श्रद्धा मर्डर केस में आरोपी आफताब पूनावाला का नार्को टेस्ट होना हैं और नार्को टेस्ट से पहले आफताब का पॉलीग्राफी टेस्ट कराया जाएगा. पुलिस के मुताबिक इन दोनों टेस्ट के जरिए आरोपी से सच उगलवाने की कोशिश की जाएगी. ऐसे में ये जानना जरूरी है कि आखिर नार्को और पॉलीग्राफी टेस्ट क्या होते हैं और इन दोनों टेस्ट के जरिए कितने फीसदी सच सामने आने की संभावना रहती है? 


किसी भी गंभीर आपराधिक मामले में सच का पता लगाने के लिए ये टेस्ट किए जाते हैं. ऐसे मामलों में जब आरोपी पुलिस पुछताछ में सच नहीं बोलता या पुलिस की ओर से की जा रही जांच को भटकाने की कोशिश करता है, तब पुलिस अदालत से ये टेस्ट करवाने की अनुमति लेती है और फिर टेस्ट कराए जाते हैं. फॉरेंसिक साइंस लेबोरट्री एफएसएल की ओर से ये टेस्ट कराए जाते हैं. श्रद्धा वॉल्कर मर्डर केस में एफएसएल रोहिणी में पॉलीग्राफी टेस्ट होना हैं. जबकि नार्को टेस्ट रोहिणी स्थित डॉ बाबा साहेब अंबेडकर अस्पताल में किया जाएगा.


कैसे किया जाता है नार्को टेस्ट और पॉलीग्राफी टेस्ट


रोहिणी एफएसएल में फॉरेंसिक साइकॉलोजी विभाग के अध्यक्ष डॉ पुनीत पुरी ने एबीपी न्यूज को बताया कि नार्को टेस्ट एक मेडिकल टेस्ट है. जिसमें आरोपी को एक तरीके से एनेस्थीसिया का डोज दिया जाता है, जबकि पॉलीग्राफी टेस्ट एफएसएल में होता है क्योंकि ये एक साइंटिफिक टेस्ट होता है.


जिसमें मरीज की शारीरिक गतिविधियों पर नजर रखी जाती है. डॉ पुनीत ने बताया पॉलीग्राफी टेस्ट में व्यक्ति के ब्लड प्रेशन, हार्ट रेट, प्लस रेट, शरीर से निकलने वाले पसीने की जांच, हाथ-पैरों का मूवमेंट आदि की जांच होती है. इस टेस्ट में मरीज को किसी भी प्रकार की दवाई नहीं दी जाती. 


डॉ पुनीत के मुताबिक नार्को टेस्ट में एक खास किस्म की दवा व्यक्ति को दी जाती है. जिसके बाद वो व्यक्ति वही बोलता है जो उसके दिमाग में होता है, दवा देने के बाद व्यक्ति अचेत अवस्था में आ जाता है और फिर एक्सपर्ट उससे सवाल पूछते हैं जिसके बाद व्यक्ति उसके जवाब देता है और यदि इस दौरान व्यक्ति झूठ बोलता है तो उसकी पल्स रेट, हार्ट रेट और शारीरिक गतिविधियों में बदलाव होता हैं. जैसे की पसीना आना, धबराना, रोना आदि क्योंकि यदि व्यक्ति झूठ बोलता है तो वो सोचने लगता है, वो घबरा जाता है.


जिससे ये पता चल जाता है कि व्यक्ति झूठ बोल रहा है. इसीलिए नार्को टेस्ट से पहले व्यक्ति की शारीरिक गतिविधियों की जांच के लिए पॉलीग्राफी टेस्ट किया जाता है. डॉ ने बताया कि हर एक केस में नार्को टेस्ट से पहले पॉलीग्राफी टेस्ट कराना अनिवार्य नहीं होता. लेकिन गंभीर मामलों में नार्को टेस्ट से पहले पॉलीग्राफ टेस्ट किया जाता है. साथ ही उन्होंने बताया कि नार्को टेस्ट में एक से डेढ़ घंटे का समय लगता है, जबकि पॉलीग्राफी टेस्ट में कई बार पुरा दिन या फिर अगला दिन भी लग सकता है. क्योंकि पॉलीग्राफी टेस्ट में व्यक्ति की शारिरीक गतिविधियों को रिकोर्ट करना होता है.


