Chhattisgarh News: सूरजपुर जिले मे बांस से सामान बनाने का काम कई दशकों से किया जा रहा है. एक समाज के लोग परंपरागत रूप से इसका व्यवसाय करते हैं. इनमें से बांस के कई सामान आधुनिकता के अंधेरे में गुम होते जा रहे हैं. हैरानी की बात है कि बांस का काम करने की वजह से समाज की जाति भी बदल दी गई थी. इस मुद्दे पर बात करते हुए इस समाज के लोग आज भी मायूस हो जाते हैं. समाज के लोगों को पहले वन विभाग के डीपो से बांस सस्ते में मिल जाता था. अब काम के लिए गांव गांव भटक कर मनमाने कीमत पर बांस खरीदना पड़ रहा है. महंगे बांस ने आर्थिक सेहत को बिगाड़ दिया है. 


बांस के सामान और बर्तन बनाकर जीवन यापन


बृजनगर, खुंटापारा, कल्याणपुर और सोनवाही गांव आज भी पूरे संभाग में बांस से बने सामान की आपूर्ति के लिए मशहूर हैं. बसौर (बसौड) जाति पीढ़ी दर पीढ़ी बांस के सामान और बर्तन बनाकर जीवन यापन कर रही है. बांस से आमतौर पर सूपा, मोरा, दौरी, झांपी, बेना और पेटी बनाया जाता है. बांस निर्मित सूपा गेंहू, धान को साफ करने के काम आता है. मोरा की मदद से धान को खेत से खलिहान तक लाया जाता है. दौरी का उपयोग खासतौर पर शादी विवाह में मिठाई या अन्य सामग्री रखने के लिए किया जाता है. झांपी में बर्तन और आभूषण रखकर ऊपर से बंद किया जा सकता है. बेनी गर्मी से राहत के लिए पंखे का काम करता है. बांस की पेटी में कपड़ा या अन्य सामान रखा जाता है.


मनरेगा के काम में बांस से बनी झलगी की अच्छी खासी डिमांड होती है. इसका इस्तेमाल मिट्टी ढोने के लिए होता है. बांस से बने उत्पाद को पहले बाजार बाजार घूम कर बेचे जाते थे. लेकिन आधुनिक समय में बांस से बने सामानों का विकल्प कई अन्य धातु के बर्तनों ने ले लिया है. खासकर प्लास्टिक के कारण बांस से बने सामान का अब बाजार में बिकना मुश्किल हो गया है. बांस निर्मित सामान को अब गांव में ही आने वाले व्यापारी से बेच दिया जाता है. बांस का सामान बनाने वाले लोगों से बात करने पर पता चला कि एक जोडे झलगी की कीमत खुदरा बाजार में 300 रुपए है. गांव आने वाला व्यापारी थोक के हिसाब से 200 रुपए में ले जाता है. 160-170 रुपए में बिकने वाला सूपा और मोरा को 130 रुपए में व्यापारी खरीद लेता है. झांपी, दौरी जैसे प्रोडक्ट को बसौर जाति के लोग ऑर्डर पर बनाते हैं क्योंकि अब इसकी मांग कम हो गई है. केवल शादी विवाह में डिमांड बची है. गौरतलब है कि सामान की बिक्री के लिए निश्चित और उचित बाजार नहीं होने और बांस के सामानों की डिमांड कम होने के कारण गांव में ही व्यापारी के हाथों बेचना पड़ता है.


बांस का काम करने की वजह से बदल दी गई जाति


बृजनगर के दिव्यांग केंदाराम बसौर बताते हैं कि बांस का काम करनेवाले तीन अन्य परिवारों की जाति तुरी थी. लेकिन आज से करीब 25 साल पहले जब बांस लेने के लिए अम्बिकापुर और लटोरी स्थित वन विभाग के डीपो जाते थे तब बांस का काम करने की वजह से बसौर जाति लिख दिया जाता. धमकी दी जाती थी कि ऐसा नहीं करने पर डीपो से बांस नहीं मिलेगा. केंदाराम कहते हैं कि अशिक्षित और गरीबी के कारण बात सुनकर डर लग गया और रोजी रोटी के कारण बसौर जाति अपनाना पड़ा. आज डिपो में बांस नहीं मिलने की बात पर उन्होंने कहा कि पहले वन विभाग के दरोगा, सिपाही गांव में खबर देने आते थे कि डीपो में बांस गिर गया है. जाकर जल्दी ले आओ. लेकिन अब वन विभाग के डीपो से बांस नहीं मिलने के कारण आस पास से महंगे दाम पर खरीदना पड़ रहा है. बृजनगर के ही राम भरोस बसौर बताते हैं कि तुरी जाति के नाम से अम्बिकापुर के पास क्रांतिप्रकाशपुर में कागजों पर सेटलमेंट की जमीन है. लेकिन सिर्फ रिकॉर्ड में ही है, जमीन सतह पर नहीं है.


राम भरोस के मुताबिक उनके दादा गोपाल काम के सिलसिले में क्रांतिप्रकाशपुर छोड़कर बृजनगर आए थे. बांस का काम करने की वजह से गांव के लोगों ने दादा जी समेत तीन और परिवार को जमीन दी. बाद में परिवार बढ़ा और अब जमीन के इतने टुकडे हो गए हैं कि खेती के लिए थोड़ी जमीन बची है. इसलिए बांस का काम करके ही परिवार का गुजारा करना पड़ रहा है. प्रभारी डीएफओ बी एस भगत से जाति बदलने के संबंध में बात की गई तो उन्होंने कहा कि ये सही है कि बसौर जाति के लोग इधर नहीं है. उनकी जाति में कैसे बदलाव हुआ, इसकी जानकारी नहीं है क्योंकि ये मामला राजस्व से जुड़ता है. जब डीएफओ से ये सवाल किया गया कि अब डीपो में बांस क्यों नहीं मिलता है तो उन्होंने कहा कि अभी बांस खत्म हो गया है. उसका प्लांटेशन किया गया है. इसलिए बिक्री के लिए डीपो में नहीं है.


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