महाभारत के अमर पात्र: एकलव्य
डॉ. विनय
‘यह कैसे हो सकता है मित्र कि एक सींक बाण का रूप धारण कर ले और कुएं में प्रवेश करे और फिर सींक से सींक बाण की तरह जुड़ती चली जाए और कुएं में गिरी वस्तु उन जुड़ी सीकों से रस्सी की तरह बाहर निकाल दी जाए?'
‘तुम नहीं समझ पाओगे नागदंत! यह तो मंत्रशक्ति का चमत्कार है. इसमें कोई विस्मय नहीं है. तुम भारद्वाज मुनि के पुत्र आचार्य द्रोण को नहीं जानते! वे कितने बड़े साधक, धनुर्धारी है! विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं! उनके इस कर्म में कोई चमत्कार जैसी बात नहीं है. मैं जानता हूं कि वे सब प्रकार से समर्थ हैं, उन्होंने मंत्र पढ़कर सींक को कुंए में डाला तो वह सींक उनके मंत्र के प्रभाव से बाण में परिवर्तित हो गई. यह तो ऐसा है मानो कोई साधक तन्मय होकर जब कोई कर्म करता है तो वह तो होता ही है.'
‘लेकिन मित्र! तुम भी तो धनुर्धारी हो, निषादराज के पुत्र हो और अपनी विद्या में निपुण भी हो, लेकिन मैं तो तुम्हारे सामने अज्ञानी हूं, मुझे खुलासा करके तो बताओ.' हंसते हुए एकलव्य ने कहा, ‘तुम बहुत चतुर हो, मेरे अनुभव का लाभ लेना चाहते हो?’ दरअसल एकलव्य ने यह दृश्य अपनी आंखों से देखा था, उसने देखा था कैसे एक तपस्वी कौरव राजकुमारों की जिज्ञासा को अपने कौतुक से चमत्कृत कर रहा था.
निषादराज का यह पुत्र एकलव्य तो भील बालक था, वीर बालक था. वह तो जंगलों में आखेट करता था और अपने पिता से उसने यह सब सीखा था. आज तो वह हस्तिनापुर से आते हुए जब पास के जंगल से गुजर रहा था तो अचानक कुछ हलचल और विवाद देखा. उसके बढ़ते कदम रुक गए. आज वह अपने नाराच के लिए लोहा खरीदने के लिए गया था. यह तो उसे वहां जाकर पता चला कि सारा लोहा राजकुमारों के शस्त्रों के लिए निश्चित कर दिया गया है.
यह सोच रहा था, यह भी कोई बात हुई? राजकुमार हैं तो ठीक है, लेकिन क्या प्रजा के सारे काम रोक दिए जायेंगे? यह कैसा एक तंत्र शासन है? बालक एकलव्य के मन में विद्रोह जागना स्वाभाविक था और इसीलिए वह बाजार से बिना लोहा लिए खाली हाथ लौट रहा था.
वह तो अपने ही विचारों में खोया हुआ था, अपने आसपास कुछ शोर और बहस होते देखकर उसके पांव ठिठक गए. राजकुमारों के हाथ में लकड़ी की छड़ी थी, लेकिन वे खेल नहीं रहे थे. उनकी गेंद कुएं में गिर गई थी, वे निराश थे और उनके पास श्वेत जटाधारी, ऊंचे मस्तक, कसी भौंहे, बड़े नेत्र, उठी नाक का रक्तवर्णी दिव्य पुरुष खड़ा मुस्करा रहा था.
खुला जंगल प्रदेश था. ‘तुम यह कहां की बात कर रहे हो एकलव्य!'
‘तुम सुनते चले जाओ नागदंत! जो दृश्य मैंने अपनी आंखों से देखा है, जब तुम सुनोगे तो तुम भी उस चमत्कार के आकर्षण में डूब जाओगे. मैं जिस यशस्वी पुरुष की बात कर रहा हूं, वह कोई साधारण पुरुष नहीं.'
‘तुम्हारे अंदर यही तो खराबी है. तुम बात को सीधे न कहकर बढ़ा-चढ़ाकर कहते हो.' ‘देखो नागदंत! तुम्हें यह अटपटा अवश्य लगेगा, लेकिन मित्र, जो दृश्य मैंने देखा है, मैं उसके मोह से बाहर नहीं निकल पा रहा हूं.'
‘मैंने देखा एक वीतरागी तपस्वी, जिसे मैं पहचानता नहीं था, सामने दूर से मुझे आता दिखलाई पड़ा. यह हस्तिनापुर राजधारी के निकट वह विशाल उद्यान था, जहां राजकुमार नित्य-प्रति कुलगुरु कृपाचार्य के पास धनुर्विद्या सीखते थे और धर्म विद्या सीखते थे, तभी कुछ बालक दौड़ते हुए एक कुएं के पास गए. वे उसमें कुछ झांककर देख रहे थे.'
‘वे राजकुमार थे, इसलिए मैंने अपने को छिपा लिया, लेकिन मैं उनको पूरी तरह देख रहा था.'
‘उस वीतरागी तपस्वी ने जब उन बालकों को कुएं में झांकते हुए देखा‒अब मैं तुमसे कैसे कहूं, उनके चेहरे पर जो दिव्य मुस्कराहट थी, वह तो तुम नहीं अनुभव कर सकोगे नागदंत! वह तो मैं ही अनुभव कर सका हूं. खैर तुम सुनो'‒'क्यों क्या हुआ?’ नागदंत ने पूछा.
‘अरे! तुम कैसे जान पाए?'
‘क्या?'
‘यही कि उस दिव्य पुरुष ने उन राजकुमारों से यही प्रश्न किया‒
उन्होंने उनसे कहा‒'क्यों, क्या हुआ?'
‘हमारी गेंद कुएं में गिर गई है महाराज!'
‘तो फिर उसे निकालते क्यों नहीं?'
‘कुएं में पानी भी है और हम छोटे भी हैं. हम कुएं से गेंद कैसे निकाल पाएंगे?'
‘क्यों? तुम तो क्षत्रिय पुत्र हो, तुम्हारे कंधे पर धनुष बता रहे हैं कि तुम धनुर्धारी हो. अपने बाण के प्रयोग से उसे निकाल सकते हो.'
‘श्रीमान! बाणों से शत्रु पर वार किया जाता है, यह कोई खेलने की चीज नहीं, जो इससे कुएं में गिरी गेंद निकाली जा सके. आप तो हमारा उपहास कर रहे हैं'‒यह बात उन राजकुमारों में से एक अति मोटे राजकुमार ने कही. तभी दूसरा बोला‒ ‘क्या सचमुच ऐसा संभव है?'
‘हां क्यों नहीं? व्यक्ति चाहे तो पुरुषार्थ से क्या कुछ नहीं कर सकता?'
‘जरूर आप कोई तंत्र-मंत्र जानते हैं,’ तीसरे ने कहा. ‘मैं तंत्र-मंत्र तो नहीं जानता, लेकिन हां मंत्र जानता हूं और कर्म में विश्वास रखता हूं,’ उस वीतरागी ने कहा.
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(डॉ. विनय की किताब का यह अंश प्रकाशक जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित)