिया की कॉमलवेल्थ वोकेशनल यूनिवर्सिटी द्वारा प्रषस्ति पत्र देकर सम्मानित किया गया.


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