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इतिहास के पन्नों में सिमटा तिरहुत रेलवे, कभी अपनी शान-ओ-शौकत के लिए था मशहूर

1934 में आए विनाशकारी भूकंप ने मिथिलांचल में बिछी रेल पटरीयों को काफी नुकसान पहुंचाया. खासकर दरभंगा-सहरसा लाइन जो मिथिलांचल की हृदय रेखा कही जाती थी और इसी ने मिथिलांचल को जोड़ रखा था.

दरभंगा: देश में 16 अप्रैल 1853 को बोरीबंदर और थाणे के बीच पहली ट्रेन चली थी. वहीं बिहार में 1874 में दरभंगा के महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह ने तिरहुत रेलवे की शुरूआत की थी. आजादी से पहले भारत में कई प्राइवेट रेल कंपनी चल रही थी. तिरहुत रेलवे उनमें से एक थी जिसे दरभंगा स्टेट चला रहा था.

लार्ड लारेंस इंजन ने खींची थी पहली ट्रेन

पूर्वोत्तर रेलवे में सबसे पहले चलने वाले इंजन का नाम लार्ड लारेंस है, जिसने 1874 में पहली ट्रेन खींची थी. इस इंजन को लंदन से समुद्र के जरिए बड़ी नाव पर रखकर कोलकाता तक लाया गया था. इसी इंजन से पहली बार दरभंगा तक राहत सामग्री पहुंचाई गई थी. भारत में रेलवे का सफर शुरू होने के दो दशक बाद यानी ठीक 21 वर्ष बाद पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तर बिहार में पूर्वोत्तर रेलवे का उद्भव हुआ.

इतिहास के पन्नों में सिमटा तिरहुत रेलवे, कभी अपनी शान-ओ-शौकत के लिए था मशहूर

15 अप्रैल 1874 को दरभंगा के महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह ने तिरहुत रेलवे की शुरूआत की थी. वाजितपुर (समस्तीपुर) और दरभंगा के बीच यह पहली ट्रेन चली थी. तब, रेलगाड़ी राहत सामग्री ढोने के लिए चलाई गई थी. दरअसल, 1874 में पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तर बिहार में भीषण अकाल पड़ा था. ऐसे में निर्धारित समय में लोगों तक राहत सामग्री पहुंचाना मुश्किल था. खाद्यान्न और पशु चारा पहुंचाने के लिए वाजितपुर और दरभंगा के बीच 51 किमी रेल लाइन का निर्माण मात्र 60 दिन में किया गया.

इसी रेल लाइन पर पहली बार रेलगाड़ी राहत सामग्री लेकर दरभंगा तक गई थी. इसके बाद यह रेल लाइन इस अविकसित क्षेत्र में परिवहन का प्रमुख माध्यम बन गई. जुलाई 1890 तक रेल लाइन का विस्तार 491 किमी तक हो गया. इस रेल लाइन का नाम तिरहुत रेलवे पड़ गया.

इतिहास के पन्नों में सिमटा तिरहुत रेलवे, कभी अपनी शान-ओ-शौकत के लिए था मशहूर

पूरे उत्तर बिहार में इसका जाल फैला हुआ था. 1875 में दलसिंहसराय से समस्तीपुर, 1877 में समस्तीपुर से मुजफ्फरपुर, 1883 में मुजफ्फरपुर से मोतिहारी, 1883 में ही मोतिहारी से बेतिया, 1890 में दरभंगा से सीतामढ़ी, 1900 में हाजीपुर से बछवाड़ा, 1905 में सकरी से जयनगर, 1907 में नरकटियागंज से बगहा, 1912 में समस्तीपुर से खगड़िया आदि रेलखंड बनाए गए.

अवध-तिरहुत रेलवे की नींव

1886 में अवध के नवाब अकरम हुसैन और दरभंगा के राजा लक्ष्मीश्वर सिंह दोनों ही शाही परिषद के सदस्य चुने गए, जिसके बाद 1886 में अवध और तिरहुत रेलवे में ये समझ बनी कि दोनों क्षेत्रों के बीच आना-जाना सुगम किया जाए. बिहार के सोनपुर से अवध (उत्तरप्रदेश का इलाका) के बहराइच तक रेल लाइन बिछाने के लिए 23 अक्तूबर 1882 को अवध-तिरहुत का गठन किया गया.

दरअसल, महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह किसानों की जमीन बेवजह रेलवे द्वारा अधिग्रहित किए जाने से नाराज थे इसलिए उन्होंने शाही परिषद, जो अब का राज्यसभा है, उसमें भूमि अधिग्रहण के लिए कानून बनाने का प्रस्ताव दिया. रेलवे के अंदर इस बात को लेकर नाराजगी थी जिसके कारण 1896 में सरकार, बंगाल और नार्थ वेस्टर्न रेलवे के बीच हुए एक करार के मुताबिक बंगाल और नार्थ वेस्टर्न रेलवे ने तिरहुत रेलवे के कामकाज को अपने हाथ में ले लिया.

दरभंगा में थे तीन रेलवे स्टेशन

दरभंगा स्टेट ने दरभंगा में तीन रेलवे स्टेशन बनाए. आम लोगों के लिए पहला हराही (अब दरभंगा रेलवे स्टेशन ), दूसरा अंग्रेजों के लिए लहेरियासराय (जहां दरभंगा जिला मुख्यालय है) और तीसरा नरगौना टर्मिनल जो महाराज के महल नरगौना पैलेस तक जाता था. भारत में नरगौना पैलेस ही एक ऐसा महल था जिसके परिसर में रेलवे स्टेशन था.