आरोपी की ओर से बताए गए सच की क्या गारंटी होती है?


वहीं इन दोनों टेस्ट के बाद आरोपी की ओर से बताए गए सच की क्या गारंटी होती है? और इन टेस्ट से कितना फीसदी सच सामने आता है? इसको लेकर सेंट जॉन्स मेडिकल कॉलेज बैंगलोर से मनौचिकित्सक डॉ स्मिता देश पांडे बताती हैं, कि इन टेस्ट के जरिए पूरी तरीके से सच सामने आने की गारंटी नहीं होती.


क्योंकि नार्को-पॉलीग्राफी टेस्ट में कई बार व्यक्ति अपनी भावनाओं को कंट्रोल करने में सफल हो जाता है, उसपर नार्को टेस्ट के दौरान दी जाने वाली दवा की ज्यादा असर नहीं रहता, ठीक उसी प्रकार जैसे कई बार नशे में भी व्यक्ति होश में रहता है. ऐसे में नार्को टेस्ट के दौरान पूरी तरीके से सच सामने आने की कोई गारंटी नहीं होती.


डॉ स्मिता कहती है कि यदि नार्को और पॉलीग्राफी टेस्ट में शख्स अपनी भावनाओं पर कंट्रोल कर लेता है तो इन टेस्ट का कोई मतलब नहीं रह जाता. किसी भी कानूनी मामले में वैज्ञानिक तरीके से जांच करने के लिए ये टेस्ट किए जाते हैं. जब इन टेस्ट में व्यक्ति से सवाल किए जाते हैं तो उसके दिमाग में जो होता है वो वहीं कहता है लेकिन यदि ऐसा नहीं होता तो वो सोचने लगता है.


उस घटना में चला जाता है, रोने लगता है, या फिर गुस्सा होना, चिल्लाना जैसे लक्षण नजर आते हैं. जिस प्रकार किसी नशे आदि का सेवन करने के बाद व्यक्ति के सोचने समझने की शक्ति कम हो जाती है, उस वक्त उसके मन में जो होता है वो वहीं कहता और करता है. ठीक उसी प्रकार नार्को टेस्ट के दौरान भी व्यक्ति वही करने लगता है.


साथ ही नार्को टेस्ट डॉक्टरों की एक टीम की निगरानी में किया जाता है. ये टेस्ट ऑपरेशन थियेटर में होता है. जिसमें डाक्टरों के साथ मनोचिकित्सक भी मौजूद रहते हैं. नार्को टेस्ट के लिए जो दवा व्यक्ति को दी जाती है वो उसकी उम्र और मेडिकल कंडीशन को देखकर दी जाती है क्योंकि यदि इस दवा का डोज अधिक होता है तो व्यक्ति के लिए नुकसानदायक भी हो सकता है.


झूठ का ऐसे लगता है पता 


इसके साथ ही लॉयड इंस्टिट्यूट ऑफ फॉरेंसिक सांइस से फॉरेंसिक एक्सपर्ट प्रोफेसर अमरनाथ मिश्रा बताते हैं कि पॉलीग्राफी टेस्ट जिसे लाई-डिटेक्टर टेस्ट भी कहा जाता है. ये एक तरीके की मशीन होती है जो व्यक्ति की शारीरिक गतिविधियों का संकेत देती है. इस टेस्ट के दौरान पॉलीग्राफी मशीन के अलग-अलग प्लाइंट व्यक्ति के शरीर के कई हिस्सों पर लगाए जाते हैं जिसमें उसके सीने पर, उंगलियों, दिमाग शामिल हैं, फिर उससे सवाल किए जाते हैं.


उन सवालों के जवाब देने के दौरान व्यक्ति के शरीर की जो गतिविधियां रहती हैं. उसे इस टेस्ट में रिकोर्ड किया जाता है. मशीन उसके संकेत देती है. इस टेस्ट के दौरान यदि व्यक्ति किसी सवाल पर झूट बोलता है तो उसकी हार्ट रेट बढ़ जाती है, उसके शरीर से पसीना निकलने लगता है, वो घबराता है.


नार्को और पॉलीग्राफी टेस्ट में अंतर बताते हुए डॉक्टर अमरनाथ मिश्रा बताते हैं कि दोनों टेस्ट में अंतर है क्योंकि नार्को टेस्ट जिसे नार्को एनालिसिस टेस्ट भी कहा जाता है, इस टेस्ट में व्यक्ति सचेत हालत में नहीं होता उसे बेहोशी के लिए एक तरीका का ड्रग दिया जाता है जिसे सोडियम पेंटोथोल कहा जाता है.


इंजेक्शन के जरिए ये ड्रग देने के बाद व्यक्ति आधा होश में और आधा बेहोशी की हालत में होता है. जबकि पॉलीग्राफी टेस्ट में व्यक्ति पूरी तरह से होश में रहता है उसे कोई बेहोशी की दवा नहीं दी जाती है. इस टेस्ट में केवल उसकी शारीरिक गतिविधियों को रिकोर्ड किया जाता है.


नार्को टेस्ट में व्यक्ति को एनेस्थीसिया देने के बाद उससे सवाल किए जाते हैं. एक्सपर्ट आरोपी से क्राइम सीन से जुड़े सवाल करते हैं, जिससे उसके दिमाग में जो होता है वो वहीं बोलता है, क्योंकि कई बार हम देखते हैं कि व्यक्ति नशे की हालत में ऐसी बातें बोल देता है जो वो नार्मल होते हुए नहीं बताता. इस डोज में व्यक्ति नशे जैसी हालत में चला जाता है. इसीलिए उससे सवाल किए जाते हैं. इसके साथ ही एक्सपर्ट का ये भी कहना है कि जिस व्यक्ति का ये टेस्ट किया जाता है.


वो टेस्ट के दौरान जो बाते बोल रहा है, वो 100 फीसदी सच हैं या  नहीं. ये कह पाना मुश्किल है. क्योंकि कई लोग इस टेस्ट के दौरान अपनी भावनाएं कंट्रोल भी कर लेते हैं. जिस प्रकार से नशे के आदि लोग कितना भी नशा कर लें उनको होश रहता है और वो एक आम व्यक्ति की तरह पूरे होश में नजर आते हैं.


इसलिए अदालत में इसे एक प्रूफ के तौर पर नहीं माना है. लेकिन पुलिस अपनी जांच को पक्का करने के लिए ये टेस्ट करवाती है. जिसके लिए अदालत से परमिशन लेनी होती है और अदालत की परमिशन और आरोपी व्यक्ति की रजामंदी से ही ये टेस्ट होते हैं. यदि आरोपी नहीं चाहता तो पुलिस अपनी मर्जी से किसी आरोपी के ये टेस्ट नहीं करवा सकती.


इस टेस्ट के बाद पुलिस आरोपी की ओर से बतायी गई बातों को फिजिकली तौर पर जाकर चेक करती है. नई जानकारी निकलने पर उसकी जांच की जाती है. लेकिन इन टेस्ट के दौरान व्यक्ति कितना सच बोल रहा है, ये उस पर निर्भर करता है यदि वो इस डोज को कंट्रोल कर लेता है तो वो सच की जगह झूठ भी बोल सकता है.


बता दें दिल्ली पुलिस श्रद्धा मर्डर केस में आरोपी आफताब से पूछताछ कर रही हैं आरोपी ने इस मामले में श्रद्धा के मर्डर के बाद उसके शरीर के टुकड़े कंहा कंहा फेंके? कहां छिपाएं और उसने हथियार कहां रखे? कहां फेंक दिए? आदि सवालों के जवाब जानने के लिए आरोपी का नार्को और पॉलीग्राफी टेस्ट करा रही है.