गोली से कोई मरा, गोली से कोई बचा


विवेकभान सिंह झाला



चमगादड़ों की एक भरी पूरी बस्ती थी पुराने शहर के बीच. ऊंचे पेड़, पुराने खंडहर और हवेलियों के छायादार कंगूरों के नीचे सैंकड़ों चमगादड़ पूरे दिन उलटे लटके आराम करते थे. और शाम ढलते ही पंख फैला के हवा में तैरते उड़ते निकल पड़ते. उनका दिन तो रात को निकलता था. उसी बस्ती में गोली नाम का चमगादड़ था, बचपन से ही उड़ने में काफी तेज़ था एकदम बंदूक की गोली के माफिक, इसलिए नाम ही गोली पड़ गया. पिछले कुछ दिनों से गोली सबसे पहले उड़ जाता, और सुबह सबसे देर से लौटता. बीच में झुंड से अलग गायब हो जाता. किसी को नहीं पता कहां जाता था. शाम को पेड़ से उड़कर पास वाली झील पे उड़ते उड़ते कलाबाज़ी खाता हुआ पानी पीता, बस उसके बाद गायब. फिर सीधा सुबह ही दिखता. बीते कुछ हफ़्तों से बड़ा हृष्ट पुष्ट भी दिखने लगा था.


कई छोटे बड़े चमगादड़ों ने पूछा - गोली आखिर जाते कहां हो भाई. लेकिन गोली हमेशा बात को टाल जाता. सबने थक कर पूछना ही छोड़ दिया. लेकिन बिक्रम नाम के एक शक्की चमगादड़ ने ठान लिया कि वो गोली का राज जान के रहेगा. बस फिर क्या था, अगली ही शाम को वो गोली का पीछा करने लगा, लेकिन गोली को बिलकुल भनक नहीं लगी. नदी झील गांव पहाड़ सब लांघ कर गोली उड़ता रहा और बिक्रम उसके पीछे पीछे सुरक्षित दूरी पर पीछा करता रहा.


काफी देर उड़ने के बाद पुरानी गुफा सी दिखी, गोली उसके अंदर चला गया. बिक्रम बाहर ही रुक गया, उसने मन ही मन सोचा - देखने से चमगादड़ों की बस्ती तो नहीं लगती. कभी देखा सुना नहीं इस जगह के बारे में. उसका कौतहूल और बढ़ गया.


बिक्रम ने सोचा अंदर जाऊंगा तो गोली मुझे देख लेगा, इसलिए बाहर से ही जायजा लेता हूं, ये सोच कर वो उस गुफा के ऊपर मंडराता रहा. लेकिन आज पीछा करने के जुनून में वो ये भूल गया कि नए इलाके में सावधानी कितनी जरूरी है. उसे एक ही तरह से चक्कर मारते मारते काफी देर हो चली थी. एक बड़ा शिकारी उल्लू ये काफी देर से देख रहा था.


उल्लू बिना आवाज़ किए उड़ा और सीधा जाके बिक्रम को दबोच लिया. बिक्रम हक्का बक्का रह गया. गोली की जासूसी करने के चक्कर में वो आसमान के उसूल भूल गया और लापरवाही कर बैठा.


उल्लू के कसे हुए शिकंजे में फंसा बेदम होता बिक्रम सोच रहा था - न ही पता पड़ा कि गोली उस गुफा में क्यों जाता है, ऊपर से जान से हाथ धोना पड़ रहा है सो अलग. बड़े बुजुर्गों ने ठीक ही कहा है - अपने काम से काम रखो, किसी के फटे में टांग मत डालो. पर अब इन बातों का कोई फायदा नहीं. बस्ती के लोग कभी नहीं जान पाएंगे कि बिक्रम को क्या हुआ.


अचानक नीचे से बंदूक की गोली चलने की आवाज़ आई, जंगल में शायद किसी ने शिकार किया होगा. एकदम हुए धमाके से उल्लू चमक गया और पंजे ढीले पड़ गए, बिक्रम छटपटाया और पकड़ से छूट नीचे गिर गया. नीचे एक खजूर के पेड़ पर गिरा और उसके आगे के पंखों में लगे नाखून पत्तों में उलझ गए.


बिक्रम आसमान से गिरा और खजूर में अटका पड़ा था. उल्लू के पंजों से लगी खरोंचों की वजह से हल्का खून भी बहने लगा था. कमजोरी और थकान से उसकी आंखें बंद होने लगी थीं. तभी उसे अपनी तरफ आता कुछ महसूस हुआ, एक चमगादड़ सीधा उसकी ओर उड़ता आ रहा था. वो और कोई नहीं अपना गोली ही था, जो खुद बंदूक की गोली की आवाज़ से डर गया और गुफा से भागा ही था कि अचानक उसकी नज़र बिक्रम पर पड़ गई. उसने बिक्रम के पास लटक के उसके उलझे पंख को निकाल दिया. दोनों कुछ देर वहीं लटके रहे.


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(विवेकभान सिंह झाला की कहानी का यह अंश प्रकाशक जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित)