जब अंग्रेजी से ज्यादा नशा देती है देसी शराब, फिर कीमत में क्यों होता है इतना अंतर?
शराब की दुनिया दो हिस्सों में बंटी हुई है, देसी और अंग्रेजी शराब. दिलचस्प बात यह है कि कई लोग बताते हैं कि देसी शराब का असर अंग्रेजी शराब से ज्यादा तेज होता है. इसके बावजूद अंग्रेजी शराब की कीमत आसमान छूती है, जबकि देसी शराब आम आदमी की जेब में फिट बैठती है. लेकिन यह फर्क सिर्फ ‘नशे’ का नहीं, बल्कि नीतियों, टैक्स, बाजार और ब्रांडिंग का खेल है.
सबसे पहला और बड़ा कारण है टैक्स का भारी अंतर. लगभग हर राज्य अंग्रेजी शराब को प्रीमियम कैटेगरी मानते हुए उस पर देसी शराब की तुलना में कई गुना ज्यादा एक्साइज ड्यूटी लगाता है.
अंग्रेजी शराब की बोतल की जितनी कीमत होती है, उसका बड़ा हिस्सा टैक्स में ही चला जाता है. इसके उलट देसी शराब पर कम टैक्स लगाया जाता है, ताकि यह कम आय वाले लोगों तक आसानी से पहुंच सके.
शराब की कीमतें इसलिए घटाई जाती हैं, क्योंकि सरकार को पता है कि यह सेक्शन ज्यादा खर्च नहीं कर सकता है. दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है पैकेजिंग और ब्रांडिंग. अंग्रेजी शराब का पूरा बाजार ग्लैमर, ब्रांड इमेज, मार्केटिंग और प्रीमियम क्वालिटी पर चलता है.
कांच की बोतल, लेबल, सील, विज्ञापन और प्रमोशन, इन सब पर लाखों-करोड़ों खर्च होते हैं. यही खर्च आगे कीमत में जोड़ दिए जाते हैं. वहीं देसी शराब की पैकेजिंग बेहद सिंपल होती है. अधिकतर राज्यों में यह प्लास्टिक के पाउच या साधारण बोतलों में मिलती है, जिन पर खर्च लगभग न के बराबर होता है.
तीसरा कारण है लक्ष्य बाजार अंग्रेजी शराब मध्यम और उच्च आय वर्ग को ध्यान में रखकर बेची जाती है, जो प्रीमियम उत्पादों के लिए अधिक कीमत चुकाने को तैयार होते हैं. वहीं देसी शराब मुख्यतः मजदूर वर्ग या कम आय वाले लोगों के लिए होती है, इसलिए इसकी कीमत नियंत्रित रखी जाती है ताकि यह आसानी से उपलब्ध रहे.
अब बात करते हैं उत्पादन और आपूर्ति की. एक दिलचस्प बात यह है कि कई देसी शराब निर्माता ही रेक्टिफाइड स्पिरिट (बेस स्पिरिट) उन कंपनियों को देते हैं जो अंग्रेजी शराब बनाती हैं. मतलब, कच्चा माल कई बार एक जैसा होता है, लेकिन प्रोसेस, फिल्टरेशन, फ्लेवरिंग, एजिंग और क्वालिटी चेक अंग्रेजी शराब में कहीं ज्यादा सख्त और महंगे होते हैं. ये सारे प्रोसेस उत्पादन लागत बढ़ाते हैं, जो आखिर में बोतल की कीमत में दिखते हैं.