तिरहुत रेलवे कंपनी का सैलून

तिरहुत रेलवे के प्रोपराइटर और दरभंगा महाराज के सैलून में देश के सभी बड़े नेताओं ने यात्रा की. इसमें देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद, डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णनन, मदन मोहन मालवीय से लेकर तमाम बड़े नेता शामिल थे. दिलचस्प बात यह है कि सिर्फ गांधी ही ऐसे नेता थे जिन्होंने सैलून का इस्तेमाल कभी नहीं किया. उन्होंने हमेशा तीसरे दर्जे में ही यात्रा की.

तिरहुत रेलवे पहली ऐसी कंपनी थी, जिसने थर्ड क्लास या तीसरे दर्जे में शौचालय और पंखे की सुविधा दी थी. दरअसल, गांधी जी जब तिरहुत रेलवे के पैसेंजर बनने वाले थे और ये तय था कि वो तीसरे दर्जे में यात्रा करेंगें तो दरभंगा महाराज रामेश्वर सिंह ने रेलवे को पत्र लिखा कि शौचालय की सुविधा होनी चाहिए, जिसके बाद तीसरे दर्जे में शौचालय बना जिसे गांधी जी के साथ-साथ जनता ने भी इस्तेमाल किया. बाद में तीसरे दर्जे में पंखे भी लगे. यानी तिरहुत रेलवे ऐसा रेलवे था जो बेहद कम टिकट दरों पर जनता को बेहतर सुविधाएं देता था.

तिरहुत रेलवे कंपनी के पास बड़ी लाइन और छोटी लाइन के लिए कुल दो सैलून यानि पैलेस ऑन व्हील थे. इसमें कुल चार डिब्बे थे. पहला डिब्बा बैठक खाना और बेडरूम था, दूसरा डिब्बा स्टॉफ के लिए तीसरा डिब्बा पैंट्री और चौथा डिब्बा अतिथियों के लिए होता था. सैलून में बेड था जिसपर सोने चांदी जड़ी हुई थी और दरभंगा राज का प्रतीक चिन्ह एवं मछली की आकृति उकेरी गई थी. इन सैलून में महाराज के लिए बने बेडरूम का नाम नरगौना सूट था वहीं महारानी के लिए बने सूट का नाम रामबाग सूट था.

इस सैलून के वॉशरूम में यूरोपियन कमोड और बाथटब लगा हुआ था.बड़ी रेल लाइन का सैलून बरौनी में रहता था जबकि छोटी लाइन का सैलून नरगौना टर्मिनल पर रहता था.महाराज या जब उनके अतिथि को सफर करना होता था, तो ये सैलून उन्हीं ट्रेनों में जोड़ दिए जाते थे, जिससे आम लोग यात्रा करते थे.

यात्रियों की सुविधा के लिए चलते थे स्टीमर

रेल परिचालन जब शुरू हुआ तब गंगा नदी पर पुल नहीं बना था, जिसके चलते यात्रियों को नदी के एक छोर से दूसरे छोर पर जाने के लिए स्टीमर सेवा उपलब्ध कराई गई थी. तिरहुत रेलवे के पास 1881-82 में चार स्टीमर थे, जिसमें से दो पैडल स्टीमर 'ईगल' और 'बाड़' थे. जबकि दो क्रू स्टीमर 'फ्लोक्स' और 'सिल्फ' थे. ये स्टीमर बाढ़-सुल्तानपुर घाट के बीच और मोकामा-सिमरीया घाट के बीच चलते थे. गंगा पर कोई पुल ना होने की वजह से लोग स्टीमर पर बैठकर आते थे

1934 के भूकंप ने मिथिलांचल को दो भागों बांटा

1934 में आए विनाशकारी भूकंप ने मिथिलांचल में बिछी रेल पटरीयों को काफी नुकसान पहुंचाया. खासकर दरभंगा-सहरसा लाइन जो मिथिलांचल की हृदय रेखा कही जाती थी और इसी ने मिथिलांचल को जोड़ रखा था. तिरहुत रेलवे की पटरियां जो 1934 के भूकंप में नष्ट हुई, दोबारा बनी ही नहीं, नतीजा मिथिलांचल दो भागों में बंट गया. बेटी-रोटी के संबंध से ले रोजी-रोजगार, व्यापार, आवागमन सबकुछ बर्बाद हो गया.

प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने किया था उद्घाटन

बता दें कि 14 अप्रैल 1952 को दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अवध-तिरहुत रेलवे, बॉम्बे-बड़ोदा, असम रेलवे और सेन्ट्रल इंडिया रेलवे के फतेहगढ़ को मिलाकर "पूर्वोत्तर रेलवे" नाम से उद्घाटन किया. बाद में इसे पूर्वोत्तर रेलवे के नाम से जाना जाने लगा.

तिरहुत रेलवे के डब्बों के अवशेष भी नहीं रहे

1973 में बरौनी में जो पैलेस ऑन व्हील खड़ा था, उसमें लूटपाट करके आग लगा दी गई. 1982 में नरगौना में खड़े हीरे-जवाहरात और सोने-चांदी से जड़े पैलेस ऑन व्हील को कबाड़ में बेच दिया गया. 1950 में रेलवे का राष्ट्रीयकरण हुआ. लेकिन तस्वीरों में जो समृद्धि से भरे रेलवे के डिब्बे नजर आते हैं, उसके अवशेष अब न के बराबर बचे हैं.

जबकि रेल लाइन जो तिरहुत रेलवे ने बिछाई उस का इस्तेमाल आज भी होता है. आज हालात यह हैं कि हमारे इतिहास, परंपरा को तो सरकारों ने नष्ट किया ही दरभंगा महाराज ने जो रेलवे का जनपक्षीय मॉडल अपनाया, सरकार अगर उसका अनुश्रवण कर ले तो आम लोगों को काफी फायदा मिलेगा.

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