Arctic Ocean: एक नए अध्ययन से पता चला है कि क्लाइमेट चेंज की वजह से आर्कटिक का ग्लेशियर पूरी तरह से गायब होने वाला है. यानी कि साल 2027 तक यहां पहली बार गर्मी का मौसम आ सकता है. अध्ययन के अनुसार ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कारण आर्कटिक समुद्री बर्फ हर दशक में 12 फीसदी से ज़्यादा की औसत से पिघल रही है, जिसका मतलब है कि हम उस दिन की ओर बढ़ रहे हैं जब इसकी लगभग सारी बर्फ अस्थायी रूप से गायब हो जाएगी.
जलवायु वैज्ञानिकों ने किया अलर्ट
यह स्टडी हाल ही में नेचर कम्यूनिकेशन में पब्लिश हुई है. हालांकि इसमें कहा गया है कि अगर इंसान थोड़ा सुधार लाए तो ये प्रकिया 9 से 20 साल देरी से होगा. कोलोरडो बोल्डर यूनिवर्सिटी की जलवायु वैज्ञानिक एएलेक्जेंड्रा जॉन और गोथेनबर्ग यूनिवर्सिटी की सेलीन ह्यूज सहित एक अंतर्राष्ट्रीय रिसर्च टीम ने हाईटेक कंप्यूटर मॉडल का इस्तेमाल कर यह इस बात का पूर्वानुमान लगाया है.
इस साल (2024) नेशनल स्नो एंड आइस डेटा सेंटर ने बताया कि ने बताया कि आर्कटिक समुद्री बर्फ का न्यूनतम स्तर 4.28 मिलियन वर्ग किलोमीटर दर्ज किया गया, जो 1978 से सबसे निम्न स्तरों में से एक है. इस नए अध्ययन में 11 जलवायु मॉडल और 366 सिमुलेशन का उपयोग करके डेटा का विश्लेषण किया गया. इऩ जलवायु मॉडल से यह पता चला है कि अगर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम भी होता है तो साल 2030 तक आर्कटिक के सारे बर्फ पिघल जाएंगे.
बिगड़ सकता है जलवायु का संतुलन
जलवायु वैज्ञानिक एएलेक्जेंड्रा जॉन ने निष्कर्ष निकाला कि ग्रीनहाउस उत्सर्जन में कोई भी कमी समुद्री बर्फ को संरक्षित करने में मदद करेगी. उन्होंने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए तत्काल कार्रवाई के महत्व पर बल दिया. वैज्ञानिकों के इस पूर्वानुमान ने दुनिया के लोगों की टेंशन बढ़ा दी है. वैश्विक तापमान संतुलन, समुद्री धाराओं को चलाने समेत कई चीजों में आर्कटिक का ग्लेशियर महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.
जलवायु संकट पर ICJ में भारत का रुख
न्यूज एजेंसी पीटीआई की रिपोर्ट के मुताबिक भारत ने गुरुवार (5 दिसंबर 2024) को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) में एक ऐतिहासिक सुनवाई के दौरान जलवायु संकट पैदा करने के लिए विकसित देशों की आलोचना करते हुए कहा कि उन्होंने वैश्विक कार्बन बजट का सही तरीके से इस्तेमाल नहीं किया और जलवायु वित्त से जुड़े अपने वादे पूरे नहीं किए. भारत ने कहा कि अब वे मांग कर रहे हैं कि विकासशील देश अपने संसाधनों के इस्तेमाल पर रोक लगाएं.
भारत ने कहा, "अगर जलवायु को होने वाले नुकसान में योगदान असान है, तो जिम्मेदारी भी असान होनी चाहिए." भारत ने कहा कि जलवायु परिवर्तन में सबसे कम योगदान देने के बावजूद विकासशील देश इससे सबसे अधिक प्रभावित हैं.
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