History Of Holi: हजारों साल पहले भारत में कैसे खेली जाती थी होली? बेहद पुराना है इसका इतिहास
होली का इतिहास इतना पुराना है कि इसे ईसा मसीह के जन्म के कई सदियों के पहले से मनाया जा रहा है. इसका उल्लेख जैमिनि के पूर्वमिमांसा सूत्र और कथक ग्रहय सूत्र (400-200 ई.पू.) में भी मिलता है.
प्राचीन भारत के मंदिर की दीवारों पर भी होली से संबंधित मूर्तियों में इस त्योहार का जिक्र मिलता है. ये मंदिर विजयनगर की राजधानी हंपी में स्थित है. इसमें राजकुमार और राजकुमारी अपने दासों समेत एक-दूसरे पर रंग लगाते नजर आते हैं.
वहीं हजारों साल पहले यानि प्राचीन काल में होली को होलका के नाम से जानते थे और इस दिन आर्य नवात्रैष्टि यज्ञ करते थे. इस पर्व में होलका नाम के अन्न से हवन करने के बाद उसका आधा प्रसाद लेने की परंपरा रही है.
होलका का अर्थ होता था, खेत में पड़ा हुआ वो अन्न् जो कि आधा कच्चा और आधा पका होता था. शायद इसी के नाम पर इस पर्व का नाम होलिका उत्सव रखा गया होगा. दरअसल प्राचीन काल से ही नई फसल का कुछ हिस्सा देवताओं को अर्पित करने का चलन रहा है.
धार्मिक मान्यता ये भी है कि त्रेतायुग की शुरुआत में भगवान विष्णु ने धूलि वंदन किया था. इसी ती याद में धुलेंडी यानि होली खेली जाती है. होलिका दहन के बाद रंग उत्सव की परंपरा को भगवान कृष्ण के काल से चली आ रही है.
प्राचीन समय में लोग फाल्गुन पूर्णिमा की पूर्व संध्या पर लोग होलिका जलाते हैं. वे सूखे गोबर के उपले, अराद या रेडी के पेड़ और होलिका के लिए पेड़ की लकड़ियां, ताजी फसल से अनाज और पत्ते होलिका में डालते हैं. इसके बाद सभी होलिका के पास इकट्ठे होते थे.
पहले के जमाने में होली के रंग टेसू या पलाश के फूलों से बनते थे और उनको ही गुलाल कहा जाता था. ये रंग त्वचा के लिए बहुत अच्छे होते थे, लेकिन बाद में रासायनिक रंगों का चलन बढ़ा. हालांकि अब लोग फिर से ऑर्गेनिक रंगों पर आ रहे हैं.