आ गले लग जा मुबारक हो तुझे मेरे रकीब, कल तलक जो शख्स मेरा था वो तेरा हो गया..., ताहिर फराज का ये शेर बिहार की राजनीति में आज एकदम फिट बैठता है. दशकों तक नीतीश कुमार का दाहिना हाथ रहे आरसीपी सिंह अब  जेडीयू छोड़ कर बीजेपी में शामिल हो गए हैं. एक वक्त था जब नीतीश से इनकी नजदीकी के चर्चे होते थे तो लगता था कि इंदिरा गांधी और आरके धवन की जोड़ी है. आरसीपी सिंह जेडीयू से अलग तो पहले ही हो गए थे. अब आरसीपी सिंह का बीजेपी में शामिल हो गए हैं.


एक साल बाद देश में लोकसभा के चुनाव हैं और बीजेपी बिहार से एक बड़े नेता की तलाश में थी. अब आरसीपी के रूप में बीजेपी को एक बड़ा चेहरा मिल सकता है. आरसीपी सिंह को जेडीयू छोड़ने के बाद एक नई राजनीतिक यात्रा शुरू करने में लगभग नौ महीने लग गए. सिंह को कभी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की परछाई और सबसे अच्छा दोस्त माना जाता था, लेकिन नीतीश और सिंह के बीच आज कड़वाहट घुल गई है. 


1996 में हुई नीतीश से मुलाकात और बढ़ती गई दोनों की दोस्ती


आरसीपी सिंह की नीतीश से पहली मुलाकात 1996 में हुई थी. उस दौरान आरसीपी सिंह तत्कालीन केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा के निजी सचिव हुआ करते थे. बेनी प्रसाद ने ही नीतीश और सिंह की मुलाकात करवाई थी. एक मुलाकात के बाद दोनों की बीच करीबी बढ़ती गई. जब नीतीश केंद्रीय रेल मंत्री बने, तो सिंह उनके विशेष सचिव बन गए.


साल नवंबर 2005 में नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने और आरसीपी सिंह को अपना प्रधान सचिव बनाया. राजनीतिक और प्रशासनिक हलकों में लोग आरसीपी सिंह को 'आरसीपी सर' के नाम से जानने लगे. इस तरह सिंह का कद बढ़ता गया. कुछ लोगों ने तो दोनों की तुलना पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और आर. के. धवन  से भी करनी शुरू कर दी थी. 


सिंह ने 2010 में आईएएस से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली और नीतीश ने तुरंत उन्हें राज्यसभा का टिकट दे दिया. 2016 में नीतीश ने उन्हें फिर से राज्य सभा के लिए नामित किया. दिसंबर 2020 में जब बिहार के सीएम ने जद (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद छोड़ा तो सिंह ने ही पार्टी की बागडोर संभाली. 


बिहार की राजनीति हलकों में ये कयास भी लगने लगे थे कि जनता दल यूनाइटेड में विभाजन हो जाएगा. बहुत सारे लोग आरसीपी के साथ चले जाएंगे. लेकिन तब तक ऐसा नहीं हुआ था.


लंबे समय तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे नीतीश कुमार और उत्तर प्रदेश कॉडर के आईएएस अधिकारी सिंह का आमना-सामना जरूर होता आया होगा, लेकिन दो दशकों में दोनों जितने करीब आए वो राजनीति से परे था. सिंह ने ये भी साबित किया कि नीतीश के प्रति उनकी वफादारी राजनीति से परे थी. 


जेडीयू में आरसीपी का कद कितना बड़ा?


पार्टी में भी आरसीपी सिंह की पकड़ बढ़ती गई. उनके बारे में बिहार विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने सार्वजनिक तौर पर आरोप लगाया कि बिहार में हर नियुक्ति-तबादले में एक आरसीपी टैक्स देना होता है.


उसी दौरान  जेडीयू के अंदर संसाधनों के इंतजाम का जिम्मा भी आरसीपी सिंह के इर्द गिर्द सिमटता गया. 2010 में उन्होंने आईएएस से इस्तीफ़ा दिया और नीतीश कुमार ने उन्हें राज्यसभा भेजा. साल 2016 में वे पार्टी की ओर से दोबारा राज्यसभा पहुंचे और शरद यादव की जगह राज्यसभा में पार्टी के नेता भी मनोनीत किए गए.


एक नौकरशाह होने का बावजूद पार्टी के कार्यकर्ताओं तक उनसे जुड़ते चले गए. वे सहजता से सबके लिए उपलब्ध रहते थे. कार्यकर्ताओं के साथ इसी जुड़ाव ने आरसीपी सिंह को जनता दल यूनाइटेड का सबसे महत्तवपूर्ण शख्स बना दिया.


धीरे-धीरे टूटा नीतीश का भ्रम


आरसीपी सिंह भी अपनी सभी राजनीतिक उपलब्धियों का श्रेय नीतीश को दे रहे थे. नीतीश कुमार को उम्मीद थी कि वो एक नौकरशाह को राजनेता बना कर लाए हैं, और एक नौकरशाह के तौर पर सिंह हमेशा सुर्खियों से दूर रह के अपना काम करते रहेंगे, लेकिन आरसीपी सिंह की कई बड़ी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं थीं. इन्हीं राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने धीरे-धीरे नीतीश कुमार का भ्रम तोड़ दिया. जेडीयू में कई लोगों ने भी ये नहीं सोचा था आरसीपी सिंह कभी भी समानांतर सत्ता केंद्र के रूप में उभरने की कोशिश करेंगे. 


