मंदिरों के झंडे हमेशा त्रिकोण ही क्यों होते हैं, आस्था या विज्ञान आखिर क्या है इसके पीछे का सच?
मंदिरों की पहचान सिर्फ उनकी शिखर, घंटी या मूर्तियों से नहीं बनती, बल्कि उस ऊंचाई पर लहराते उस त्रिकोण झंडे से भी बनती है, जो भक्तों को दूर से ही बता देता है कि इस दिशा में ईश्वर का घर है. मगर कभी ध्यान दिया कि हर मंदिर का झंडा सिर्फ और सिर्फ त्रिकोण ही क्यों होता है? जैसे बाकी ध्वजों का आकार बदलता रहता है, मगर मंदिर का झंडा हर मौसम, हर युग और हर संस्कृति में एक ही आकार का क्यों रहा?
यह सवाल अपनी जगह उतना ही रोचक है जितनी मंदिरों की सदियों पुरानी वास्तुकला, और इसे समझने के लिए हमें धार्मिक मान्यताओं के साथ-साथ ऊर्जा विज्ञान तक झांकना पड़ता है. ऊर्जा विज्ञान के मुताबिक त्रिकोण ऐसा आकार है, जो ऊपर उठती ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है.
यानी इससे निकलने वाली ऊर्जा हमेशा ऊपर की दिशा में प्रवाहित होती है. मंदिर का शिखर भी इसी सिद्धांत पर बनता है कि ऊर्जा को ऊपर की ओर खींचने के लिए. जब त्रिकोणाकार झंडा हवा में लहराता है, तो उसकी नुकीली आकृति वातावरण में मौजूद सकारात्मक तरंगों को मंदिर के ऊपर केंद्रित करती है.
इस तरह यह झंडा मंदिर की ऊर्जा को पूरे परिसर में फैलाता है, ठीक वैसे ही जैसे किसी दीपक की लौ कमरे में उजाला फैलाती है. त्रिकोण सिर्फ एक आकार नहीं है, यह हिंदू दर्शन में गूढ़ संकेत माना जाता है.
कहा जाता है कि एक त्रिकोण तीन शक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है- सृजन, पालन और संहार. यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश का संतुलन. मंदिर पर लगा झंडा यह बताता है कि देवालय वह स्थान है जहां ये तीनों शक्तियां एक साथ मौजूद रहती हैं. यही कारण है कि यह झंडा सिर्फ सजावट नहीं बल्कि आध्यात्मिक पहचान माना जाता है.
प्राचीन काल में झंडे मंदिर की पहचान, दिशा और स्थिति बताने का तरीका भी थे. अगर झंडा लहरा रहा है, इसका मतलब मंदिर खुला है, पूजा चल रही है और देवस्थान जीवित है. अगर झंडा न हो, तो यह किसी कारण संचालन बंद होने का संकेत होता था. यानी झंडे का काम सिर्फ धार्मिक नहीं, व्यावहारिक भी था.
विज्ञान यह है कि हवा की गति को त्रिकोण सबसे बेहतर तरीके से काटता है. ऊंचाई पर तेज हवा झंडे को जल्दी फाड़ देती है, लेकिन त्रिकोण आकार हवा में संतुलित रहता है. यानी यह धर्म और विज्ञान दोनों के हिसाब से सबसे टिकाऊ आकार साबित होता है.