Holi 2023: बारूद होली से धधक उठता है मेनार, रातभर होता है तोपों-बंदूकों से युद्ध, देखें फोटो
रंगों का त्यौहार होली को तीन दिन बचे हैं. ऐसे में प्रदेश में लोग अलग-अलग क्षेत्र में होली को अनेकों तरीकों और अपनी परंपरा के अनुसार से मनाते हैं. मेवाड़ में एक ऐसी जगह है जहां पर बारूद की होली खेली जाती है. उदयपुर से करीब 40 किलोमीटर दूर मेवाड़ के मेहतागढ़ मेनार में होली के तीसरे दिन चैत्र कृष्ण द्वितीया को यह होली खेली जाती है. यहां देर रात तक बंदूकें बारूद ऊगलती है, तो तोपों की गर्जनाओं से पूरा मेनार धधक उठता है.
इस बार यह होली 8 मार्च जमरा बीज को मनाई जाएगी. यह परंपरा मेनार के लोग 500 साल से निभाते आ रहे हैं. इसके लिए मेवाड़ वासियों ने तैयारियां शुरू कर दी है. इस होली की देखकर लगता है, यह होली नहीं दीपावली है. जमारबिज की सुबह तलवारों की गेर से पहले गांव के ओंकारेश्वर चबूतरे पर लाल जाजम बिछाई जाती है और इसके साथ ही ग्रामीणों के द्वारा अमल कसूंबे की रस्म अदा की जाती है. फिर दिनभर गांव में अन्य जगहों से आने वाले मेहमानों का स्वागत किया जाता है और होली के पहले बना विशेष खाना खिलाया जाता है. शाम होते ही युवा युद्ध की तैयारी में जुट जाते हैं फिर युद्ध का बिगुल बजता है.
इसमें मशालचियों की अगुवाई में सफेद धोती-कुर्ता और कसूमल पाग पहने ग्रामीणों के पांच दल पांच रास्तों से चारभुजा मंदिर के सामने चौराहा पहुंते हैं. इसके बाद फेरावत के इशारे पर एक साथ सभी रणबांकुर बंदूकों से हवाई फायर करते हैं. चारों तरह आग की लपटें दिखाई देती है, साथ में पटाखे भी छूटते रहते हैं. एक सेकंड ऐसा नहीं होता कि कहीं से बंदूकों, तोपों या पटाखों की आवाजें ना आए. यह भी कुछ देर तक नहीं शाम को शुरू होने के बाद आधी रात के आगे भी चलता रहता है.
मेनार के लोगों ने बताया कि बात तब की है जब मेवाड़ पर महाराणा अमर सिंह का राज्य था. उस समय मेवाड़ की पावन धरा पर जगह-जगह मुगलों की छावनिया (सेना की टुकड़ियां) पड़ी हुई थी. इसी तरह मेनार में भी गांव के पूर्व दिशा में मुगलों ने अपनी छावनी बना रखी थी. इन छावनियों के आतंक से स्त्री-पुरुष दुखी हो उठे थे. इस पर मेनारवासी मेनारिया ब्राह्मण भी मुगल छावनी के आतंक से त्रस्त हो चुके. जब मेनारवासियों को वल्लभनगर छावनी पर विजय का समाचार मिला, तो गांव के लोग ओंकारेश्वर चबूतरे पर इकट्ठे हुए और युद्ध की योजना बनाई गई.
उस समय गांव छोटा और छावनी बड़ी थी. समय की नजाकत को ध्यान में रखते हुए कूटनीति से काम लिया गया. इस कूटनीति के तहत होली का त्यौहार छावनी वालों के साथ मनाना तय हुआ. होली और धुलंडी साथ-साथ मनाई गई. चेत्र माघ कृष्ण पक्ष द्वितीय विक्रम संवंत 1657 की रात्रि को राजवादी गैर का आयोजन किया गया. गैर देखने के लिए छावनी वालों को आमंत्रित किया गया. ढोल ओंकारेश्वर चबूतरे पर नंगी तलवारों, ढालो और हेनियो की सहायता से गैर खेलनी शुरू हुई. अचानक ढोल की आवाज ने रणभेरी का रूप ले लिया.
गांव के वीर छावनी के सैनिकों पर टूट पड़े. रात भर भयंकर युद्ध चला. ओंकार माराज के चबूतरे से शुरु हुई लड़ाई छावनी तक पहुंच गई और मुगलों को मार गिराया और मेवाड़ को मुगलों के आतंक से बचाया. मेनार के इस ऐतिहासिक जमराबिज के पर्व पर ग्रामीण स्वयं व्यवस्था को बनाये रखते हैं. और हर कार्य को बखूबी अपने घर का समझ कर करते है.
इसलिए इस दिन पुलिस जाप्ते की भी आवश्यकता नहीं रहती है और ना ही प्रशासन का कोई कार्य रहता है. ग्रामीण युवा अपने स्तर पर ही सारी जिम्मेदारीयां निभाते हैं और खास बात यह रहती है कि जमराबिज के दिन इतना बारूद बंदूकों से दागा जाता है और तलवारो से गैर नृत्य किया जाता है, लेकिन किसी भी व्यक्ति को कोई आंच तक नहीं आती है.