Gulf Rupee: कभी अरब देशों में चलता था भारत का रुपया, फिर कैसे हो गया बंद?
भारतीय रुपया खाड़ी देशों में इसलिए हावी हो गया था क्योंकि यह क्षेत्र ब्रिटिश प्रशासन के तहत भारत के साथ बड़े पैमाने पर व्यापार करते थे. ज्यादातर खाड़ी देशों में कोई औपचारिक करेंसी सिस्टम नहीं था. यही वजह थी कि उन्हें भारतीय रुपया स्थिर, भरोसमंद और इंटरनेशनल व्यापार के लिए आसान लगता था.
अरब देशों में सोना सस्ता था लेकिन भारत में इस पर भारी पाबंदी थी. व्यापारी इसे खाड़ी रुपए से खरीदते थे और भारी मुनाफे के लिए भारत में स्मगल करते थे. इस वजह से भारत का विदेशी मुद्रा भंडार खत्म हो गया और एक वित्तीय संकट पैदा हो गया.
स्मगलिंग को रोकने के लिए आरबीआई ने 1959 में एक नई करेंसी शुरू की. इसका नाम था गल्फ रुपया. यह अलग रंग में छपा था और सिर्फ खाड़ी देशों में ही वैलिड था. अब गल्फ नोट भारत के अंदर एक्सचेंज नहीं किया जा सकते थे जिससे स्मगलर उन्हें भारतीय रुपए में ना बदल पाएं.
जब भारत ने 1966 में अर्थव्यवस्था को स्थिर करने के लिए अपने रुपए का 57% डीवैल्युएशन किया तो गल्फ रुपए की कीमत भी गिर गई. इस वजह से खाड़ी देशों को काफी ज्यादा नुकसान हुआ और उनकी बचत, सैलरी और रिजर्व की कीमत तुरंत कम हो गई.
डीवैल्युएशन की वजह से खाड़ी देशों ने तय किया कि वह अब भारत के आर्थिक फैसलों को अपनी दौलत पर असर नहीं डालने देंगे. इसके बाद उन्होंने अपना सुरक्षित मौद्रिक सिस्टम बनाया.
1966 और 1970 के बीच खाड़ी देशों ने भारतीय रुपए की जगह अपनी खुद की करेंसी कुवैती दीनार, बहरीनी दीनार, कतरी रियाल और बाद में यूएई दिरहम शुरू की. ओमान ने सबसे आखिर में 1970 तक रुपए का इस्तेमाल किया और फिर ओमानी रियाल अपनाया.