नीतीश और आरसीपी सिंह में समानता ये है कि दोनों ही बिहार के नालंदा जिले से आते हैं. दोनों ही कुर्मी जाति से ताल्लुक रखते हैं. इसके बावजूद दोनों एक दूसरे से कई मामलों में काफी अलग हैं. एक नेता के तौर पर नीतीश को अपने पहले दो चुनावों में झटका लग चुका है. वहीं 1984 बैच के आईएएस अधिकारी सिंह को सब कुछ थाली में परोस कर मिलता रहा. 


नीतीश ने ठुकराया बीजेपी का ऑफर, आरसीपी सिंह ने मौके का उठाया फायदा


जुलाई 2021 में आरसीपी सिंह को पीएम नरेन्द्र मोदी ने केंद्रीय मंत्री बनाया. यही वो समय था जब नीतीश और सिंह के बीच की दोस्ती में दरार पैदा होना शुरू हो गई. नीतीश ने 2019 में मंत्रिमंडल गठन के दौरान बीजेपी का ऑफर ठुकरा दिया था. बीजेपी जद (यू )को सिर्फ एक मंत्री पद की पेशकश कर रही थी. दो साल बाद जब बीजेपी ने जद (यू) को एक मंत्रालय की पेशकश की, तो नीतीश दो मंत्री पद की मांग पर अड़े थे. इसके बाद से लेकर बिहार विधानसभा चुनाव तक आरसीपी सिंह बहुत सक्रिय नहीं दिखे थे.


नीतीश  कुमार के आस पास अशोक चौधरी, ललन सिंह जैसे नेता ज्यादा दिखने लगे थे. आरसीपी सिंह नीतीश के साथ किसी समारोह में भी नहीं दिखे. बता दें कि पूरे मामले में बीजेपी के साथ चर्चा करने के लिए तत्कालीन जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष आरसीपी सिंह को नियुक्त किया जा चुका था.


जुलाई 2021में मोदी मंत्रिमंडल विस्तार  के दौरान जेडीयू से महज एक प्रतिनिधि को चुना गया. वो नाम था आरसीपी सिंह. सिंह को इस्पात मंत्रालय दिया गया. कई जेडीयू नेताओं ने आरोप लगाया कि उन्होंने नीतीश से कोई बात किए बिना ही पद के लिए अपने नाम को आगे बढ़ाया है. सिंह पर पार्टी अध्यक्ष के रूप में अपने पद का इस्तेमाल करने का भी आरोप लगा. जेडीयू के अंदर सिंह के इस कदम को न सिर्फ माफ न किए जाने वाली गलती के रूप में देखा गया. बल्कि नीतीश के साथ विश्वासघात के रूप में भी देखा गया. 


तमाम बयानबाजी के बावजूद नीतीश ने मामले पर चुप्पी साधना ही सही समझा. उन्होंने इसका जवाब अपने अंदाज में दिया. सिंह को पार्टी प्रमुख का पद खाली करने के लिए कह दिया गया और राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह ने उनकी जगह दे दी गई.


केंद्रीय मंत्री के रूप में कार्यभार संभालने के बाद सिंह पर सवाल उठने लगे. राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर जेडीयू लगातार विरोध कर रही थी, और सिंह ने पूरे मामले पर चुप्पी साध ली थी. नीतीश कुमार बिहार में जाति जनगणना की मांग कर रहे थे, और सिंह पूरे मामले पर कुछ भी बोलने से बच रहे थे. एक बार सिंह ने जमुई में आकर ये तक बोल दिया कि जनगणना राज्य का नहीं केन्द्र का मुद्दा है. मामले पर हमारे नेता बोल ही चुके हैं. 


आरसीपी सिंह केन्द्र में आकर अपनी अलग छवि बनाने की कोशिश में लग गए थे, और पार्टी से सिंह की पकड़ कमजोर होने लगी. जेडीयू ने मई 2022 में सिंह को राज्यसभा के लिए नए सिरे से नामांकन देने से इनकार कर दिया. नतीजतन उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल छोड़ना पड़ा. जेडीयू ने आरसीपी सिंह पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगाए.


यूपी चुनाव में भी जेडीयू और बीजेपी का गठबंधन नहीं हो पाया. सिंह को ही इसका जिम्मेदार माना गया. कई जानकार ये मानते हैं कि आरसीपी सिंह पर बीजेपी का विश्वास नीतीश कुमार की वजह से ही है. इसका इस्तेमाल बीजेपी लोकसभा चुनावों में कर सकती है.


आरसीपी सिंह का जेडीयू छोड़ने के बाद से ही बीजेपी में शामिल होने के कयास लगाए जा रहे थे, जो सही साबित हो गया. लेकिन इससे परे बिहार में आम जनता के बीच नेता के तौर पर उभरने की सिंह की क्षमता पर सवालिया निशान हैं.


सवाल ये भी है कि इस्तीफे के बाद बीजेपी ने सिंह को अपनाने में पूरे 9 महीने का समय क्यों लगाया. क्या बीजेपी सिंह की उपयोगिता के बार में कोई फैसला नहीं ले पा रही थी.