फोन में हमेशा 64, 128 या 256GB जैसे अंकों में ही क्यों मिलता है स्टोरेज, 100GB या 200GB में क्यों नहीं? कंपनियां आखिर क्या छुपा रहीं
सबसे पहली वजह है कि पूरी डिजिटल मेमोरी बाइनरी सिस्टम पर काम करती है. कंप्यूटर और मोबाइल की दुनिया में हर चीज 0 और 1 की भाषा में समझी जाती है. इसी व्यवस्था की वजह से स्टोरेज को दोगुने के पैटर्न में ही बनाया जा सकता है जैसे 32, 64, 128 और 256GB. बाइनरी संरचना के कारण 100 या 200GB जैसे साइज तकनीकी रूप से फिट ही नहीं बैठते इसलिए कंपनियां ऐसे राउंड नंबर्स में स्टोरेज तैयार नहीं कर पातीं.
इसका एक और कारण स्टोरेज चिप की संरचना है. मेमोरी चिप को अगर एक इमारत मानें तो उसके भीतर कई छोटे-छोटे कमरे यानी ब्लॉक बने होते हैं. इन कमरों का साइज एक बार तय हो जाए तो उसे बदला नहीं जा सकता. अगर कोई कंपनी 128GB की बजाय 100GB स्टोरेज बनाना चाहे तो इसका मतलब है कि पूरे स्ट्रक्चर को बदलना पड़ेगा या कई ब्लॉक्स को बर्बाद करना पड़ेगा. यह न सिर्फ तकनीकी रूप से मुश्किल है बल्कि कंपनी के लिए महंगा और नुकसानदायक भी है.
हर मेमोरी चिप में एक कंट्रोलर भी होता है जो यह तय करता है कि डेटा कहां लिखा जाएगा और कैसे डिलीट होगा. यह कंट्रोलर भी 64GB, 128GB और 256GB जैसे स्टैंडर्ड साइज के लिए ही बनाया जाता है. अगर अचानक कोई कंपनी 100GB जैसी असामान्य क्षमता लेकर आ जाए तो कंट्रोलर गड़बड़ा सकता है जिससे फोन स्लो हो सकता है या स्टोरेज करप्ट होने जैसी समस्या आ सकती है.
सॉफ्टवेयर भी एक बड़ा कारण है. Android और iOS जैसे ऑपरेटिंग सिस्टम कई वर्षों से इसी स्टैंडर्ड स्टोरेज स्केल के साथ तैयार किए जाते रहे हैं. यदि बाजार में अचानक गैर-स्टैंडर्ड साइज आ जाए तो सिस्टम उसे ठीक से पहचान नहीं पाएगा और समस्याएं पैदा हो सकती हैं.
इस हिसाब से देखा जाए तो फोन की स्टोरेज छोटे-छोटे तय साइज के ब्लॉक्स से मिलकर बनती है जो बाइनरी लॉजिक में केवल दोगुने आकार में ही जुड़ सकते हैं. यही वजह है कि मोबाइल, लैपटॉप, मेमोरी कार्ड हर जगह 32, 64, 128 और 256GB जैसे वही दोहराते पैटर्न दिखाई देते हैं. ये साइज अब उद्योग के मानक बन चुके हैं और इनके बाहर की कोई भी क्षमता न तो प्रैक्टिकल है और न ही उपयोगी.