Chhattisgarh Latest News: छत्तीसगढ़ का आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र बस्तर आदिवासियों की परंपरा और यहां के रीति-रिवाज के लिए जाना जाता है. सैकड़ों साल पुरानी परंपराओं को आज भी बस्तर के आदिवासी बखूबी निभाते हैं और आज भी मड़ई मेले का आयोजन करते हैं. कांकेर जिले में भी रियासत काल से चली आ रही करीब 200 साल पुरानी परंपरा निभाई गई. इस परंपरा के तहत चार दिनों का मड़ई मेला आयोजन किया गया, जिसमें कांकेर जिले और आसपास के जिलों के सभी देवी देवताओं को एक जगह इकट्ठे किया जाता है और जिसके बाद उनकी पूजा-अर्चना की जाती है.

यह मेला 4 दिनों तक चलता है और इस मेले की खास बात यह रहती है कि इसमें आदिवासियों की परंपरा झलकती है, साथ ही आदिवासी किसान अपने पैदावार धान को बेचकर पैसे आने के बाद किसान इस मड़ाई मेला में अपने परिवार और घर के लिए जमकर खरीददारी करते हैं, आदिवासियों का मानना है कि इस आयोजन से भगवान खुश होते हैं और इस मेले में पहुंचने वाले सैकड़ों देवी-देवताओं से नए साल में भी अच्छी फसल हो इसकी कामना करते हैं.

200 सालों से निभाई जा रही मड़ई मेले की परंपरा

कांकेर राज परिवार के सदस्य अश्वनी प्रताप देव ने बताया कि ऐतिहासिक महत्व वाले कांकेर मेले की शुरुआत बस्तर रियासत में करीब 1800 ई.  में की गई थी, राजपाठ करने वाले राजा नरहरदेव ने अपने शासनकाल में इस मंड़ई मेले का आयोजन किया था, यह मेला शहर के बीचो बीच टिकरापारा के मैदान में किया जाता रहा है, और आज भी यह मेला वही लगता है, यही कारण है कि इस मैदान का नाम ही मेलाभाठा रखा गया है, कांकेर मेला का आयोजन हर नए साल के पहले महीने के पहले सप्ताह  में किया जाता है.

हालांकि आधुनिक युग में मेले का स्वरूप  बदल चुका है, लेकिन रौनक आज भी बरकरार है, इस मेले में बस्तर संभाग के दूर-दूर से व्यापारी आते हैं, इसके अलावा इस मेले में परंपराओं का निर्वाह विधि विधान पूर्वक किया जाता है, और मेले के आसपास के देव भी विग्रह लाकर ढाई परिक्रमा कराई जाती है.

शीतला माता देवी मंदिर से पारंपरिक गाजे-बाजे के साथ देवी देवताओं को बकायदा राज महल लाया जाता है. राज महल में राज परिवार के सदस्यों द्वारा आंगा देव और डांग देव की पूजा अर्चना कर लोगों के सुख शांति की कामना की जाती है, जिसके बाद देवी देवताओं को मेला मड़ई स्थल देवखूटा लाया जाता है, और जहां पर देवी-देवताओं की टोली के द्वारा ढाई परिक्रमा कर रियासत कालीन मेले की शुरुआत की जाती है, और यह मेला करीब 4 दिनों तक चलता है. इस दौरान बड़ी संख्या में स्थानीय ग्रामीणों के साथ संभाग के अन्य जिलों से भी सैकड़ों आदिवासी मड़ई मेला में शामिल होते हैं.

आदिवासी होते हैं प्रकृति के उपासक

गौरतलब है कि बस्तर के आदिवासी प्रकृति के उपासक है और जंगल, नदी, जमीन पहाड़ को पूजते है, यहां दिसबंर से ही देव मेला की शुरुआत हो जाती है. किसान अपने अन्न की अच्छी पैदावार के लिए मड़ई का आयोजन करते हैं. लोगों का मानना है कि मड़ई के आयोजन से भगवान खुश होते हैं. देवी-देवताओं को इकट्ठा कर गांव, शहर और विकास के किए मनोकामना की जाती है.

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