कैसे काम करती है सोलर जियो इंजीनियरिंग, इससे सूरज की रोशनी रोकना कितना खतरनाक?
सोलर जियोइंजीनियरिंग का विचार नया नहीं है. सबसे पहले 1992 में यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज ने इसका जिक्र किया था.
वैज्ञानिकों ने ध्यान दिया कि ज्वालामुखी विस्फोटों के समय जब वातावरण में सल्फर डाइऑक्साइड (SO2) भर जाता है, तो पृथ्वी थोड़ी ठंडी हो जाती है. इसी विचार से इंसानों के लिए आर्टिफिशियल तरीकों का अध्ययन शुरू हुआ.
तो सोलर जियोइंजीनियरिंग आखिर है क्या? इसे समझने के लिए कल्पना कीजिए कि आप धरती को एक विशाल छत्रछाया दे रहे हैं जो सूरज की गर्मी को रोक दे. वैज्ञानिकों का कहना है कि छोटे-छोटे कणों या गैसों को हवा में छोड़ कर सूरज की किरणों को रिफ्लेक्ट किया जा सकता है.
या फिर स्पेस में बड़े शीशे जैसी संरचना लगाकर रेडिएशन को वापस स्पेस में भेजा जा सकता है. इसका उद्देश्य सिर्फ धरती को थोड़ी ठंडक देना है ताकि ग्लोबल वार्मिंग और पिघलती बर्फ जैसी समस्याओं को रोका जा सके.
इस प्रयास के साथ कई चुनौतियां और खतरे भी जुड़े हैं. सबसे पहले, हम नहीं जानते कि पूरी तरह से यह काम करेगा या नहीं. इसके प्रभाव पूरी तरह अच्छे नहीं हैं. 2022 में मैक्सिको में एक स्टार्टअप कंपनी Make Sunsets ने दो बड़े गुब्बारे भेज कर सोलर जियोइंजीनियरिंग का परीक्षण किया, जिसमें सल्फर डाइऑक्साइड का उपयोग हुआ.
हालांकि, मैक्सिको सरकार ने तुरंत इस प्रयोग पर रोक लगा दी, क्योंकि इसका वायुमंडल और स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर हो सकता था. सल्फर डाइऑक्साइड अपने आप में जहरीली गैस है. अगर इसे हवा में लंबे समय तक रखा गया, तो नीला आसमान दिखना बंद हो जाएगा, सांस की बीमारियां बढ़ेंगी और ओजोन लेयर पर असर पड़ सकता है.
यह परत सूर्य की हानिकारक अल्ट्रावायलेट किरणों से बचाने का काम करती है. ओजोन पर असर होने से कैंसर और अन्य गंभीर स्वास्थ्य जोखिम बढ़ सकते हैं. मेसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों के अनुसार, यह तकनीक सूखा और अकाल जैसी प्राकृतिक समस्याओं को भी बढ़ा सकती है.