नई दिल्लीः उत्तर भारत में लोगों की पहली पसंद बनी बीजेपी तो दक्षिण भारत की जनता ने आखिर क्यों नकार दिया? तमिलनाडु और केरल के चुनावी नतीजों ने बता दिया है कि दक्षिण के किले को फतह करने के लिए पार्टी को अभी न सिर्फ और मेहनत करनी है बल्कि हिंदुत्व की उत्तर भारत की राजनीति को भी वहां बदलना होगा.


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी चिंतन करना चाहिए कि आखिर क्या वजह है कि दक्षिण भारत में उनका करिश्मा असर नहीं डाल पा रहा? तमिलनाडु में अब तक अन्नाद्रमुक की अगुवाई वाली सरकार में बीजेपी भी साझीदार थी. वहां से बाहर होने का यही मतलब है कि तमिलनाडु की द्रविड़ राजनीति, बीजेपी-आरएसएस के ठीक विपरीत है. ज्यादातर तमिल बीजेपी को ब्राह्मणवादी और सांस्कृतिक मामलों में हस्तक्षेप करने वाली उत्तर भारतीय पार्टी के रूप में देखते हैं.


प्रदेश की राजनीति के हिसाब से लोग वोट डालते हैं


इन राज्यों की राजनीति के बारे में ये कहा जा सकता है कि यहां उत्तर भारत में चल रही हवा को देखकर नहीं, बल्कि अपने प्रदेश की राजनीति के हिसाब से लोग वोट डालते हैं. साथ ही उत्तर भारतीय राजनीति को लेकर हमेशा उनके मन में एक ख़ास तरह का संशय रहा है. ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि तमिलनाडु में कांग्रेस को सत्ता से बेदख़ल हुए पचास वर्ष हो चुके है.उसके बाद से ही कांग्रेस या कोई दूसरी राष्ट्रीय पार्टी वहां अब तक जगह नहीं बना पाई है.


तमिलनाडु पूरी तरह क्षेत्रीय दलों के कब्ज़े में है.इसीलिये बीजेपी ने अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन किया था कि फिलहाल वह उसकी बैसाखी के सहारे ही सही लेकिन देर-सबेर वह अपने बूते पर सरकार बनायेगी लेकिन उसका यह सपना पूरा नहीं हो पाया.


दरअसल बीजेपी के हिंदू-हिंदी राष्ट्रवाद का मुक़ाबला दक्षिण भारत के द्रविड़ उप-राष्ट्रवाद से है जहां तमिल, कन्नड़, मलयाली या तेलुगु अस्मिता बहुत अहम है. उप-राष्ट्रवाद यानी सब-नेशनलिज़्म केंद्र में यही भावना है कि वे अपने राज्य में अपने तरीक़े से रहेंगे और फ़ैसले करेंगे. दिल्ली या उत्तर भारतीयों के दबदबे में आना उन्हें मंज़ूर नहीं है. जलीकट्टू पर प्रतिबंध को लेकर तमिलनाडु में जो हंगामा हुआ था, वह यही दिखाता है कि तमिल जनता नहीं चाहती कि दिल्ली से उन पर कोई राज करे.


प्रदेश की कमान डीएमके को सौंपने का फैसला कर दिया


कुछ अरसा पहले इसकी मिसालें भी देखने को मिली थीं. जब डीएमके के कार्यकारी अध्यक्ष एमके स्टालिन ने यह कहा था कि "केंद्र में सत्ताधारी एनडीए दक्षिण भारतीय राज्यों को नज़रअंदाज़ कर रहा है. इसलिए द्रविड़ नाडु पर सहमति बन सकती है." तब इस मुद्दे पर काफ़ी हंगामा भी मचा, स्टालिन ने बाद में कहा कि उन्होंने दक्षिण भारतीय राज्यों का अलग संगठन बनाने का कोई औपचारिक प्रस्ताव नहीं रखा है. लेकिन केंद्र सरकार के दक्षिणी राज्यों के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैए को देखते हुए अगर ऐसा होता है तो इस पर सहमति बन सकती है. जनता को उनकी बात में दम नजर आया और उसने प्रदेश की कमान डीएमके को सौंपने का फैसला कर दिया.


उधर, केरल में भी लोगों ने परंपरा को तोड़ते हुए सीपीएम के नेतृत्व वाले एलडीएफ को दोबारा सत्ता सौंप दी है. गौरतलब है कि केरल के लोगों ने हमेशा हर पांच साल में सरकारें बदलने के लिए ही मतदान किया है. लेकिन अब इस ट्रेडिशन पर ब्रेक लगा दिया. हालांकि बीजेपी ने राज्य में आक्रामक चुनावी-अभियान चलाया लेकिन किसी भी एग्जिट पोल ने राज्य में उसे तीन से पांच सीटों से ज्यादा मिलने की भविष्यवाणी नहीं की थी. तमाम आलोचनाओं के बावजूद, कोई इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि मुख्यमंत्री पनराई विजयन ने पार्टी का आधार बढ़ाया है.


हिंदुत्व की राजनीति का केरल में परवान चढ़ना सांस्कृतिक कारणों से भी मुश्किल है


विजयन ने सीपीएम की 'हिंदू पार्टी' होने की छवि को उस समय बदला जब केरल की राजनीति बेहद अहम मोड़ पर खड़ी थी. एक समय ऐसा था जब कहा जाता था कि सीपीएम अपने सदस्य गंवा रही है, लेकिन उसकी सदस्यता में कमी नहीं आ रही थी. इसकी वजह ये थी कि पार्टी मुस्लिम और ईसाई समुदाय के लोगों को अपने साथ जोड़कर नए सदस्य बना रही थी.


हिंदुत्व की राजनीति का केरल में परवान चढ़ना सांस्कृतिक कारणों से भी मुश्किल है. केरल से आने वाले केजे अल्फ़ोंस ने मंत्री बनने के बाद कहा था कि बीफ़ कोई मुद्दा नहीं है, केरल में लोग हमेशा से बीफ़ खाते रहेंगे और आगे भी खाते रहेंगे, लोगों के खान-पान की आदतों का सम्मान करना चाहिए आरआरएस भी कह चुका है कि केरल के उसके कार्यकर्ता अगर बीफ़ खाते हैं तो उसे कोई आपत्ति नहीं है.